अपने यहां तो जाने कितने जॉर्ज फ्लॉयड का दम रोज घुटता है, लेकिन प्रतिकार नहीं कर सकते!

भारत में जातिसूचक शब्द से अपमानित करना, जमीन से बेदखल, सार्वजनिक स्थानों, मंदिर, कुएं के उपयोग से रोकना, छुआछूत, नग्न घुमाना अपराध है। क्या यह केवल गैरकानूनी ही नहीं, अमानवीय तक नहीं है? लेकिन फ्लॉयड प्रतिकार नहीं कर सकते। करते हैं तो वे अराजक, देशद्रोही हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
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मीनाक्षी नटराजन

जॉर्ज फ्लॉयड के साथ हुए अन्याय ने पूरी दुनिया को स्तब्ध कर दिया है। वे कैसी परिस्थितियां होंगी जब कोई यह कहने पर मजबूर हो जाए कि वह सांस नहीं ले पा रहा है। परिस्थितियां घुटन भरी हो सकती हैं! उसके साथ-साथ शारीरिक घुटन भी शामिल थी।

‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ अभियान ने जोर पकड़ा। भारत में भी कई तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आईं। किसी ने ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ का बैनर थामा। किसी ने यह कहना शुरु किया कि जब दुनिया के सबसे विकसित अमेरिका में ही ऐसा हुआ तो फिर क्या किया जा सकता है? जैसे कि तथाकथित ताकतवर मुल्क में घटी नृशंस भेदभाव की घटना हमारे मुल्क की घटनाओं को लाजमी ठहराती है।

‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ के बहाने थोड़ा आत्मविश्लेषण करना क्या जरुरी नहीं? अपने देश में भी एक ब्यूटी प्रोडक्ट का नाम फेयर से शुरु होता है और जो अपने विज्ञापनों मे त्वचा को गोरा कर देने का प्रचार करता है और उसमें भी सदैव केवल महिलाओं के श्यामल से श्वेत हो जाने की तस्वीरें गर्व से पेश करता है, यानी पुरुष से अधिक स्त्री का वर्ण मायने रखता है। गोरेपन को नौकरी के लिए दिए जाने वाले साक्षात्कार में आत्मविश्वास का रंग करार कर दिया गया है, विवाह योग्य माना गया है। अपने यहां आज तक उन विज्ञापनो और सौंदर्य प्रसाधनों पर रोक की कोई पहल नहीं की गई है।

दिल्ली विश्वविद्यालय के परिसर में पूर्वोत्तर के छात्रों के प्रति नस्लीय हास्य को जिस तरह मौन या विनोदपूर्ण सहमति मिलती रही है, वह किसी से छुपी नहीं है। अफ्रीकी युवाओं, हमारे अपने देश के छत्तीसगढ़ आदि राज्यों के गोंड, बैगा, कोल जनजातियों के नौजवानों के प्रति व्यवहार भेद, भय या क्रूर हास्य से भरा होता है। दक्षिणी राज्यों के नागरिको को काला-कालू कहा जाना सामान्य रीत रही है। फिर, वेस्टइंडीज के क्रिकेट खिलाड़ियों को कालू कहना कौन-सा अपवाद है?

हमारा समाज तो वर्ण आधारित भेद का दंश आज भी सह रहा है। कितने ही जॉर्ज फ्लॉयड राजधानी दिल्ली तक के मैनहोल की सफाई करते सांस नहीं ले पाते। दुःखद यह है कि वे इसी एक कर्म को अपना मुस्तकबिल समझते हैं। कितने जॉर्ज फ्लॉयड प्रभुत्व संपन्न वर्ग के अन्याय के खिलाफ थाने में रिपोर्ट दर्ज कराने हिम्मत जुटाकर जाते हैं? यदि गए तो गैरदलित साक्ष्य जुटाने के नियम की आड़ में रिपोर्ट दर्ज नहीं की जाती। गैरदलित साक्ष्य किसी जॉर्ज फ्लॉयड के लिए भला कहां से आएगा? अधिकांश बार थाने के थानेदार प्रभुत्व संपन्न वर्ग के ही होते हैं। ऐसे में किसी जॉर्ज फ्लॉयड की क्या बिसात?

किसी जॉर्ज फ्लॉयड का दूल्हा बनकर घोड़ी पर सवार होकर बारात निकालना आज भी लाखों गांवों में वर्जित है। उनका डीजे बजाना वर्जित है। पटाखे चलाना वर्जित है। असंख्य गांवों में जॉर्ज फ्लॉयड की माता-बहन यदि मध्याह्न भोजन बनाने का काम करने लगे, तो अभिजात्य वर्ग की आपत्ति उनसे उनका काम तत्काल छीन लेती है। जॉर्ज फ्लॉयड खेत में काम करता है। अनाज तैयार करता है। प्रभुत्व वर्ग की रसोई में वही अनाज पकता है। लेकिन वह वहां प्रवेश नहीं कर सकता। वह स्कूल में अंतिम पंक्ति में बैठता है। उससे साफ-सफाई कराई जा सकती है, उसके हमउम्र ताकतवर वर्ग के बच्चों से नहीं।

हालांकि, विगत कुछ वर्षों में तो सरकारी शालाओं में मजबूर जॉर्ज फ्लॉयड और उसकी बहनें ही पढ़ने के लिए रह गई हैं। बमुश्किल ही कोई उस- जैसा किसी पब्लिक स्कूल में जा सकता है। हमारे अपने मुल्क का जॉर्ज फ्लॉयड रोहित वेमूला का नोट क्या कह गया थाः “मेरी जन्म की परिस्थितियां, मेरी मृत्यु का कारण बनीं।” क्या यह दम घुट रहा है जितना ही पीड़ादायक नहीं?

कोरोना कालखंड में हजारों जॉर्ज फ्लॉयड पैदल चले। जॉर्ज फ्लॉयड रेल से कटे। जॉर्ज फ्लॉयड भूख से मरे, भेद से मरे। दूसरे महायुद्ध के दौरान बर्मा से काफी प्रवासी भारतीय जंगल के कठिन रास्तों से भूखे-प्यासे जंगली जीवों के खतरे का सामना करते हुए पैदल लौटे थे। अंग्रेज हुक्मरानों ने उनकी कोई सुध नहीं ली थी, जबकि वे उनके साम्राज्य की प्रजा थे। आज भी साधन संपन्न ‘वंदे भारत’ के तहत लाए गए। जॉर्ज फ्लॉयड का भारत पैदल चलता रहा।

यहां जॉर्ज फ्लॉयड मिल में आठ घंटे से अधिक काम करने के लिए ही जन्मा है, मनरेगा, खाद्य सुरक्षा ने उसे आलसी बनाया है! आरक्षण ने उस नाकाबिल को विश्वविद्यालय के द्वार दिखाए हैं, अतः यह सब उसके मौलिक हक नहीं होने चाहिए। तो क्या हुआ अगर जॉर्ज फ्लॉयड के समाज की 74 प्रतिशत आबादी गांवों मे प्रति परिवार औसत 0.3 हेक्टेयर से कम भूमि की मिल्कियत रखती है? तो क्या हुआ अगर 2011 की जनगणना के मुताबिक जॉर्ज फ्लॉयड के समाज के 2,06,16,913 परिवार मात्र एक कमरे में रहते हैं? तो क्या हुआ यदि जॉर्ज फ्लॉयड के समाज के पचास फीसदी लोग आज भी लकड़ी से चुल्हा जलाते हैं?

जॉर्ज फ्लॉयड के समाज को अत्याचार उन्मूलन कानून का कवच दिया गया था। उसे हटाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाया जा रहा है। कानून में उत्पीड़न की सूची दी गई है। सूची के अनुसार, मानव/पशु मल- जैसे अखाद्य और जहरीली वस्तुएं जबरन किसी दलित/आदिवासी को खिलाना, उनकी मूंछ काटना, बंधुआ मजदूर बनाना, महिला उत्पीड़न, शोषण करना- जैसे, नग्न करके घुमाना, यौन अत्याचार आदि, जातिसूचक शब्दों से अपमानित करना, जमीन से बेदखल करना, सार्वजनिक स्थानों, मंदिर, कुएं के इस्तेमाल से रोकना, छुआछूत करना अपराध है।

क्या यह अपने आप में केवल गैरकानूनी ही नहीं, अमानवीय तक नहीं है? क्या इस बात का क्षोभ नहीं होना चाहिए कि इसके लिए कानून बनाने की नौबत आई? लेकिन जॉर्ज फ्लॉयड प्रतिकार नहीं कर सकते। करते हैं तो वे अराजक, देशद्रोही हैं।

सालों पहले मेरे परिवार में किसी सदस्य ने यूरोपीय से विवाह किया था। परिवार के सबसे समझदार, ईमानदार वृद्ध ने कहा कि यदि यह विवाह किसी अफ्रीकी से हुआ होता तो अपनाना ज्यादा कठिन होता। अपने मन में बैठे भेद को पहचानना-स्वीकारना बड़ी बात थी। एक अनंत सत्यान्वेषी ने जीवन भर अपनी खामियों को पहचानने और ठीक करने में बिताया। वह इसलिए महात्मा कहलाए।

सत्यान्वेषियों का न तो कोई वाद हो सकता है, न ही उनकी प्रतिमाएं बन सकती हैं। सत्य की अनंत खोज प्रतिमाओं में कैद नहीं होती। आज वह निःसन्देह जॉर्ज फ्लॉयड के व्याज से अपना अवलोकन करते। जॉर्ज फ्लॉयड के अस्तित्व की लड़ाई में अपने आप का विरोध भी करना पड़ता तो निश्चित करते।

जॉर्ज फ्लॉयड प्रसंग के जरिये हम भी ईमानदार अन्वेषण करें। हृदय के भेदों को ध्वस्त करें।

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