भूमि का टुकड़ा नहीं, ‘राष्ट्र’ विविधताओं का साझा मंच है, यह बात ही नहीं समझ रही आज की सत्ता

आधुनिक काल में ‘राष्ट्र-राज्य’ की अवधारणा का विकास हुआ। यूं तो ‘राष्ट्र’ को परिभाषित करने का सब का अपना-अपना दृष्टिकोण है। कुछ के लिए वह मात्र एक भूगोल है - भूमि का टुकड़ा। कुछ और लोग उसे बहुसंख्यक चेतना के रूप में समझते हैं।

प्रतीकात्मक तस्वीर
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मीनाक्षी नटराजन

आधुनिक काल में ‘राष्ट्र-राज्य’ की अवधारणा का विकास हुआ। यूं तो ‘राष्ट्र’ को परिभाषित करने का सब का अपना-अपना दृष्टिकोण है। कुछ के लिए वह मात्र एक भूगोल है - भूमि का टुकड़ा। कुछ और लोग उसे बहुसंख्यक चेतना के रूप में समझते हैं। जाहिर है कि ‘राष्ट्रवाद’ भी इन्हीं सब विभिन्न दृष्टिकोण को आधार बनाकर प्रवाहित होता है। औपनिवेशिक हुकूमत से आजादी के लिए संघर्ष के दिनों में गोखले ने ‘राष्ट्रवाद’ को ‘सामूहिक चेतना’ के रूप में परिभाषित किया।

वास्तव में राष्ट्र क्या है? राष्ट्र मात्र भूगोल तो नहीं? राष्ट्र मात्र बहुसंख्याकी लोकप्रिय भावना तो नहीं? सही मायने में राष्ट्र का मतलब है- वहां के लोग। हर एक व्यक्ति। हर एक की आकांक्षा, उसके स्वप्न, उसकी चुनौतियां, उसकी मान्यताएं। ‘राष्ट्र’ विविधताओं का साझा मंच है। हर एक के संघर्ष की सामूहिक दास्तान, उसका उत्साह और उसके उत्सव, उसके अधिकारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति, उसकी व्यवस्था से असहमति और विरोध की निर्भीक प्रस्तुति का संरक्षित स्थान।

‘राष्ट्र’ और ‘राज्य’ को एक दूसरे का पूरक होना चाहिए। ‘राष्ट्र’ यानि लोग और ‘राज्य’ यानि वह यंत्रणा जो कि ‘राष्ट्र’ माने लोगों के हितार्थ गठित की जाती है। ‘राज्य’ एक यंत्र है। राज्य जितना न्यून होगा, ‘राष्ट्र’ माने ‘लोग’ उतने ही सशक्त होंगे। उनका सहकार, सरोकार, सहभाग उतना ही सशक्त होगा। लोकतांत्रिक मुल्क की कसौटी यही है कि ‘राज्य’ कितना न्यून है? राज्य जब तक खुद को बाहुबल, धनबल, प्रभावबल से ‘राष्ट्र’ पर निरूपित करता रहेगा, तब तक ‘राष्ट्र’ का आकार लेना संभव ही नहीं। ‘राष्ट्र’ का सशक्तिकरण अराजकता का पर्याय नहीं। केवल यंत्रणा के बल को कम करने का द्योतक है। ‘राज्य’ का कर्तव्य है कि वो ‘राष्ट्र’ की आजाद निडर अभिव्यक्ति का जरिया बने। हर एक की अभिव्यक्ति को अवसर प्रदान करे।

औपनिवेशिक हुकूमत के दिनों में जब सीमित मतदाताओं के जरिये प्रांतीय सरकारें चुनी गईं, तब गांधीजी ने उन सरकारों के समक्ष एक ही आदर्शका प्रस्ताव रखा। सरकारें पुलिस महकमे के प्रभाव, दबाव को कितना कम कर सकती हैं। यही उनकी कार्यक्षमता, लोक समर्पण का एकमात्र मानक होगा।


मगर पिछले दिनों ‘राष्ट्र’ की कीमत पर ‘राज्य’ को बलशाली किया गया है। ऐसा लगता है कि ‘राज्य’ यंत्रणा, ‘राष्ट्र’ यानि लोगों के लिए न होकर के, ठीक इसके विपरीत है। ‘राज्य’ ताकतवर होता जा रहा है। ‘राष्ट्र’ हाशिये पर जा रहा है। सत्ताहावी है। अधिकार सत्ता की अनुकंपा बनकर रह गया है। सशक्तिकरण सांत्वना या सराहना बन गई है। असहमति विरोध मानी जाती है। विरोध विद्रोह माना जाता है। व्यवस्था के प्रति आक्रोश राष्ट्र द्रोह हो गया है। जबकि राज्य की यह जिम्मेदारी है कि वह नागरिक को अपनी असहमति, विरोध दर्ज करने का संवैधानिक मंच और मौका प्रदान करे। कम-से-कम आजादी के लिए लड़े नेतृत्वकर्ताओं की तो यही सोच थी।

इसका नतीजा यह हुआ है कि निरंतर ‘राज्य’ ताकतवर के हाथों की कठपुतली बनकर रह गया है। ‘राष्ट्र’ को फैसलों में शामिल करने की गरज महसूस नहीं करता। रस्म अदायगी भी नहीं करता। राष्ट्र पर निर्णय थोपे जाते हैं। नोटबंदी, जीएसटी, चार घंटे की सूचना पर ‘राष्ट्र’ को पैदल चलने के लिए बाध्य करता हुआ ‘लॉकडाउन’ इसी का प्रमाण है। ‘श्रम सुधार’ ताकतवर को सुविधा देने का नाम है। कानून व्यवस्था को बनाए रखने की जिद न्याय का गला घोंटती है। चाहे कोई मानव कवच बना दिया जाए, चाहे कोई ‘एनकाउंटर’ के शौर्य की भेंटचढ़ जाए। चाहे कोई पुलिस लॉकअप में दम तोड़ दे, चाहे भीड़ के पथराव का शिकार हो जाए, चाहे गर्व से विज्ञापन में बखाना जाए कि ‘पुलिस कितनी सख्त है’ या लापरवाही से कहा जाए कि ‘लोग तो समझते ही नहीं हैं’ ‘ये तो डंडे से ही मानेंगे’। यह सब ‘राष्ट्र’ और ‘राज्य’ की एक बानगी प्रस्तुत करते हैं। ‘राज्य’ की दबंगता पर इतराना स्वभाव बन गया है। उससे सामूहिक चैतन्य को जैसे लकवा मार गया है। न्यायपालिका, कार्यपालिका उसकी भेंट चढ़ती जा रही है। उसका यशोगान करने में चौथे स्तंभ के बड़े वर्ग का गला फटने लगा है। ऐसे में, किसी को फुर्सतही नहीं यह देखने की कि ‘राज्य’ की दबंगई के कैसे-कैसे नतीजे सामने आ रहे हैं। प्रकृति के दोहन को ‘ईज ऑफ बिजनेस’ के नाम पर छूट दी जाती है, भूमि अधिग्रहण में ग्राम सभा की ‘सहमति’ मात्र ‘सलाह’ बनकर रह जाती है, प्रतिमाओं की स्थापना और पर्यटन विकास के आगे आदिवासी समाज की बेदखली मायने नहीं रखती, वनाधिकार कानून वन विभाग के अधीन हो जाता है।

जब सब ओर राज्य को पोषित ही किया जाना है, तब ‘राष्ट्र’ की चेतना को जगाना चींटियों की बांबी में पत्थर फेंकने जैसा है। राज्य तो चाहेगा ही कि राष्ट्र को साझेदार बनाने के प्रयास की तो चर्चा भी न की जाए।

हाल ही में केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री ने एक सौ तीस करोड़ की आबादी वाले देश के डेढ़ हजार लोगों से राय लेकर दसवीं, बारहवीं कक्षा के सीबीएसई पाठ्यक्रम के राजनीति शास्त्र विषय से पंथ निरपेक्षता, संघवाद, स्थानीय स्वराज, विज्ञान में मानव समाज की उत्क्रांति के विषय को निकाल दिया है। सच भी है कि जब आए दिन समावेश को स्खलित किया ही जाना है, तब वह पढ़ाया भी क्यूं जाए? पंचायतों के चुनाव अनेक राज्य में समय पर नहीं होते, जन प्रतिनिधि होने से महरूम करते हुए कई योग्यताएं शासन ने तय की हैं। आखिर जनमानस के विवेक पर भरोसा जो नहीं किया जा सकता। ‘राष्ट्र’ कैसे प्रतिनिधि चुनें, यह भी अब ‘राज्य’ तय करेगा। क्यों न करे? ‘राज्य’ को ही तय करना चाहिए कि ‘राष्ट्र’ क्या खाए, क्या न खाए, क्या पहने, क्या देखे, किससे कैसी बात करे, क्या इस्तेमाल करे और किसे चुने?


स्थानीय स्वराज के अधिकार तो वैसे ही कागजी रह गए। चुनाव कर्मकांड हो गया। उसकी शिक्षा देकर अगली पीढ़ी यानि भावी राष्ट्र को क्यूं बिगाड़ा जाए? वे अराजक हो जाएंगे। ‘राज्य’ की जिम्मेदारी है कि ‘राष्ट्र’ उसके अधीन रहे। अधीनता को सामान्य मानने के लिए जरूरी शिक्षा ही उपयोगी रहेगी। पंथ निरपेक्षता माने समावेश बाधक है। स्थानीय स्वराज अराजक है। निर्णय तो केवल एक दफ्तर से होना चाहिए। यही पढ़ाया भी जाए, तो राज्य का स्वास्थ्य दुरुस्त रहेगा। बस, इसमें केवल एक पेंच है। ‘राष्ट्र’ अब भी संज्ञा शून्य नहीं हुआ है। राज्य पढ़ाए न पढ़ाए। राष्ट्र के भीतर से कोई गौतम, नानक, कबीर, तिरूवल्लुवर, बुलेशाह, मीरा, टैगोर, विवेकानंद, आंबेडकर, विनोबा, बिरसा मुण्डा और गांधी पढ़ना-पढ़ाना जानते हैं। उनकी चुनौतियों से बचना राज्य के लिए आसान नहीं होगा। वे अधीन नहीं किए जा सकेंगे। उन्हें राज्य से डर नहीं लगता।

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