न्यू इंडिया में बड़ी आबादी की जगह ही नहीं, सामाजिक अशांति बढ़ने का खतरा

जिस आर्थिक मॉडल को अपनाया जा रहा है, उसमें आबादी का काफी बड़ा हिस्सा पीछे छूट जाएगा। यह देश के लिए अच्छा नहीं है क्योंकि इससे सामाजिक अशांति बढ़ सकती है। पर्याप्त रोजगार पैदा किए बिना अर्थव्यवस्था को बढ़ते रहने नहीं दिया जा सकता।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया
user

अरुण सिन्हा

हमें बताया जा रहा है कि 2014 से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘स्वप्नदर्शी और ऊर्जस्वी नेतृत्व’ में पुराना भारत न्यू इंडिया में परिवर्तित हो रहा है। और यह न्यू इंडिया सबके लिए खुशहाली ला रहा है- ऐसा न्यू इंडिया की ट्रेन की इस भावना की वजह से है- सबका साथ, सबका विकास। इसके प्लेटफॉर्म पर किसी को नहीं छोड़ा जाना है!

क्या सचमुच ऐसा है?

क्या प्लेटफॉर्म पर किसी को नहीं छोड़ा जा रहा? सेंटर फॉर मॉनिटरिंग ऑफ इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के अनुसार, काम करने वाले आयु वर्ग (15-59 वर्ष) के ऐसे लोगों की संख्या पूरे देश में पिछले पांच वर्षों में उल्लेखनीय ढंग से कम हुई है जिनके पास रोजगार है। 15 से 29 साल आयु वर्ग के औसत शहरी युवा मोदी सरकार के आठ साल के दौरान हर साल बेरोजगार रहे हैं। न्यू इंडिया की इस बुलेट ट्रेन के प्लेटफॉर्म पर बड़ी संख्या में भारतीय युवा और अर्धव्यस्क, पुरुष और महिलाएं खड़े नहीं रह गए हैं?

और जो ट्रेन में सवार हो गए हैं, उनका क्या? सबका साथ, सबका विकास सबके लिए खुशहाली का अर्धसूचक भले ही हो, इसका मतलब सबकी समान खुशहाली नहीं है। स्वप्नदर्शी मोदी किसी क्लासलेस ट्रेन को ड्राइव नहीं कर रहे हैं। इस ट्रेन में विभिन्न क्लास हैं: ऊंचे दरजे के डिब्बे पर ‘धन पैदा करने वालों’ (उद्योगपति, व्यापारी, स्टार्टअप के प्रमोटर, ऐप वाले समूह) का कब्जा है, मध्यम दरजे पर उपभोक्ता वर्गों (उच्च आय वाले निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के एक्जीक्यूटिव और बड़े धनी-मानी किसान) तथा सबसे निचले दरजे में (कुशल एवं अकुशल) कामगार वर्ग हैं। निचले दरजे वाले डिब्बे उच्च और मध्यम डिब्बे की तुलना में बड़ी संख्या में हैं।


मोदी का न्यू इंडिया ज्यादा साहसी ‘आर्थिक सुधार’ लागू करने के आधार पर डॉ. मनमोहन सिंह के न्यू इंडिया से अपने को अलग पेश करता है। डॉ. सिंह के समय को वह पुराने भारत के तौर पर पेश करता है। इसका मतलब है कि मोदी के न्यू इंडिया में ऐसी अर्थव्यवस्था है जिसमें ‘मिनिमम गर्वमेंट’ (सरकार अपनी शक्तियों को अधिक-से-अधिक कम कर रही है) और ‘व्यवसाय करने की ज्यादा-से-ज्यादा सुविधाजनक स्थिति’ (व्यवसाय करने वाले लोग कम टैक्स चुकाते हैं और कर्मचारियों को रखने और उन्हें हटाने की उदारता का उपयोग करते हैं) है। व्यवसाय करने वाले लोगों से उनके साथ की जाने वाली उदारता का उपयोग अपने को धन पैदा करने वालों के रूप में बदलने की अपेक्षा की जाती है। उनसे इतनी बड़ी कचौड़ी बनाने की अपेक्षा की जाती है जिससे हर किसी को अच्छा-खासा टुकड़ा मिल सके।

क्या ऐसा हो रहा है?

मोदी सरकार उच्च जीडीपी विकास की बात करते हुए नहीं थक रही है। लेकिन वह इस बारे मेें कभी बात नहीं करती कि अर्थव्यवस्था में विकास के अनुपात में कितना रोजगार विकास हो रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि कि रोजगार के आंकड़े निराशाजनक हैं।

स्वस्थ और खुशहाल अर्थव्यवस्था का मुख्या मानदंड श्रम का कृषि से उद्योग और व्यापार की तरफ जाना है- मतलब, गांवों से शहरों की ओर जाना। यही वह ट्रेन्ड था जो बरसों से हो रहा था। लेकिन मोदी सरकार में यह ट्रेन्ड उलटा हो गया है। शहरों में रोजगार न पाने की वजह से श्रमिक खेती-किसानी करने के लिए गांव चले गए हैं। कृषि में अतिरिक्त श्रम का मतलब है उनके लिए कम मजदूरी, फिर भी वे कुछ नहीं कर सकते क्योंकि कि कुछ नहीं से बेहतर थोड़ा-बहुत भी तो है। अर्थशास्त्रियों ने इसे रोजगार में ‘संरचनात्मक उलटी स्थिति’ (स्ट्रकचर्ल रिवर्सल) कहा है।

और जो शहरों में रुक गए हैं, उन्हें क्या मिल रहा है? कम मजदूरी, वेतन के साथ कोई अवकाश नहीं, कोई चिकित्सीय प्रतिपूर्ति नहीं, दुर्घटनाओं और आपात स्थितियों में कोई मदद नहीं।


प्रधानमंत्री गौरवशाली अर्थों में यूनिकॉर्न (एक बिलियन डॉलर कंपनी) की बात करते हैं। लेकिन उसने रोजगार की जो गुणवत्ता उपलब्ध कराई है, वह तकलीफदेह है। मिन्ट के अनुसार, यूनिकॉर्न ने 28 लाख लोगों को रोजगार दिए हैं जिनमें से सिर्फ 2.72 लाख लोग कर्मचारी भविष्यनिधि संगठन (ईपीएफओ) में पंजीकृत हैं। इसका मतलब है कि स्टार्टअप में 90 प्रतिशत कामगार पेंशन और बीमा से वंचित कर दिए गए हैं।

और ‘व्यवसाय करने की अधिकतम सुविधा’ का न्यू इंडिया में हाल देखिए।

2017 में शिक्षा, वित्त, स्वास्थ्य खाद्य, हॉस्पिटैलिटी, लॉजिस्टिक्स और इस तरह के क्षेत्ररों में टेक्नोलॉजी- आधारित स्टार्टअप का नियोजित क्षेत्र में रोजगार का 21.3 प्रतिशत हिस्सा था। 2022 में यह हिस्सा गिरकर 12.9 प्रतिशत रह गया। ट्रैवल और हॉस्पिटैलिटी स्टार्टअप योयो ने 2017 और 2022 के बीच 18,000 मेें से 15,000 कर्मचारियों को निकाल दिया। ओला ने भी इसी अवधि में अपने 4,200 में से 2,600 कर्मचारियों को निकाल दिया। क्या और प्रमाण की भी जरूरत है कि खेती-किसानी में कम मजदूरी में काम करने के लिए भी लोग शहरों से गांवों की ओर क्यों जा रहे हैं?

निजी क्षेत्र में रोजगार विहीन विकास का मतलब सिर्फ यह हो सकता है कि पूंजी की उच्चतर और मध्यवर्गगों के बीच आवाजाही हो रही है जबकि आबादी का बड़ा हिस्सा उपभोक्ता बाजार से बाहर बना हुआ है। क्या इसका सबका साथ, सबका विकास के तौर पर उत्सव मनाया जा सकता है?

यह साफ है कि न्यू इंडिया का आर्थिक मॉडल आबादी के बड़े से बड़े हिस्से को आर्थिक बहिष्करण (एक्सक्लूजन) की ओर ले जाएगा। यह देश के लिए अच्छा नहीं है क्योंकि इससे सामाजिक अशांति बढ़ सकती है। पर्याप्त रोजगार पैदा किए बिना अर्थव्यवस्था को बढ़ते रहने नहीं दिया जा सकता। आबादी के बड़े हिस्सेका आर्थिक बहिष्करण अर्थव्यवस्था के लिए भी अपने आप अच्छा नहीं है क्योंकि इसका मतलब होगा कि मांग उच्चतर और मध्य आय वर्गों के परिवारों तक ही बनी रहेगी और यह आबादी के ज्यादा हिस्से तक नहीं फैलेगी।

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia