मैकॉले को कितना भी कोसा जाए, लेकिन यह मानना पड़ेगा कि आधुनिक स्कूल की चौखट कुछ हद तक खुली!

यह स्मरण रहना चाहिए कि जालियों से झांकने पर बेड़ियां दिखाई पड़ सकती हैं। उनको ललकारा भी जा सकता है। मैकॉले को कितना भी कोसा जाए, यह मानना पड़ेगा कि आधुनिक स्कूल की चौखट कुछ हद तक खुली।

फोटो: सोशल मीडिया
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मीनाक्षी नटराजन

सरकार ने बड़े जोश के साथ यह घोषणा की कि लार्ड मैकॉले द्वारा प्रतिपादित शैक्षणिक व्यवस्था को नेस्तनाबूद किया जाएगा। नई शिक्षा नीति उसी का आगाज है। पिछली सरकारों ने मैकॉले की विरासत को आत्मसात किया था। अंग्रेजी अधिनायकत्व से असल आजादी का प्रयत्न तो अब हो रहा है।

यह प्रसंगवश याद रखा जाना चाहिए कि जिस विचार व्यवस्था से यह वर्तमान सरकार पल्लवित-पुष्पित हुई है, वह अंग्रेजी साम्राज्यवाद से कभी लड़ी ही नहीं। अंग्रेजी राज में लड़ने पर जेल जाना पड़ता, गोली-लाठी खानी पड़ती। सो माफी मांग कर हलफनामा दिया गया कि कभी अधिनायकत्व के खिलाफ नहीं लड़ेंगे। गोया कि “वीर” कहलाने के लिए उनसे भिड़ना कौन-सी अनिवार्यता है। वह तो मजहबी द्वि-राष्ट्र की बात कहकर भी कहलाया जा सकता है।

खैर, आलेख का मकसद उनके हाल के बयान से निकलते पहलुओं को टटोलना है। संयोगवश उन्हीं दिनों दिल्ली के अजमेरी गेट स्थित तकरीबन साढ़े तीन सौ साल से चले आ रहे एंग्लो अरेबिक सीनियर सेकंडरी स्कूल कहलाते परिसर में जाना हुआ। उस इमारत की पहली मंजिल के बरामदे में सदियों पुरानी जालियों से बच्चों को झांकते देखा। खुद भी झांकने की इच्छा हुई। उन जालियों ने कई पीढ़ियों को अलग-अलग ढंग से पढ़ते देखा। सो यहां शिक्षा व्यवस्था से जुड़ी  कुछ झलकियों को  रखने की कोशिश है।


औपनिवेशी हुक्मरानों के प्रचार से विपरीत भारत में हजारों साल से पठन-पाठन की एक परंपरा रही है। अशोक के शिलालेख से लेकर विभिन्न काल के देश भर में फैले वीरगल,स्तूप, शिलालेख में शिक्षण व्यवस्था हेतु कोई न कोई निर्देश जरूर पढ़े जा सकते हैं। शाला प्रबंधन, शिक्षकों का वेतन या भत्ता आदि के लिए कर की समुचित व्यवस्था का भी विस्तृत उल्लेख है।

ज्यादातर शालाएं किसी मंदिर परिसर, बौद्ध मठ, जैन उपासरे से जुड़ी रहती थीं। इनमें स्मृतियों, वेद-वेदांत के अलावा गणित, खगोल जीव रचना आदि पढ़ाई जाती। बौद्ध और जैन परिसर में खेती और अन्य हुनर का भी अभ्यास होता। वहां स्मृति,वेद आदि के स्थान पर तिपिटक और जैन दर्शन पढ़ाया जाता। जाहिर है कि मंदिर से जुड़ी व्यवस्था में केवल एक ही समूह का प्राधन्य था। वह भी मात्र पुरुषों के लिए विशेषाधिकृत स्थान रहा । राज परिवार, सामंत, जागीरदार, वणिक स्वीकारे जाते थे। पर कामगारी कौम को अक्षर ज्ञान की क्या जरूरत! स्त्रियों को क्यों कर भला पढ़ाया जाए। बौद्ध मठ के पृथक भिक्खु और भिक्खुणी संघों में जरूर शिक्षा सर्व साधारण को उपलब्ध थी।

कुछ काल तक जैन मतावलंबियों के बीच भी रही। पर धीरे-धीरे राजाश्रय खत्म होता गया, आंतरिक संकुचितता भी पैर पसारने लगी। श्रवणबेलगोला, नागपट्टनम, कांचीपुरम के विद्यालय अप्रासंगिक होते गए। ब्राह्मणवादी विचार प्राधन्यता का प्रहार नहीं झेल सके। नालंदा भस्म होने से पहले ही उजड़ने लगा था।

संभ्रांत वर्ग में निजी शिक्षक से पढ़ाए जाने की रीत जरूर थी और अनेक राजकुमारियों की विद्वता के किस्से बहुत हद तक सही हो सकते हैं।

शिक्षा क्या होती है, इसी से पूरा उपमहाद्वीप अनजान रहा हो। माने शिक्षा व्यवस्था ही नहीं रही हो। यह औपनिवेशिक दावा गलत है। यह सही है कि वह व्यवस्था सबको सुलभ नहीं थी, बहुजन को तो कतई नहीं।

फिर मध्य काल में जिसका इतिहास ही मिटाने की कोशिश को आजादी का संघर्ष कहकर महिमामंडित किया जा रहा है, उस दौर का भी अवलोकन होना चाहिए। आखिर जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने व्यापार और क्षेत्र विस्तार आरंभ किया, तब देश के बड़े हिस्से में मुगल, मराठा, अनेक सल्तनतें फैली हुई थीं।विजय नगर साम्राज्य अपवाद था, वह भी  सिमट रहा था। ऐसे राजनीतिक तहजीबी पर्यावास में शिक्षा कैसी थी। खुद अंग्रेज अधिकारी यह स्वीकारते हैं कि अकेले बंगाल में तीस हजार शिक्षा केन्द्र थे। यह कंपनी को  दीवानी मिलने के पहले की संख्या है। वे मदरसे कहलाते थे। वेद पाठशालाएं अलग थीं।


प्रसिद्ध इतिहासकार सी. सुब्रमण्यम तमाम भित्ति चित्रों और अन्य शिक्षण संबंधी चित्रकारी के गहन अध्ययन से यह उजागर करते हैं कि इन शिक्षा परिसरों में काफी समता थी। लैंगिक समता तो नहीं थी, पर जन साधारण के लिए कमोबेश ज्यादा सुलभ व्यवस्था थी।

दिल्ली के मौजूदा एंग्लो अरेबिक स्कूल का उदाहरण लें। उसकी नींव सत्रहवीं सदी में रखी गई। औरंगजेब के एक मनसबदार गयासुद्दीन ने आकल्पन किया। आज भी परिसर में मस्जिद और उनकी कब्र है। यह मदरसा गयासुद्दीन कहलाता था। ईस्ट इंडिया कंपनी का  प्रभुत्व बढ़ने पर, अंग्रेज अधिकारियों ने इसे दिल्ली कॉलेज में तब्दील किया। वहां अरबी, फारसी, मजहबी तालीम के अलावा अंग्रेजी, विज्ञान, गणित आदि विषय जुड़ गए।

दरअसल, कंपनी के शुरुआती दौर से ही दो विपरीत विचार के अधिकारी रहे। ओरियनटलिस्ट मानते थे कि भारतीय उपमहाद्वीप का तहजीबी अन्वेषण होना चाहिए और उसको समझ कर ही शासन आसान होगा। उनके मंसूबे कतई गैर अधिनायकत्ववादी नहीं थे। मगर वह कम-से-कम यह तो स्वीकारते थे कि उनके आगमन से पहले भी यहां कई समृद्ध परंपरा रही है। उसका सिलसिलेवार अध्ययन होना चाहिए। ऑक्सीडेंटलिस्ट इसको सीरे से खारिज करते थे। उनको लगता था कि उनकी मेहरबानी से ही उपमहाद्वीप सभ्य बनेगा और वह पुराना सब कुछ ध्वस्त करके ही होगा। यहां  के इतिहास में कुछ भी गौरवपूर्ण नहीं और उसके अन्वेषण में समय, संसाधन जाया न किया जाए। ओरियंटलिस्ट अधिकारियों और जिज्ञासुओं की बदौलत कई लिपियां पढ़ी गईं, समझी गईं, अनेक तथ्य उजागर हुए।

अधिकारियों में दो धड़े और थे। खासकर 1857 की क्रांति के बाद एक वर्ग ने प्राचीन काल को काफी वैभवशाली करार करके मध्यकाल को श्याम काल सिद्ध किया। मुगल बादशाह को क्रांति का अगुवा माना गया। दूसरा वर्ग मुस्लिम शिक्षा, प्रगति को प्रोत्साहित करने के बहाने फूट को पोषित करना चाहता था। मंसूबा भेद को गहराना था और अपनी सत्ता को मजबूत करना था ।


लार्ड मैकॉले ओरियंटलिस्ट कतई नहीं थे। अंग्रेजीदां शिक्षा व्यवस्था के जनक माने जाते हैं। शिक्षा को नैसर्गिक विवेक से पूरी तरह पृथक करना और देशी बाबू तैयार करना बरतानिया हुकूमत का मकसद था। पाठ्यक्रम इसी को लक्ष्य करके तय किया गया । इसके परिणाम स्वरूप ऐसी पीढ़ी निर्मित हुई जो अपनी विरासत को लेकर कुंठित रही और गुलामी को अपने लिए श्रेयस्कर समझा। गुलामी को व्यवस्था मान लिया, ऐसा हुआ भी । मगर मैकॉले की व्यूह रचना से इतर फ्रांसीसी क्रांति आदि पढ़कर चेतना भी आई और फिर साम्राज्यवाद को चुनौती मिली। उस शिक्षा ने सदियों की जातीय प्राधन्यता , भूमि पर अधिकार और  लैंगिक असमता की ओर भी ध्यान खींचा।

यह स्मरण रहना चाहिए कि जालियों से झांकने पर बेड़ियां दिखाई पड़ सकती हैं। उनको ललकारा भी जा सकता है। मैकॉले को कितना भी कोसा जाए, यह मानना पड़ेगा कि आधुनिक स्कूल की चौखट कुछ हद तक खुली। हालांकि जातिगत भेद,  छुआछूत पानी के मटके और बैठक व्यवस्था में सतत जारी रही। 1947 में भारत की साक्षरता दर मात्र 16 प्रतिशत थी। स्कूल सबके लिए होने चाहिए, ऐसी कोई प्रतिबद्धता नहीं थी। यह आजाद भारत में हुआ। संविधान ने सुनिश्चित किया।

कई बार जालियों से किसी को देखा नहीं जाता। नजर रखी जाती है। मगर वे भी नजर आ सकते हैं जो अदृश्य कर दिए जाते हैं। तमाम मजलूम हुकूमत को नजर नहीं आते।

गौरतलब है कि ब्रिटेन के शिक्षा परिसर में अब औपनिवेशिक यूरो केन्द्रित वैश्विक दृष्टि को चुनौती दी जा रही है। उसे खारिज कर अन्य वैश्विक दृष्टि पर अध्ययन हो रहा है।

मैकॉले को गुजरे करीब दो सदी बीत गई। यदि उस विचार व्यवस्था को परास्त करना है, तो क्या हम गंभीरता के साथ तथाकथित उच्च वर्णीय ब्राह्मणवादी  शुद्ध वैश्विक दृष्टि को चुनौती देने के लिए अपने शिक्षा परिसरों को तैयार करेंगे, या फिर पुरोहिताई पर कोर्स कराएंगे, विमान आविष्कार पर रामचरितमानस में प्रमाण खोजेंगे, एक पूरे कालखंड को पाठ्यपुस्तक से हटा देंगे। ऐसा करने से क्या मैकॉले के भूत को वेताल बनाकर नहीं ढो रहे होंगे?


खैर, दिल्ली कॉलेज 1857 की क्रांति के बाद कुछ साल बंद कर दिया गया और पुनः 1927 में आरंभ हुआ। आज उसी का एक हिस्सा जाकिर हुसैन कॉलेज कहलाता है। मगर कॉलेज का परिसर दूसरा है।  एंग्लो अरेबिक स्कूल उसी पुरानी जगह पर अब भी चल रहा है। आधुनिक पाठ्यक्रम के साथ। पता नहीं कि कैसे यह स्थान अब तक टिका हुआ है। बुलडोजर चलाया नहीं गया।

इमारत की जालियों से भारत का मूलावशेषि तत्व दिखाई देता है। जहां पहले के लिखे को मिटाए बगैर नया भी साथ-साथ लिखा जा सकता है। रोशन खयाल तहजीब की नींव मजबूत की जा सकती है।

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