अब विभिन्नताओं से भरे देश के अलग-अलग कैलेंडर पर हमला, एकीकरण के नाम पर एकाधिपत्य स्थापित करने की कोशिश

एकीकरण के लिबास में एकाधिपत्य स्थापित करने, विभिन्नता को लीलने के प्रयास के इतर समय सारणी के भारतीय इतिहास को जानना भी दिलचस्प है। साझी नैसर्गिक कल्पना में काल को चक्र के रूप में देखा गया, जिसे समझने के दो नजरिये थेः एक महायुग और दूसरा मन्वंतर कहलाता है।

 फोटोः सोशल मीडिया
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मीनाक्षी नटराजन

गत दिनों देश के एक भू-भाग में गुड़ी पड़वा, उगादी, चैत्र शुक्लादि मनाया गया। चंद्र आधारित कैलेंडर या समय सारणी को मानने वाले चैत्र की शुरुआत को नव वर्ष के रूप में मनाते हैं। यह आम तौर पर मार्च-अप्रैल में पड़ता है। गुड़ी पड़वा महाराष्ट्र में नव वर्ष का आरंभ माना जाता है, तो उगादी के रूप में तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में उसी दिन नए साल का आगमन होता है। चैत्र माह को विक्रम संवत का आरंभ माना गया है। 

विभिन्नता के दीप से आलोकित देश में नव वर्ष की शुरुआत भी एक नहीं है। सूर्य पर आधारित समय सारणी को मानने वाले वैशाख से नया साल मनाते हैं। यह 14-15 अप्रैल को पड़ता है। बंगाल, ओड़िशा, असम, केरल और तमिलनाडु में मनाया जाता है। वर्तमान व्यवस्था और उनके आनुषांगिक संगठन एकीकृत करने की उग्र मुहिम चलाना चाहते हैं। एकीकरण के लिबास में एकाधिपत्य स्थापित करने, विभिन्नता को लीलने का यह प्रयास है।

इन सबसे इतर समय सारणी के भारतीय इतिहास को जानना भी दिलचस्प हो सकता है। साझी नैसर्गिक कल्पना में काल को चक्र के रूप में देखा गया। काल चक्र के भी समझने के दो नजरिये थेः एक महायुग और दूसरा मन्वंतर कहलाता है। कभी दोनों को एक रूप भी किया जाता था। हर चक्र कल्प कहलाता और वह 4,320,000 मानव वर्ष का समतुल्य माना गया। हर चक्र चौदह मन्वंतर का होता और हर मन्वंतर के बीच लंबी काल अवधि होती थी।

दूसरे नजरिये में हर चक्र एक महायुग कहलाता था। महायुग में चार युग होते थे। हर युग भी चक्राकार होता था। इन युगों कृत, त्रेता, द्वापर और कलि में क्रमशः 4,800, 3,600, 2,400 और 1,200 दिव्य वर्ष होते थे। मानव वर्ष से उनको समतुल्य करने के लिए 360 से भाग किया जाता था। इस काल्पनिक समय की मान्यता के अनुसार, हम अभी कलियुग में हैं। ऐहोल के शिलालेख के अनुसार, कलियुग का आरंभ ईसा पूर्व 3102-1 में हो चुका है। समय को चक्र के रूप में देखने से पुनर्जन्म के फलसफे को बल मिलता था। इससे जुड़े वर्चस्ववादी नियंत्रण को सुविधा मिली।


यह भी मानना होगा कि ऊर्जा के पुनर्संचरण की समझ भी चक्राकार स्थिति से जुड़ी है। धीरे-धीरे समय की गणना चक्राकार न होकर सीधी होती गई। पुराणों में विभिन्न नायकों, राजकीय कुटुंबों की वंशावली का जिक्र मिलता है। इसमें मिथक और इतिहास आपस में घुला-मिला जरूर है लेकिन एक अंदाज लगता है। वंश शब्द का उपयोग बांस से हुआ है। जैसे बांस में नए कोंपल फूटने पर एक नैसर्गिक वर्ग या स्केल पड़ता है, वैसे ही हर नई पीढ़ी से कुटुंब की रेखा बढ़ती है।

काल गणना के ऐतिहासिक पक्ष को देखें, तो कुछ सार्थक तथ्य सामने आते हैं। अशोक के शिलालेखों में वर्ष का जिक्र पहले-पहल मिलता है। उदाहरण के लिए, शिलालेखों की शुरुआत ‘देवनामपिय पियदासी के सम्राट होने के 26वें वर्ष’ आदि से होती है, तो वर्ष का अंदाज मिलता है। खारवेल, सातवाहन के शिलालेख, गुफा, स्तंभ लेख में भी वर्ष का जिक्र है। कई अन्य लेखों में दिन का जिक्र है, वर्ष का नहीं। मगर पांचवीं सदी ईस्वी से ज्यादा स्पष्टता मिलती है। कृत, मालव या जिसे अब आम प्रचलन में विक्रम संवत कहा जाता है, का उल्लेख है। शक, कालचुरी-चेदी तथा गुप्त संवत का भी इस्तेमाल हुआ है।

विक्रम संवत को हिन्दू नव वर्ष के रूप में मनाया जाता है। उसकी उग्र पैरवी भी हो रही है। विक्रम संवत की शुरुआत 57-58 ईसा पूर्व की मानी जाती है। यह मध्य एशिया और पूर्वी ईरान के पार्थियाई शासक वोनोनस की गद्देनशीं होने की तारीख मानी जाती थी। मगर अब प्रामाणिक तौर पर इतिहासकार मानते हैं कि पार्थियाई शासक एजेस-1 के कार्यकाल के आरंभ से यह संवत शुरू हुआ होगा। इस पार्थियाई शासक का प्रभाव क्षेत्र उत्तर पश्चिमी भारत तक था। मिथकीय नायक राजा विक्रमादित्य से इस काल गणना का जुड़ाव बाद में हुआ होगा। इसलिए कि ईसा पूर्व इस नाम का कोई शासक नहीं था। गुप्त वंश के चंद्रगुप्त को विक्रमादित्य की उपाधि से जाना जाता था। मगर वह तो चौथी-पांचवीं सदी ईस्वी का शासक था।

विक्रम संवत की ही तरह राष्ट्रीय स्तर पर शक संवत आजादी के बाद से मान्य हुआ। इसका आरंभ 78 ईस्वी का है। ज्यादातर इतिहासज्ञ मध्य एशियाई यूची समूह के कुषाण शासक कनिष्क की राजसत्ता के आरंभ से इसकी शुरुआत मानते हैं। कुछ शोधक शक क्षत्रप चाष्टाण के राज्यकाल को इससे जोड़ते हैं।


भारत में खगोल शास्त्र की समझ काफी पुरानी और परिपक्व थी। वेदांग ज्योतिष में ईसा पूर्व 200 साल पहले की जाती काल गणना की उस समय की जानकारी दर्ज है। इसका सिलसिलेवार लेखन चौथी-पांचवीं सदी में हुआ। इसमें सौर वर्ष में 366 दिन, चंद्र वर्ष के 354 दिन माने गए। हर ढाई साल सौर को चंद्र वर्ष के बराबर लाने के लिए कुछ जोड़-घटाव करना पड़ता था। चंद्र काल गणना में नक्षत्र के समान बारह मास होते थे। हर माह में शुक्ल और कृष्ण पक्ष होते। हर दिन को तिथि कहते थे।

फिर बाद में सौर वर्ष का आरंभ हुआ। यह तरीका बाद में काफी परिमार्जित होता रहा। यवनी प्रभाव से खगोल और ज्योतिष का अध्ययन एक साथ होने लगा। यवन अध्येता यवनेश्वर ने संस्कृत में यवनी खगोल का अनुवाद किया जिसे सौ साल बाद स्फुर्जीध्वज ने यवन जातक के रूप में पुनर्विकसित किया। यवनी खगोल गणित के प्रभाव से और अपने स्व अध्ययन से पंच सिद्धांत रचे गए। दो के नाम रोमक और पौलिश है।

वराह मिहिर आदि ने इन पर और शोध किया तथा सिद्धांत को परिमार्जित कर सके। यवन सूत्रों की मदद से ही यवनपुरा को मध्य रेखा मानकर काल्पनिक भौगोलिक रेखा अक्षांश, देशांतर का विकास हुआ। इसी के साथ-साथ चंद्र के स्थान पर ग्रह नक्षत्र के आधार पर खगोल अध्ययन शुरू हुआ। उज्जैन को भारतीय मध्यान्ह रेखा से गुजरता नगर माना गया और खगोल केन्द्र विकसित किया गया।  

आर्यभट्ट ने 499 ईस्वी में पाई की 3.1416 तक और सौर वर्ष के 365.3586805 दिन की गणना कर डाली जो आधुनिक शोध निष्कर्ष के बेहद करीब है। सूर्य ग्रहण के खगोलीय कारण को भी समझा और विस्तार से लिखा। किसी अवैज्ञानिक राहु, केतु के चांद को निगलने की बकवास को खारिज किया। आर्यभट्ट खगोल को ज्योतिष से मुक्त कर चुके थे। लेकिन ब्रह्मपुत्र ने संभवतः तत्कालीन कट्टरपंथियों के दबाव में आकर फिर साथ जोड़ा। गणित के विस्तार को बाद में बगदाद के अरबी ज्ञान विज्ञान केन्द्र में और प्रगति मिली।


भारत में जब किंवाड़ बंद नहीं किए, तब शून्य को इजाद किया। 1881 में मरदान (पाकिस्तान) में बक्शाली पांडुलिपि मिली जिसमें शून्य का प्रयोग चौथी-पांचवीं सदी में हुआ मालूम पड़ता है। ग्वालियर के चतुर्भुज मंदिर में नवीं सदी के एक शिलालेख में शून्य 0 के रूप में खुदा भी है। कभी बंद खिड़की-दरवाजों के साथ कुछ अन्वेषण नहीं किया जाता। हर गणना किसी नए अन्वेषण को जन्म देती है। आज यह कहने में गौरव नहीं कि हम ग्रहण के विज्ञान को इतनी शताब्दी पहले जान गए थे। बल्कि अब जो उसकी आड़ में कूप-मंडूकता फैलाई गई है, उससे निजात पाने की है। इस विभिन्नता को मानने की है कि एक ही देश में कई नव वर्ष साथ-साथ मनते हैं। हर समूह-समुदाय ने तहजीब को अपना ही रंग दिया है। पुराने रंग को मिटाए बगैर।  

(संदर्भः अर्ली इंडिया- रोमिला थापर, हिस्ट्री ऑफ एंशिएंट अर्ली मिडिवल इंडिया– उपिन्द्र सिंह)

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