मोदी जी, देश का बंटवारा नेहरू जी के कारण नहीं, जिन्ना की जिद के कारण हुआ था...

विभाजन के उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन से कम-से-कम एक दशक पहले से जिन्ना अपने लक्ष्य पर काम कर रहे थे। जिन्ना की जीवनी लिखने वाले स्टेनली वोलपर्ट कहते हैं, जिन्ना किसी भी कीमत पर जीतना चाहते थे। कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच एकता की तमाम कोशिशें नाकाम रहीं और जिन्ना ने एक अलग मुल्क की मांग सामने रख दी।

फोटो : Getty Images
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अरुण शर्मा

अकसर इस तरह के भ्रामक दावे किए जाते हैं कि भारत के विभाजन को टाला जा सकता था अगर जवाहर लाल नेहरू और कांग्रेस पार्टी महात्मा गांधी की ओर से लॉर्ड माउंटबेटन को दिए उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेते कि पाकिस्तान की मांग छोड़ने के लिए जिन्ना को आजाद भारत की पहली सरकार बनाने का विकल्प दें। लेकिन इस प्रस्ताव को खारिज करने की मंशा पर सवाल उठाते हुए नरेंद्र मोदी ने 6 फरवरी, 2020 को संसद में कह डाला कि: ‘ प्रधानमंत्री बनने की इच्छा किसी की भी हो सकती है। और इस बात पर किसी को कोई समस्या भी नहीं होनी चाहिए। लेकिन चूंकि कोई (नेहरू) प्रधानमंत्री बनना चाहता था, इसीलिए भारत के नक्शे पर एक लकीर खींच दी गई और देश का विभाजन हो गया!’ ऐसा कहते हुए मोदी ने विभाजन के दोष से जिन्ना को मुक्त करते हुए नेहरू को दोषी करार दे दिया। यह दुष्टतापूर्ण तरीके से इतिहास को तोड़-मरोड़कर पेश करना है। तथ्य कुछ और ही हैं।

यह सच है कि महात्मा गांधी ने इस तरह का प्रस्ताव लॉर्ड माउंटबेटन को दिया था। वैसे ही, जैसे उन्होंने कुछ दूसरे वाइसराय को भी दिया था। लेकिन यह दावा करना कि इससे देश का विभाजन रुक सकता था, मुसलमानों के लिए अलग मुल्क बनाने की जिन्ना की जिद और उनकी शातिराना तोलमोल की ताकत को कम करके आंकना है। एक समय था जब महात्मा गांधी के गुरु गोपाल कृष्ण गोखले तक जिन्ना को हिंदू-मुस्लिम एकता का सर्वश्रेष्ठ राजदूत कहते थे। लेकिन उसी जिन्ना ने कांग्रेस से अलग होकर मुस्लिमों की नुमाइंदगी करने वाली मुस्लिम लीग की स्थापना की।

कांग्रेस के साथ सुलह नहीं करने की जिन्ना की जिद अपने आप में इतना जटिल विषय है कि उसकी एक व्याख्या नहीं हो सकती और उसे इस आलेख के दायरे में भी समेटा नहीं जा सकता है। फिर भी, इतना तय है कि जिन्ना अलग पाकिस्तान की मांग करने के मुकाम पर अचानक नहीं पहुंचे थे।

अगस्त, 1947 के विभाजन के उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन से कम-से-कम एक दशक पहले से जिन्ना अपने उस लक्ष्य पर काम कर रहे थे। उदाहरण के तौर पर, जिन्ना की जीवनी लिखने वाले स्टेनली वोलपर्ट कहते हैं, बैरिस्टर किसी भी कीमत पर जीतना चाहते थे। इस जाने-माने इतिहासकार ने गांधी, नेहरू और जिन्ना के पत्रों के आधार पर उन तथ्यों का उल्लेख किया है कि कैसे कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच एकता की तमाम कोशिशें नाकामयाब रहीं और जिसकी वजह से कायदे आजम ने एक अलग मुल्क की मांग सामने रख दी।

1937 में लखनऊ के शीतकालीन सत्र में मुस्लिम लीग ने एक ‘ऐसे भारत के लिए काम करने का बीड़ा उठाया जो आजाद लोकतांत्रिक देशों का परिसंघ हो और जिसमें मुसलमानों समेत दूसरे अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा होती हो।’


मार्च, 1938 में नेहरू ने जिन्ना को लिखाः ‘भारत के लोगों की एकता और बेहतरी के लिए तथा हमारे सार्वजनिक जीवन को सही तरीके से ढालने के लिए हम हर गलतफहमी को खत्म करने के हरसंभव प्रयास के लिए उत्सुक हैं।’ नेहरू ने जिन्ना से कहा, ‘मुझे बताएं कि वास्तव में विवाद के कौन-से मुद्दे हैं जिन पर विचार करने की जरूरत है।’ जिन्ना ने इसका जवाब ऐसे दिया- ‘लेकिन क्या आपको लगता है कि पत्राचार के जरिये इस मुद्दे को सुलझाने की तो बात ही छोड़ दीजिए, कायदे से विचार-विमर्श भी हो सकता है? ’ (स्टेनली वोलपर्ट, जिन्ना ऑफ पाकिस्तान, पेज 157)

जिन्ना की इस विषय पर लिखित वाद-विवाद में पड़ने की कोई दिलचस्पी नहीं थी। शायद उनके पास कोई आधार नहीं था। कांग्रेस के साथ किसी साझा उद्देश्यों पर सहमत हो जाना लीग के हितों के खिलाफ होता। वोलपर्ट कहते हैं, ‘ऐसा करना मुस्लिम लीग की संभावनाओं के लिए आत्मघाती होता। जिन्ना तोलमोल करके बंबई और अन्य प्रांतीय मंत्रिमंडलों में बहुत कुछ पा सकते थे लेकिन इस प्रक्रिया में वह निश्चित ही पाकिस्तान को खो देते।’ (जिन्नाऑफ पाकिस्तान, पेज 158)

जिन्ना इस बात पर अड़े हुए थे कि उनकी मुस्लिम लीग को पूरे मुस्लिम समुदाय की एकमात्र प्रतिनिधि के तौर पर स्वीकार किया जाए। उनके लिए कोई भी गैर-लीग मुसलमान वैसा ही था जैसे सांड के लिए लाल कपड़ा। गांधी जी ने जिन्ना से बार-बार कहा कि उन्हें कांग्रेस के मौलाना आजाद से बात करनी चाहिए लेकिन जिन्ना ने हर बार ऐसे प्रस्ताव को ठुकरा दिया। उनका कहना था कि ‘मुझे लगता है कि आपके नजरिये और सोच में कोई बदलाव नहीं आया है जब आप कहते हैं कि आपको मौलाना आजाद राह दिखाएंगे।’

जिन्ना ने गांधीजी से बातचीत के लिए कलकत्ता से बंबई वापस जाते समय वर्धा में ट्रेन छोड़ने से इनकार कर दिया था। ऐसे में गांधीजी खुद जिन्ना से मिलने अप्रैल, 1938 के अंत में बंबई के मालाबार हिल स्थित उनके आवास पर गए। लेकिन जिन्ना के साथ साढ़े तीन घंटे चली मुलाकात के बाद महात्मा गांधी वहां से हताश-निराश निकले। गांधी ने आत्मविश्वास खो दिया था और ऐसे में उन्होंने नेहरू को लिखा कि उस प्रस्ताव पर वह योग्यता के आधार पर विचार करें। नेहरू ने यह काम सुभाष चंद बोस को सौंप दिया जो तब तक कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में पदभार ग्रहण कर चुके थे। मई, 1938 में बोस जिन्ना के साथ बातचीत करने बंबई गए। लेकिन उनकी बातचीत से कुछ हासिल नहीं हो सका।

वह अक्टूबर, 1938 का वक्त था और जगह थी कराची। तब जिन्ना ने पहली बार अपने समर्थकों से “उनके राष्ट्रीय लक्ष्य” के बारे में बात की। दो महीने बाद दिसंबर, 1938 में पटना अधिवेशन में लीग ने संवैधानिक तरीका छोड़ते हुए मुसलमानों की शिकायतों को दूर करने के लिए “डायरेक्ट एक्शन” पर अमल का प्रस्ताव पास किया। जिन्ना ने इसे अतीत की तुलना में क्रांतिकारी प्रस्थान बताया। 4 सितंबर, 1939 को लॉर्ड लिनलिथगो के साथ अपनी बातचीत के दौरान जिन्ना ने वायसराय को बताया कि अब उनका मानना है कि भारत के लिए एकमात्र राजनीतिक समाधान “विभाजन में है।” (जिन्ना ऑफ पाकिस्तान, पेज 171)’


अंततः 22 मार्च, 1940 को जिन्ना ने लाहौर के प्रसिद्ध मिंटो (अब अल्लामा इकबाल) पार्क में लगभग एक लाख लोगों की सभा में गरजते हुए दो दिन पहले आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में गांधी के संबोधन का मजाक उड़ाते हुए उल्लेख किया। जिन्ना ने कहा कि 20 मार्च को गांधी ने कहा है: ‘मेरे लिए हिंदू, मुस्लिम, पारसी, हरिजन- सभी एक जैसे हैं। मैं तुच्छ नहीं हो सकता। मैं कायदे आजम जिन्ना की बात करते समय तुच्छ नहीं हो सकता। वह मेरे भाई हैं।’ फिर तल्ख अंदाज में जिन्ना कहते हैं, ‘लेकिन मुझे लगता है कि वह तुच्छ हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि मेरे भाई गांधी के पास तीन वोट हैं जबकि मेरे पास सिर्फ एक।’ फिर वह गांधी पर यह कहते हुए टिप्पणी करते हैं, ‘आप क्यों नहीं अपने लोगों का प्रतिनिधित्व करते हुए गर्व से एक हिंदू नेता के रूप में आते हैं और मुझे गर्व से मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते हुए मिलने देते हैं? कांग्रेस के बारे में मुझे बस इतना ही कहना है।’ (जिन्ना ऑफ पाकिस्तान, पेज- 181)

इस तरह खांचा एकदम तैयार कर लिया गया था। इस नजरिये से जिन्ना के भाषण में काफी कुछ था। वह आग्रहपूर्ण तरीके से कहते हैं कि कांग्रेस “आपके लोगों” यानी हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करती है और मुस्लिम लीग “मेरे लोगों”, यानी मुसलमानों का और वह इन दोनों को कभी मिलने नहीं देंगे। जिन्ना ने आगे कहा, ‘अगर ब्रिटिश सरकार वास्तव में इस उपमहाद्वीप के लोगों की शांति और खुशियां सुनिश्चित करने के प्रति गंभीर और ईमानदार है, तो हम सभी के सामने यही रास्ता है कि भारत का स्वायत्त राष्ट्रीय राज्यों में विभाजन कर दिया जाए।’ (जिन्ना ऑफ पाकिस्तान, पेज 182)

वोलपर्ट कहते हैं, ‘जिन्ना के लाहौर संबोधन ने एक स्वतंत्र भारत की किसी भी संभावना को सिरे से खत्म कर दिया था। जिन्ना को समझने वाले लोग इससे वाकिफ हैं कि जब एक बार उन्होंने किसी भी विषय में मन बना लिया तो वह पलटकर पहले की स्थिति पर नहीं आते- चाहे वह कितना भी अहम हो और कायदे आजम ने ही उसकी घोषणा अभी-अभी भी क्यों न की हो। बाकी दुनिया को यह बात समझने में कम -से-कम सात साल लग गए कि मार्चकी उस दोपहर में जिन्ना ने जो एक-एक शब्द बोले, वे सोच-समझकर कहे गए थे। उसमें पीछे हटने की कोई गुंजाइश नहीं थी। हिंदू-मुस्लिम एकता का वह राजदूत पूरी तरह पाकिस्तान के कायद-ए-आजम में तब्दील हो गया था।’ (जिन्ना ऑफ पाकिस्तान, पेज 182)

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