मुस्लिम ही नहीं, हिंदू राजाओं ने भी तोड़े मंदिर, ‘ऐतिहासिक गलतियों’ को सुधारने के खतरे हैं बड़े

क्या हिंदुओं को जगाने वाले देश को सही दिशा में ले जा रहे हैं? इनका एक ही जवाब है- बिल्कुल नहीं। यह सिर्फ इसलिए नहीं कि वे धार्मिक सद्भाव के सदियों पुराने किले की दीवारों को लगातार खोखला कर रहे हैं, बल्कि इसलिए भी कि वे देश के सोच को तार्किक शक्ति और इतिहास बोध से अलग करने का प्रयास कर रहे हैं।

फोटो: सोशल मीडिया
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अरुण सिन्हा

हिंदुओं को ‘जगाने’ में जुटी ताकतों की वजह से ‘ऐतिहासिक गलतियों’ को सुधारना हमेशा सुर्खियों में रहता है। आज हमारे सामने ज्ञानवापी मस्जिद का मुद्दा है, कल कोई और मस्जिद होगी। इसकी बड़ी साफ वजह है। जैसा हमें बताया जा रहा है, मध्यकालीन भारत में मुस्लिम शासकों ने तमाम मंदिर तोड़ डाले और इससे हिंदुओं में इतनी बेचैनी है कि जब तक ऐसे सारे मंदिरों को फिर से ले नहीं लेते, उन्हें शांति नहीं मिलने वाली।

क्या हम सही रास्ते पर हैं? क्या हिंदुओं को जगाने वाले देश को सही दिशा में ले जा रहे हैं? इनका एक ही जवाब है- बिल्कुल नहीं। यह सिर्फ इसलिए नहीं कि वे धार्मिक सद्भाव के सदियों पुराने किले की दीवारों को लगातार खोखला कर रहे हैं, बल्कि इसलिए भी कि वे देश के सोच को तार्किक शक्ति और इतिहास बोध से अलग करने का प्रयास कर रहे हैं।

गौर करें, वे किस तरह ‘ऐतिहासक गलतियों’ की व्याख्या करते हैं। वे कहते हैं कि ये ‘गलतियां’ मध्यकाल के मुस्लिम शासकों ने कीं। इस बात से इनकार नहीं कि मुस्लिम शासकों ने मंदिर तोड़े। लेकिन क्या भारत के इतिहास में सिर्फ वही थे जिन्होंने हिंदू मंदिरों को तोड़ा? भारत में इस्लाम के आने के पहले क्या मंदिर नहीं तोड़े गए?

प्राचीन और प्रारंभिक मध्ययुगीन काल के इतिहासकारों, संतों, धार्मिक इतिहासकारों और विदेशी यात्रियों ने जो कुछ लिखा है, उनसे ऐसे तमाम वाकयों का जिक्र मिलता है जब पूर्व-मुस्लिम भारत में हिंदू राजाओं ने बौद्ध और जैन मंदिरों और मठों को ध्वस्त किया। इस बात की तस्दीक भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान के कई पुरातात्विक स्थल करते हैं जहां हिंदू मंदिरों के नीचे बौद्ध संरचनाओं के अवशेष मिले हैं।


बौद्ध और जैन धर्म को हिंदू धर्म के ब्राह्मण विधर्मी मानते थे और वे इन्हें नीच लोगों का धर्म बताते हुए इनकी निंदा करते थे। मौर्य सम्राट अशोक के दौरान बौद्ध दूर-दूर तक फैला और इस कारण बौद्धों के प्रति ब्राह्मणवादी ताकतों में शत्रुता का भाव गहराया और यही भाव बौद्धों के व्यापक उत्पीड़न और उनके मंदिरों और मठों को तोड़ने और अपवित्र करने में अभिव्यक्त हुआ और यह सब मौर्य काल के बाद भी सदियों तक चलता रहा।

कहा जाता है कि मौर्यों के बाद सत्ता संभालने वाले शुंग वंश के राजा पुष्यमित्र ने कई बौद्ध मठों को नष्ट किया और उसके समय में बड़ी संख्या में बौद्ध भिक्षुओं की हत्या हुई। राजतरंगिणी के अनुसार, कश्मीर पर शासन करने वाले अशोक के वंश के एक शैव शासक ने वहां बौद्ध मठों को नष्ट कर दिया था। 7वीं शताब्दी में भारत आए चीनी यात्री ह्वेन सांग ने अपने यात्रा वृतांत में इस बात का उल्लेख किया है कि गया के बोधि वृक्ष, जिसके नीचे बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था, को शशांक ने कटवा दिया था।

जाने-माने समाजशास्त्री गेल ओमवेट ने अपनी पुस्तक ‘बुद्धिज्म इन इंडिया ’ में लिखा है, ‘हमारे सामने अजीब स्थिति है जहां सहिष्णुता का दावा करने वाला हिंदुत्व बौद्ध धर्म को जगह देने को तैयार नहीं! ऐसा लगता है कि बौद्ध और ब्राह्मणवादी शिक्षा में ऐसा अंतर्निहित अंतर्विरोध है जिसके कारण दोनों ने एक-दूसरे को निकाल बाहर किया।’ प्रख्यात इतिहासकार डीएन झा के अनुसार, सारनाथ में, जहां बुद्ध ने अपना पहला उपदेश दिया था, बौद्ध अवशेषों के ऊपर हिंदू संरचनाओं का निर्माण किया गया और इसमें बौद्ध संरचना की सामग्री का ही उपयोग किया गया। सारनाथ वाराणसी से मुश्किल से पंद्रह किलोमीटर दूर है। ज्ञानवापी मस्जिद में ‘शिवलिंग मिलने’ के साथ मस्जिद पर दावा करने वाले हिंदू पुनरुत्थानवादियों को कैसा लगेगा अगर बौद्ध सारनाथ में हिंदू संरचनाओं को नष्ट करने और अपने पवित्र स्थल को उसकी मूल वास्तुकला में बहाल करने की मांग करना शुरू कर दें?

डीएन झा के मुताबिक, यह दिखाने को सबूत हैं कि मथुरा में भूतेश्वर और गोकर्णेश्वर मंदिर बौद्ध स्थलों पर बनाए गए थे। क्या मथुरा में शाही ईदगाह मस्जिद स्थल को लेकर विवाद खड़ा करने वाले हिंदू तब भी बौद्धों का साथ देंगे जब वे मांग करना शुरू कर दें कि इन दो मंदिरों के नीचे स्थित बौद्ध मंदिर के साक्ष्य की जांच के लिए इनकी नींव खोदी जाए? साफ है कि हिंदू पुनरुत्थानवादी पूर्वाग्रह और पक्षपात के साथ एक छोटे से कालखंड की ही 'ऐतिहासिक गलतियों' की बात कर रहे हैं।

मेरा ऐसा कहने का कतई यह मतलब नहीं है कि हम ‘ऐतिहासक गलतियों’ का हिसाब-किताब करने के दायरे को बढ़ाते हुए इसमें मुसलमानों के आने से पहले के कालखंड को भी शामिल कर दें। मैं केवल यह बताना चाह रहा हूं कि इतिहास एक मधुमक्खी का छत्ता है। यदि आप शहद के लिए उसमें हाथ डालेंगे, तो मधुमक्खियां आपको डंक मारेंगी। मुझे लगता है कि इतिहास में हुए मंदिर विध्वंस पर सभी विवाद खत्म होने चाहिए।

आज हम भारतीय जैसे समय में जी रहे हैं, उससे प्राचीन और मध्यकाल का समय एकदम अलग था। तब युद्ध होते ही रहते थे और इसमें एक पक्ष की जीत भी होती थी। तब तमाम राजा ऐसे थे जो जीते हुए इलाके में अपने धर्म को नहीं थोपते थे लेकिन बहुत ऐसे भी थे जो जीते हुए इलाकों पर अपना धर्म थोप देते थे। ऐसे राजाओं ने जीते हुए इलाकों में दूसरे धर्मों के पूजा-स्थलों को तोड़ना भी शुरू कर दिया। इसी क्रम में हिंदू राजाओं ने बौद्ध मंदिरों को नष्ट कर दिया और बाद में मुस्लिम राजाओं ने हिंदू मंदिरों को।

दूसरों के पूजा स्थलों को तोड़ने के इस अभियान के मूल में धार्मिक से ज्यादा राजनीतिक भावना होती थी और एक राजा अपनी जीत को और अधिक सुरक्षित बनाने, अपने और अपने वंश के शासन को लंबा करने के लिए इस तरह की नीतियां अपनाता था। यूरोप की औपनिवेशिक ताकतों ने ईसाई मिशनरियों को मूल निवासियों के धर्मांतरण के लिए प्रोत्साहित किया क्योंकि इससे उन्हें लोकप्रिय वैधता मिलती थी और उनका दौर लंबा होता था। उनका दर्शन वही था जो प्राचीन और मध्यकालीन भारत में तमाम राजाओं ने अपना रखा था।


हिंदू पुनरुत्थानवादी आज जो कर रहे हैं, वह हमें प्राचीन और मध्ययुगीन काल में ले जाने का प्रयास है। सुप्रीम कोर्ट में, वे पूजा स्थल अधिनियम 1991 को इस आधार पर चुनौती दे रहे हैं कि यह पूजा स्थलों के लिए यथास्थिति की अनुमति देने के लिए मनमाने ढंग से 15 अगस्त, 1947 की कट-ऑफ तिथि निर्धारित करता है। साफ है, वे चाहते हैं कि कट-ऑफ तारीख बाबर के आने या गजनी के पहले हमले तक पीछे हो जाए। उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं है कि यह सब यहीं पर नहीं रुकने वाला। बौद्ध और जैन इस कट-ऑफ तारीख को पीछे ईसा से सदियों पहले तक खिसकाने की मांग कर सकते हैं। फिर हिंदू पुनरुत्थानवादी किसके पक्ष में होंगे?

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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