वक्त-बेवक्त: सबरीमाला पर सिर्फ केरल ही नहीं, पूरे भारत को विचार करने की जरूरत

गांधी के बाद हिंदू धर्म के भीतर आलोचनात्मक विचार बंद हो गया। कोई भी ऐसी धार्मिक संस्था, या धार्मिक व्यक्तित्व नहीं दीखता जिसने गांधी के छूटे काम को आगे बढ़ाया हो। गांधी को धार्मिक कहा जाता है, लेकिन वे हिंदू धर्म के उतने ही बड़े और निर्भीक आलोचक थे।

फोटो: सोशल मीडिया
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अपूर्वानंद

सबरीमाला के अयप्पा के दर्शन प्रत्येक वर्ष की स्त्री को उपलब्ध होंगे, उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय के बाद केरल में जो बेचैनी दिखाई दे रही है और जो हिंसा भी, उस पर सिर्फ़ केरल के नहीं, सारे भारत के हिंदुओं को विचार करने की ज़रूरत है।

उच्चतम न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध जो हिंसा आयोजित की जा रही है, उसके ख़िलाफ़ उदार हिंदुओं की चुप्पी ख़ुद हिंदुओं के अपने बारे में जो ख़्याल हैं, उन पर उन्हें पुनर्विचार करने के लिए बाध्य करती है। हिंदू आम तौर पर ख़ुद को मर्यादावादी लेकिन प्रगतिशील और उदार मानते हैं। उनकी समझ है कि इस्लाम और ईसाइयत के मुक़ाबले हिंदू धर्म अधिक ख़ुला हुआ है क्योंकि वह किसी एक धार्मिक ग्रंथ से उस तरह नहीं बंधा है जैसे इस्लाम क़ुरान से और ईसाइयत बाइबिल से। हिंदू धर्म स्वभावत: विविधतावादी है। उसमें शैव, वैष्णव हैं, मूर्तिपूजक हैं और निराकार ब्रह्म की उपासना करने वाले भी। मांसाहारी हैं और शाकाहारी भी। लेकिन साथ ही यह बेचैनी भी दिखलाई पड़ती है कि गीता को सबसे पवित्र ग्रंथ की मान्यता मिले और वह भी उसे राज्य के द्वारा मिले!

प्राचीन ग्रंथों से प्रमाण खोज कर लाए जाते हैं जिनसे साबित हो कि हिंदुओं में स्त्रियों को हर प्रकार की स्वतंत्रता थी। लेकिन इसका उत्तर नहीं दिया जाता कि “कट्टर” धर्म वालों के “हमले” के कारण क्यों पर्दा प्रथा आनी चाहिए थी! क्यों सती अभी भी पूज्य है? क्यों राजा राममोहन राय या ईश्वर चंद्र विद्यासागर को इतना विरोध झेलना पड़ा था? क्यों पंडिता रमाबाई पर हिंदू धर्म के आधुनिक पैरोकार तिलक और स्वामी विवेकानंद ने हमला किया, उनका साथ देने की जगह?

एक विचार यह भी है कि जाति प्रथा वस्तुतः एक विचलन है जो इस्लाम और अंग्रेज़ों के आगमन का नतीजा है। लेकिन इसकी कोई व्याख्या नहीं कि इस बात को समझ लेने के बाद भी क्यों जातिगत विभाजन बना हुआ है और जातीय श्रेष्ठता की भावना भी। और अगर इसे ख़त्म करने का कोई प्रयास हो तो उसके ख़िलाफ़ हिंसा क्यों होती है?

इन सबका तलब यह है कि हिंदू धर्म, जैसा हम उसे जानते हैं किसी अन्य धर्म की तुलना में कम या अधिक प्रगतिशील नहीं है और ख़ुद ब ख़ुद तो क़तई नहीं। अगर उसमें समानता के मूल्य का प्रवेश हुआ है तो उसमें ख़ासा पसीना और ख़ून बहा है।

गांधी का क़त्ल भी हिंदू धर्म को अधिक उदार और समावेशी बनाने के उनके आग्रह के कारण हुआ। इसलिए कि उन्होंने अस्पृश्यता और जातिगत ऊंच-नीच के विचार पर आधारित भेदभाव का विरोध किया।

गांधी के बाद हिंदू धर्म के भीतर आलोचनात्मक विचार बंद हो गया। हिंदू धार्मिक मान्यताओं के आधार पर जो सामाजिक आचार व्यवहार था, उसमें “सुधार” का काम राज्य के सुपुर्द कर दिया गया। कोई भी ऐसी धार्मिक संस्था, या धार्मिक व्यक्तित्व नहीं दीखता जिसने गांधी के छूटे काम को आगे बढ़ाया हो। गांधी को धार्मिक कहा जाता है। यह सही है। लेकिन वे हिंदू धर्म के उतने ही बड़े और निर्भीक आलोचक थे। उसकी क़ीमत उन्हें अपनी जान से चुकानी पड़ी।

सबरीमाला के मामले में अगर शोर है तो यह कि स्त्रियों को किसी भी तरह अयप्पा तक जाने नहीं देंगे। अगर यह कहा जाए कि यही प्रतिनिधि हिंदू स्वर है तो क्या ग़लत होगा?

उदार हिंदू स्वर कहां है? क्या वह डर गया है या है ही नहीं? हिंदुओं में जो अब तक मुसलमानों पर यह आरोप लगाते रहे हैं कि उनमें उदार विचार की कमी है, वे अब स्वयं अपने बारे में क्या कहना चाहेंगे?

जो इस प्रसंग में स्त्रियों की तरफ़ से बोल रहे हैं, उन्हें तिरस्कारपूर्वक “धर्मनिरपेक्ष” या स्त्रीवादी कहा जाता है। उन्हें हिंदुओं का प्रतिनिधि कहना मुनासिब नहीं। फिर हिंदू उदार कैसे हैं और हैं तो चुप क्यों हैं? क्या उदार हिंदू साहसी नहीं ? क्या वे बहुमत में हैं लेकिन कायर हैं?

यह भी कहा जाता रहा है कि प्रत्येक परंपरा की मर्यादा होती है जिसका उल्लंघन नहीं होना चाहिए? फिर यह मर्यादा सिर्फ़ हिंदुओं की होगी? यह तर्क दिया जाता रहा है कि अयप्पा का दर्शन करने औरतें उमड़ी नहीं, इसलिए यह उनकी इच्छा भी नहीं है। लेकिन अगर एक स्त्री की इच्छा भी हो तो?

हिंदुओं की तरफ़ से सिर्फ़ मोहन भागवत और अमित शाह बोल रहे हैं। वाक़ई हिंदुओं ने मोहन भागवत और अमित शाह को अपना प्रवक्ता बना दिया है? क्या उसके बाद भी वे सभ्यता का दावा कर सकेंगे?

या हम यह मान लें कि सचमुच हिंदुओं पर एक प्रकार की प्रतिगामी प्रवृत्ति हावी हो गई है? या यह कि हिंदू अपने धर्म और धार्मिक आचार को लेकर लापरवाह हैं। वे हिंदू के तौर पर जो करते हैं, उस पर कभी विचार भी नहीं करते। अपने धार्मिक आचरण का तर्क खोजने की ज़रूरत महसूस नहीं करते। तो क्या हिंदू होने का अर्थ तर्क से परे होना या अबौद्धिक होना है? जो यह कहते हैं कि भारतीय यानी हिंदू, तर्कशील अथवा तर्कवादी होता है, वे आज के हिंदुओं की इस बौद्धिक लापरवाही के बारे में क्या कहेंगे? जो यह कहते हैं कि शास्त्रार्थ हिंदुओं की परंपरा है वे आज सबरीमाला प्रसंग में किसी भी शास्त्रार्थ के अभाव के बारे में क्या कहेंगे?

हिंदू धर्म के सामने दूसरे धर्मों के मुक़ाबले अधिक बड़ी चुनौती है। ईसाई परंपरा में अभी भी आलोचना की संभावना जीवित है। उसकी अनेक व्याख्याएं अभी भी की जा रही हैं। यही बात इस्लाम के बारे में कही जा सकती हैं। सिर्फ़ अरब देशों या इस्लामी देशों में नहीं, यूरोप, अमरीका और कनाडा में उसके भीतर दिलचस्प बहसें चल रही हैं। लेकिन हिंदू धर्म ने ख़ुद को बंद कर लिया है। वह इस ग्रंथि का शिकार है कि उसमें सारा विचार हो चुका है। इसीलिए अब उसमें बौद्धिक तेज़ नहीं है। उसकी श्रेष्ठता बाहुबल से स्थापित की जा रही है। क्या यह हिंदू धर्म के स्वर्ण काल की वापसी या उसका आगमन है?

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Published: 02 Nov 2018, 7:59 AM