इन चुनावों में खट्टर या फडणविस नहीं, नरेंद्र मोदी और अमित शाह हारे हैं

महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनावी नतीजों में ज्यादातर न्यूज चैनलों के एक्जिट पोल, विश्लेषक, एंकर तो हारे ही हैं, लेकिन सबसे बड़ी हार हुई है नरेंद्र मोदी और अमित शाह की, क्योंकि यही दोनों दोनों राज्यों के चुनावों के केंद्र में रहे।

फोटो : Getty Images
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उत्तम सेनगुप्ता

महाराष्ट्र और हरियाणा के चौंकाने वाले नतीजे अगर किसी के लिए राजनीतिक झटका हैं तो वो हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष और गृहमंत्री अमित शाह। हालांकि ये दोनों काफी समय से एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

गुरुवार को आए नतीजों में भले ही महाराष्ट्र में बीजेपी ने शिवसेना के साथ गठबंधन में जीत हासिल की हो और हरियाणा में बहुमत से दूर रहने के बाद भी शायद बीजेपी सरकार बनाने में कामयाब हो जाए, लेकिन इन दोनों राज्यों का सबसे बड़ी पराजय अगर किसी की है, तो वह पीएम मोदी और उनके लेफ्टिनेंट अमित शाह।

बीजेपी भले ही न माने, लेकिन दोनों राज्यों के वोटरों ने इन दोनों की राजनीति और शब्दाडंबर को ठेंगा दिखा दिया है। नतीजे पूरी तरह घोषित होने से पहले ही पार्टी के निराशाजनक प्रदर्शन का ठीकरा महाराष्ट्र में बीजेपी के बागियों पर और हरियाणा में सीएम मनोहर लाल खट्टर के सिर फोड़ा जाने लगा है।

वैसे तो दोनों राज्यों में हैवीवेट नेताओं और मंत्रियों की हार से स्पष्ट हो गया है कि बीजेपी के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर थी। विपक्षी नेताओं की भारी अंतरों से जीत भी इसी ओर संकेत कर रही है, फिर भी पीएम ने इन दोनों राज्यों के चुनाव को अपनी कश्मीर नीति और पूरे देश में एनआरसी लागू करने की मंशा पर जनादेश के तौर पर सामने रखा था।

यह लेख लिखे जाने तक हरियाणा में कम से कम सात मंत्री पीछे चल रहे थे और महाराष्ट्र में पंकजा मुंडे, राम शिंदे, जयदत्त क्षीरसागर, दिलीप सोपाल, रोहिणी खडसे और अर्जुन खोटकर जैसे नेता हार चुके थे।

रोचक यह भी है कि बीजेपी के टिकट पर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणविस 30,000 वोटों से जीत गए, लेकिन एनसीपी के अजित पवार की जीत का अंतर 1,65,000, छगन भुजबल का 48,000 और अशोक चव्हाण का 97,000 वोट रहा।

इन दोनों राज्यों में जहां कांग्रेस ने प्रचार का जिम्मा स्थानीय नेताओं पर छोड़ा था, वहीं बीजेपी पूरी तरह प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह पर ही भरोसा करती रही। हालांकि प्रचार के दौरान कांग्रेस के आलोचकों ने इसे उठाया भी कांग्रेस नेतृत्व ने महत्वपूर्ण चुनाव स्थानीय नेताओं के हाथों में सौंप दिया है और अब वही आलोचक कह रहे हैं कि कांग्रेस की जीत का अर्थ यही है कि बड़े नेता प्रचार से दूर रहे। लेकिन बीजेपी का प्रचार तो पूरी तरह मोदी-शाह के कंधों पर ही रहा।


हर चुनाव को अपने ही बारे में चुनाव बनाकर प्रधानमंत्री मोदी ने खुद तो एक तरह से बीजेपी के लिए अपरिहार्य साबित कर दिया है। कहा जा सकता है कि बिना मोदी के बीजेपी आकर्षणविहीन हो जाएगी, क्योंकि मोदी की लोकप्रियता और किसी विशेष ‘लक्ष्य’ को लेकर उनकी ‘प्रतिबद्धता’ के आधार पर ही पार्टी फल-फूल रही है, लेकिन फिर भी मोदी की कद्दावर छवि स्थापित करने के बावजूद बीजेपी की हालत क्या हुई है।

लेकिन, फिर इसी कारण से इस चुनावी हार की सारी जिम्मेदारी भी तो पीएम मोदी और उनके साथ अमित शाह की ही बनती है। मोदी से पहले किसी भी प्रधानमंत्री ने चुनावों में इतना समय और ऊर्जा नहीं खपाई होगी, और शायद राष्ट्रपति प्रणाली के चुनाव की मोदी की यही शैली कारण है कि ‘बीजेपी एक राष्ट्र एक चुनाव’ की वकालत करती है।

दोनों राज्यों में विपक्षी की मजबूत वापसी और प्रदर्शन इस बात द्योतक है कि पीएम की लोकप्रियता ढलान पर है और दूसरा ‘सरदार’ बनने का अमित शाह का उत्साह भी लुढ़कता दिख रहा है। लगभग हर चुनावी रैली में अमित शाह ने देश भर में एनआरसी लागू करने की धमकी दी और ऐलान किया कि सरकार हर एक घुसपैठिए को निकाल बाहर करेगी। ध्यान रहे कि इसी सप्ताह अमेरिका की एक संसदीय समिति ने एनआरसी को ‘क्रैकपॉट’ कहा था, तो महाराष्ट्र और हरियाणा के वोटरों ने भी एनआरसी, 370 हटाने के फैसले और सीमापार आतंकवाद के डर को ठेंगा दिखा दिया।

इन चुनावों से यह भी साफ हो गया कि वोटर अब इन दोनों की राष्ट्रवादी बक-बक और हर किसी को राष्ट्र विरोधी या गद्दार ठहराने की आदत से उकता चुके हैं। दोनों ने चुनाव प्रचार में विपक्षी दलों और खासतौर से कांग्रेस पर हमले किए और कांग्रेस को पाकिस्तान समर्थक तक ठहराने की कोशिश की। लेकिन नतीजों ने मोदी की अपनी सीमाओं और पाकिस्तान, राष्ट्रवाद और आतंकवाद जैसे चुनावी हथकंडों की हकीकत भी सामने रख दी।

हद तो यह है कि दोनों ने सैन्य सेवाओं तक का राजनीतिकरण करने की कोशिशें की हैं। रैलियों में कहा गया कि महाराष्ट्र और हरियाणा से भारी तादाद में लोग सेना में जाकर देश की सेवा करते हैं, और विपक्ष को इनके बलिदान की परवाह नहीं है। लेकिन यह हथकंडा भी नाकाम ही साबित हुआ।

लेकिन, सवाल यही है कि क्या ये दोनों इन नतीजों से कोई सबक सीखेंगे? पूर्व की घटनाओं से ऐसा होना मुश्किल ही लगता है। सवाल यह भी है कि क्या आने वाले चुनावों में बीजेपी इन दोनों नेताओं के राष्ट्रवाद, पाकिस्तान और आतंकवाद जैसे हथकंडों के बजाय स्थानीय मुद्दों पर फोकस करेगी? ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ेगा क्योंकि झारखंड, बिहार के साथ ही दिल्ली के चुनाव भी आ ही गए हैं।

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