शासन, सरकार, शहर और काम देने वाली व्यवस्था पर नहीं रहा भरोसा, इसलिए मजदूर भाग रहे हैं अपने गांव-घर

प्रवासी मजदूरोँ ने अपनी मुश्किलोँ के लिए लाकडाउन और घंटी बजाओ के सरकारी नाटक को फेल कर दिया है। यह भागने की दूसरी वजह बताता है कि मौजूदा शासन को अपने समाज की वास्तविकता का अंदाजा ही न था और वह बार-बार मनमाने फैसले से अपने समाज को संकट मेँ डाल रहा है।

फोटोः सोशल मीडिया
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अरविंद मोहन

मजदूर बडे शहरोँ से क्योँ भाग रहे हैं? यह सवाल आज काफी लोगोँ को समझ नहीँ आ रहा है। तो इसका सीधा सा जबाब है कि उन्हेँ शासन, सरकार, शहर और काम देने वालोँ की मौजूदा व्यवस्था से ज्यादा भरोसा अपने गांव और समाज की व्यवस्था पर है। सारे लोकतंत्र, सारे वेलफेयर स्टेट और मोदी-योगी-नीतीश कुमार के अच्छे दिन, रामराज और सुशासन की यही सच्चाई है।

अब यह और बात है कि शहरी, औद्योगिक और मौजूदा राजनैतिक व्यवस्था और उसके चोंचलोँ ने इन मजदूरोँ के गांव और समाज की व्यवस्था भी चौपट कर दी है। उनका गांवोँ से पलायन भी इसीलिए हो रहा है कि वहां उनके लिए काम नहीँ बचा है, खेती अलाभकारी हो चुकी है और ग्रामीण शिल्प बेमानी। और मौजूदा प्रभावी व्यवस्था ने गांव, गरीबी, खेती को मानसिक और भावनात्मक रूप से इतना नीचे गिरा दिया है कि उनको भी अब भरोसा नहीँ रह गया है। कभी खेती किसानी से भी ढंग से गुजर होगी यह भरोसा नहीँ रहा और ‘उत्तम खेती, मध्यम बान, अधम चाकरी, भीख निदान’ की कहावत भी कभी हमारे समाज मेँ चलती थी यह कल्पना भी अब मुश्किल है।

और कोरोना काल मेँ यह प्रचार/दुष्प्रचार ऐसा हो गया है कि आज वही गांव अपने जवान बेटोँ को वापस लेने को भी तैयार नहीँ हैँ। कई जगहों पर गांव के लोगोँ द्वारा बाहर से लौटने वालोँ का प्रतिरोध शुरु हो गया है। जो नीतीश कुमार कल दिल्ली की गद्दी पर किसी बिहारी के बैठने की भविष्यवाणी गर्व से करते थे, वही आज मजदूरोँ के लौटने की खबर पर सबसे ज्यादा बौखलाए नजर आते हैँ।

जी हां, प्रवासी मजदूरोँ ने अपनी मुश्किलोँ के लिए लॉकडाउन और घंटी बजाओ के सरकारी नाटक को फेल कर दिया है। यह भागने की दूसरी वजह बताता है कि मौजूदा शासन को अपने समाज की वास्तविकता का अंदाजा ही न था और वह बार-बार मनमाने फैसले से अपने समाज को संकट मेँ डाल रहा है। जब कोरोना महामारी का डंक अपने शीर्ष पर हो और बढ़ता ही दिख रहा हो तब दिल्ली और लगभग हर महानगर मेँ, राजमार्गोँ और रेल पटरियोँ पर दिखने वाला यह दृश्य दुर्भाग्यपूर्ण है।

पर ऐसे माहौल मेँ अपनी जान ही नहीँ, बाल बच्चोँ और संगी साथियोँ की जान हाथ मेँ लिए, बिना किसी साधन और धन के हजार-हजार किलोमीटर दूर अपने ‘घर’ के लिए पैदल निकल पड़ना साहस नहीँ दुस्साहस का काम है। और ऐसा वे किसी षडयंत्र से कर रहे होँ या अचानक मोदी विरोधी लोग इतने ताकतवर हो गए हों कि लॉकडाउन फेल कराने मेँ जुट गए हों यह भी कहना शासक जमात की कुंठा ही बताती है। बिना सोचे फैसले करने के अभ्यस्त मोदी जी ने नोटबंदी और जीएसटी के बाद लॉकडाउन से अपनी अर्थव्यवस्था पर नया सर्जिकल स्ट्राइक किया है और यह सबसे कमजोर वर्ग की जान बचाने के लिए प्रतिक्रिया भर है।


चलने की दुश्वारी, सवारी न मिलने की दुश्वारी और मौसम की दुश्वारियां अपनी जगह हैं, हर कहीँ शासन और पुलिस ने उन्हेँ रोकने का हर हथकंडा अपनाया। डंडा मारने से लेकर मुर्गा बनाने तक का ड्रामा चला। और जब ‘जुल्मी’ थक गए और उनमेँ से कुछ का दिल पसीजने लगा (आखिर वे भी तो ऐसे ही लोगोँ के बाल-बच्चे हैं) तब किसी बच्चे के लिए दूध तो किसी के लिए खाना तो किसी को खाली लौटते वाहनों पर कुछ दूर ही सही बैठाना शुरु हुआ।

और फिर सरकारोँ ने चुपचाप कुछ बसों का इंतजाम किया और दूसरे राज्य की सीमा तक छोड़ने का काम शुरु हुआ तो लॉकडाउन फेल होने का स्यापा शुरु हो गया। असल मेँ मौजूदा शासन व्यवस्था जितनी क्रूर है, उसमेँ इस तरह के सहयोग की उम्मीद भी नहीं की जा सकती (प्रवासी मजदूर तो बिना किसी उम्मीद के निकले ही थे)।

पर मौजूदा व्यवस्था द्वारा प्रदत्त एकमात्र वोट की ताकत ने शायद उनकी रक्षा की क्योंकि नीतीश कुमार हों, योगी आदित्यनाथ होँ या अरविंद केजरीवाल जैसे लोग, उनको वोट की चिंता तो रहती ही है। वरना थाली-कटोरा बजाने भर से कोरोना भगाने का भ्रम रखने वाले हमारे पढ़े-लिखे लोग और बीजेपी-संघ के लोग तो उनको गोली मारने तक की बात सार्वजनिक रूप से करने लगे थे और केंद्र के मंत्री बड़ी बेशर्मी से रामायण देखते हुए सेल्फी ट्विट करने मेँ लगे ही हुए थे। यह बेशर्मी की पराकाष्ठा थी, लेकिन सोशल मीडिया पर हमारे मध्य वर्ग के एक हिस्से की प्रतिक्रिया इससे भी ज्यादा डरावनी थी।

यह व्यवस्था किसी मजदूर, उसके आश्रितों और दिहाड़ी पर गुजर करने वालों को तीन हफ्ते बैठाकर खिलाएगी और रहने की जगह के साथ बिजली पानी मुहैया कराएगी, इसकी कल्पना मुश्किल है। वोट वाला मामला न होता तो बीजेपी और संघ की प्रतिक्रिया भी पांच-पांच को रोटी खिलाने जैसी न होती। लेकिन मजदूर ऐसी हवाई घोषणाओं पर भरोसा नहीं करते। ऐसे मेँ यह जमात हजार डेढ़ हजार किमी दूर तक के अपने ‘घर’ की तरफ रवाना हो जाए तो हैरानी की बात नहीँ। और आपको यह चीज समझ न आती हो तो आपकी अक्ल का फेर है।

जी हां, अपुष्ट सा अनुमान है कि लॉकडाउन घोषित होने के बाद के एक हफ्ते मेँ तीन से चार करोड़ ऐसे लोग सडकोँ पर निकले. सडकों और रेल लाइन का क्या नजारा था या जिन बसोँ मेँ प्रावासियों को भेजा गया, उनका क्या दृश्य था यह तो कम ही दिखा, क्योंकि बस चलने की खबर दिखाने की मनाही हो गई थी। सोशल मीडिया पर अगर ऐसी खबरें चलीं तो उसकी प्रतिक्रिया देखने लायक थी। विमान से विदेश में फंसे लोगों को लाने का प्रचार करने वाली सरकार को इसमें क्यों शर्म आ रही थी, यह समझना आसान नहीं है।

इसके साथ ही यह तो पक्की् खबर है कि जनता कर्फ्यू के बाद और पहले से दक्षिण और पश्चिम भारत के अनेक ठिकानों से दर्जनोँ स्पेशल गाडियों से लाखों लोग अपने गांव भेजे गए और बिहार सरकार लॉकडाउन की अवधि में भी बसों का इंतजाम करके ऐसे लोगोँ को उनके घर भिजवाने मेँ लगी रही। और यह उल्लेख भी जरूरी है कि यह सब होली के ठीक बाद शुरु हुआ। हम जानते हैं कि होली, दिवाली और छठ के समय अधिकांश मजदूर अपने गांव लौटते हैं। सो इस बार उनमें से ज्यादातर अपने काम पर नहीं ही लौटे होंगे यह मानने मेँ हर्ज नहीं है। कल्पना कीजिए कि वे भी भागने वालों में होते तो क्या स्थिति रहती।


भागने वालों के हौसले, दुस्साहस और दम पर आप चाहे जितना हैरान परेशान हों, पर उनको मात्र अपने घर पहुंचने में जो कष्ट हुआ उसकी कल्पना मुश्किल है। इसी यात्रा मेँ मरने वालों की संख्या तब तक कोरोना से मरे लोगोँ की संख्या से ज्यादा हो चुकी थी। सड़क दुर्घटना मेँ मरने वालों को छोड़ भी दें तो थकान और दिल बैठने से मरने वाले भी कम न थे। बिना खाए-पिए कई सौ किमी की पदयात्रा, साइकिल यात्रा, ट्रक-टेम्पो यात्रा के साथ ही हर तरह की परेशानी के साथ गांव पहुंचने पर खदेड़े जाने या कैम्पों में रहने का दुख क्या होता है, यह समझा जा सकता है।

और यात्रा तथा मुश्किलोँ के बीच इन प्रवासियोँ की ‘कलाकारी’ के किस्से भी कम नहीं हैं। काफी सारे जवान लोगों ने अपने पास बचे पैसों से नई या पुरानी साइकिलें खरीद लीं और सैकड़ों किमी की यात्रा ‘सुखद’ बना ली। कई ने साइकिल या ठेला पर ही पूरे कुनबे की यात्रा करा दी। बिहार मेँ कई जगह दर्जन-दर्जन भर लोग मात्र 1500 से 2000 के डीजल में ‘जुगाड़’ से घर तक पहुंच गए। बाइक और इस तरह के साधनों से भागने वालोँ का हिसाब तो किसी ने लगाया ही नहीं। पर उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, राजस्थान और मध्य प्रदेश के मजदूर सबसे ज्यादा निकले, यह बात जगजाहिर हुई।

जिस तरह मजदूरोँ का निकलना मौजूदा शासन-व्यवस्था पर भरोसा कम होने और शासन द्वारा दिखाईे नासमझी का प्रमाण था, उसी तरह उनके इलाके हमारे आर्थिक विकास की बदहाली और पक्षधरता की तस्वीर भी पेश करते हैं। हिंदी पट्टी का दुख दर्द जाहिर तौर पर ज्यादा गहरा है और उस पर तत्काल ध्यान दिये जाने की जरूरत है। और सरकार को आंकड़ों से लाख परहेज हो पर प्रवासी मजदूरों की संख्या से लेकर हर तरह के विश्वसनीय आंकड़े आर्थिक योजना के लिए जरूरी हैं। प्रवासियोँ का पंजीयन आज एक बड़ी जरूरत है।

यह योजना बनाने और आर्थिक नीतियां तय करने के लिए तो जरूरी है ही, इससे मजदूरोँ का पलायन हमारी राजनीति के केन्द्र मेँ भी आएगा। एक बार जब संख्या जाहिर होगी तो इन मजदूरोँ से प्रेम के चलते ना भी हो तो वोट के लिए सभी दल और नेता उन पर ध्यान देंगे। उसी वोट की शक्ति ने आज उनको बचवा दिया है तो कल भी उबार सकती है।

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