अब लद्दाख है निशाने पर

लोगों को अहसास हुआ कि उन्हें संरक्षण देने वाला अनुच्छेद 370 उनसे छिन चुका है और उन्हें कुछ मिला भी नहीं। अपनी विशिष्ट संस्कृति पर मंडराते खतरों के बीच ही जमीन जाने की खबर से लगे सदमे ने लद्दाख के जनमानस को बहुत तेजी से बदल दिया।

अब लद्दाख है निशाने पर
i
user

हरजिंदर

दो हफ्ते में शांतिपूर्ण लद्दाख को अशांत इलाके में बदलने के लिए खास प्रतिभा की जरूरत होती है। संघ के खांटी कार्यकर्ता उपराज्यपाल कविंदर गुप्ता और केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने एक झटके में ही लद्दाख और कारगिल के लोगों को अलग-थलग कर दिया। लद्दाख के शांतिप्रिय लोग आज गुस्से में हैं- उनके गांधीवादी नेता को गिरफ्तार कर लिया गया है, भारत के प्रति उनकी निष्ठा पर सवाल उठाया जा रहा है और उन्हें 'देश-विरोधी' करार दिया जा रहा है।  

इस क्षेत्र के धैर्य की दर्दनाक परीक्षा केन्द्र ने उसकी राज्य का दर्जा देने और उसे संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने की मांगों को टाल कर ली। छठी अनुसूची लागू करने से वहां की जनजातियों को संरक्षण मिल सकेगा। दोनों ही मांगें पूरी करने का वादा बीजेपी ने 2019 के आम चुनाव और 2020 में पर्वतीय विकास परिषद के चुनाव के दौरान घोषणापत्र में किया था, छह साल बाद भी यह वादा पूरा नहीं हुआ।

लद्दाख की मौजूदा स्थिति को समझना है, तो दो तारीखों का ध्यान रखना जरूरी है। एक है पांच अगस्त 2019, जब संसद में जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन विधेयक पेश हुआ। साथ ही संविधान के अनुच्छेद 370 और 35ए को भी विदाई दे दी गई। यह लद्दाख के लोगों के लिए बरसों पुराना सपना पूरा होने की तरह था। उन्हें उम्मीद थी कि लद्दाख को जब केन्द्र शासित प्रदेश का दर्जा मिलेगा, तो उसकी तरक्की के नए रास्ते खुलेंगे। इसका जश्न भी यहां खूब मनाया गया। जल्द ही प्रशासन दिल्ली के प्रतिनिधि, यानी उपराज्यपाल के जरिये चलने लगा। यह जरूर है कि लेह और कारगिल को स्वायत्त पर्वतीय विकास परिषद मिल गई थी।

दूसरी तारीख है- छह दिसंबर 2021, जब लद्दाख बंद का आयोजन हुआ। दो साल में ही लोगों का मोहभंग हो चुका था। वे समझ चुके थे कि नई व्यवस्था से उन्हें कुछ नहीं मिला। पहले शासन श्रीनगर से चल रहा था, फिर नई दिल्ली से चलने लगा। बंद का आयोजन लेह एपेक्स बाॅडी और कारगिल डेमोक्रेटिक एलायंस ने मिलकर किया था। यानी समस्या और समाधान को लेकर कारगिल और लेह में राजनीतिक सहमति बन चुकी थी। जब लेह में अनुच्छेद 370 खत्म किए जाने का जश्न मनाया जा रहा था, तो कारगिल में इसका विरोध हो रहा था।

यह अब किसी से छुपा नहीं था कि पर्वतीय विकास परिषद निरर्थक साबित हो रही है। परिषद के पास कानून बनाने के अधिकार बहुत सीमित हैं- न ज्यादा अधिकार और न संसाधन। केन्द्रीय बजट में लद्दाख के लिए लगभग 6,000 करोड़ रुपये का प्रावधान है और इसका प्रचार लद्दाख को लेकर केन्द्र की गंभीरता बताने के लिए बीजेपी अक्सर करती है। लेकिन उसमें परिषद के हिस्से नौ फीसद से भी कम रकम आती है। 

पूरे देश के मुकाबले लद्दाख में बेरोजगारी की दर कहीं ज्यादा है। देश में 13.4 फीसद ग्रेजुएट युवा बेरोजगार हैं। लद्दाख में यह प्रतिशत दोगुना है- 26.5 फीसद। पिछले दिनों जब विकास परिषद ने 534 नौकरियों के लिए आवेदन मांगे, तो 50 हजार से ज्यादा अर्जियां मिलीं। यह संख्या लद्दाख की कुल आबादी का 17 फीसद है।


एक तथ्य यह भी है कि कश्मीर से अलग हुए छह साल हो गए हैं लेकिन अभी तक किसी लद्दाख वासी को गजटेड ऑफिसर का दर्जा नहीं मिला है। ज्यादातर काम या तो जम्मू-कश्मीर सिविल सर्विसेज के अधिकारी कर रहे हैं या केन्द्र से भेजे गए आईएएस। प्रशासन में स्थानीय लोगों को जगह मिल सके, इसलिए आंदोलनकारियों की मांग यह भी है कि लद्दाख को अपना लोक सेवा आयोग दिया जाए।

भारतीय सेना की एक रेजीमेंट है लद्दाख स्काउट। स्थानीय नौजवानों के लिए अपना जीवट, अपनी बहादुरी और अपना कौशल दिखाने का यह दशकों पुराना जरिया रहा है। यह उनके लिए स्थायी रोजगार की गारंटी भी था। इसके जवानों को कठिन और उच्च-दुर्गम पहाड़ों पर तैनात होने के लिए एक्लेमेटाइज़ होने की जरूरत नहीं होती। कारगिल युद्ध में लद्दाख स्काउट के जवान चीटियों की तरह पहाड़ पर चढ़े थे और उन्हें घुसपैठियों से मुक्त करा लिया था। इसके लिए रेजीमेंट के एक मेजर को महावीर चक्र भी मिला था। संयोग से उनका नाम भी सोनम वांगचुक था। यह रास्ता अब खत्म हो रहा है। अब सिर्फ अग्निवीर भर्ती हो रहे हैं। पिछले जून में 194 अग्निवीर प्रशिक्षण के बाद लद्दाख स्काउट में शामिल किए गए हैं।

असंतोष का अगला दौर तब शुरू हुआ, जब यह खबर आई कि केन्द्र सरकार छांगथांग क्षेत्र में दुनिया का सबसे बड़ा सौर ऊर्जा प्लांट लगाने जा रही है। 13 गीगावाॅट उत्पादन क्षमता वाला यह संयंत्र कई किलोमीटर क्षेत्र में लगना है। इसमें तैयार विद्युत 750 किलोमीटर दूर हरियाणा में नेशनल ग्रिड को भेजी जाएगी। यह काम बीजेपी और सरकार के आला नेतृत्व से नजदीकी रखने वाले एक उद्योगपति को दिया गया है। छांगथांग वह इलाका है जहां स्थानीय चरवाहे उन भेड़ों को चराते हैं जिनसे दुनिया की सबसे महंगी ऊन पश्मीना मिलती है। ऐसी खबरें भी आने लगीं कि वहां बड़े पैमाने पर माईनिंग की तैयारियां भी हो रही हैं।

इसके बाद लोगों को अहसास हुआ कि अनुच्छेद 370 उन्हें जो संरक्षण देता था, वह उनसे छिन चुका है और उन्हें कुछ मिला भी नहीं। अपनी विशिष्ट संस्कृति पर मंडराते खतरों के बीच ही जमीन जाने की इस खबर से जो सदमा लगा, उसने लद्दाख के जनमानस को बहुत तेजी से बदल दिया।    

लद्दाख को न्याय दिलाने का यह आंदोलन 2021 में शुरू हुआ था, लेकिन पर्यावरण कार्यकर्ता सोनम वांगचुक इसमें जनवरी 2023 में ही शामिल हुए। जब तापमान माइनस में था, उन्होंने पांच दिन का अनशन औद्योगिक संयंत्र और प्रस्तावित खनन के पर्यावरण पर पड़ने वाले असर को लेकर किया। तब तक वह नरेंद्र मोदी के समर्थकों में गिने जाते थे। 2019 में केन्द्र सरकार द्वारा उठाए गए कदमों का उन्होंने बढ़-चढ़ कर स्वागत किया था। उन दिनों ये खबरें भी आने लगीं थीं कि केन्द्र सरकार उनके संस्थान हिमालयन इंस्टीट्यूट ऑफ अल्टरनेटिव लद्दाख को विश्वविद्यालय का दर्जा देने जा रही है। सोनम वांगचुक और उनके सहयोगी इसके लिए ‘यूनिवर्सिटी‘ शब्द का इस्तेमाल करने लगे थे।

एक बार वह आंदोलन में शामिल हुए, तो लद्दाख में हो रहे बदलावों की राजनीति भी उन्हें समझ में आने लगी। फिर वह लगातार सक्रिय हो गए। उन्होंने दिल्ली तक की पदयात्रा की। कई अनशन किए। एक आमरण अनशन भी किया जिसे केन्द्र से मिले मांगों पर विचार के आश्वासन से खत्म कर दिया गया।


इस बीच वह लेह एपेक्स बाॅडी का भी हिस्सा बन गए, जो लद्दाख को उसका हक दिलाने के लिए लगातार संघर्ष कर रही थी। सोनम वांगचुक के आने से इस संघर्ष को ऐसा चेहरा मिल गया था जिसकी राष्ट्रीय पहचान थी। इससे आंदोलन की वे खबरें देश के मीडिया में थोड़ी-बहुत जगह पाने लग गईं जो अभी तक नजरंदाज कर दी जाती थीं। लेकिन इसी वजह से वह केन्द्र के निशाने पर आ गए। सरकार को लगने लगा कि इस एक व्यक्ति को दबाकर पूरे आंदोलन का दमन किया जा सकता है। शुरुआत उनके इंस्टीट्यूट के दरवाजे पर यह नोटिस चिपका कर हुई जिसमें कहा गया कि इंस्टीट्यूट के लिए उन्हें दी गई जमीन की लीज खत्म की जा रही है और उन्हें जल्द ही बेदखल कर दिया जाएगा।  

पिछली दस सितंबर को एपेक्स बाॅडी और कारगिल एसोसिएशन ने 35 दिन के अनशन की घोषणा की। सोनम वांगचुक के नेतृत्व में दस लोग भूख हड़ताल पर बैठ गए। अनशन के 11वें दिन सरकार की तरफ से यह ऐलान भी आ गया कि गृह मंत्रालय 6 अक्तूबर को दोनों संगठनों से बात करेगा। इतनी देर की तारीख दिए जाने से नाराज होकर आंदोलनकारियों ने प्रस्ताव ठुकरा दिया और अनशन जारी रखा। इस घोषणा के वक्त वांगचुक ने कहा था कि नौजवान उनके अहिंसक तरीकों से आजिज आ गए हैं, उन्हें लगता है कि अहिंसा से कुछ हासिल नहीं होगा।

ठीक दो दिन बाद पता चला कि उनकी आशंका सही थी। गुस्से में भरे नौजवानों ने जब बीजेपी कार्यालय में आग लगाई तो सुरक्षा बलों की गोलबारी में चार लोगों की जान चली गई। इसके आगे की कहानी वांगचुक द्वारा आंदोलन खत्म करने की घोषणा और उन्हें एनएसए में गिरफ्तार करके जोधपुर सेंट्रल जेल भेजने तक जाती है। अहिंसक आंदोलन कर रहे प्रसिद्ध पर्यावरणविद को एक ऐसी जेल में भेज दिया गया, जहां कुछ समय पहले तक बदनाम संत आसाराम और गैंगस्टर लारेंस बिश्नोई जैसे लोग बंद थे।

यह सवाल अभी भी बाकी है कि 24 सितंबर को लेह में जो हिंसा हुई, क्या वह क्षणिक आवेग का नतीजा थी। लद्दाख के इतिहासकार और शिक्षाविद प्रोफेसर सिद्दीक वाहिद ने एक यू-ट्यूब इंटरव्यू में एक महत्वपूर्ण बात कही है। उनका कहना है कि कुछ समय पहले जब वह लद्दाख गए, तो उन्होंने पाया कि वहां सुरक्षा बलों की तैनाती पहले के मुकाबले बहुत ज्यादा है। हमेशा शांत रहने वाले इस इलाके में इतनी तैनाती ने उन्हें हैरान किया। हालांकि खुद प्रोफेसर वाहिद ने इसे लेकर कोई निष्कर्ष नहीं निकाला, लेकिन इससे हम यह तो समझ ही सकते हैं कि उस दिन वहां जो कुछ भी हुआ, उसमें क्षणिक आवेग के अलावा शायद कुछ और भी था।

अब दोनों संगठनों की मांग है कि लेह में हुई हिंसा की सुप्रीम कोर्ट के जज से जांच कराई जाए। यही बातचीत के लिए उनकी शर्त भी है। क्या सोनम वांगचुक की रिहाई बातचीत की शर्त नहीं है? इस पर एपेक्स बाॅडी के सह-अध्यक्ष सेरिंग दोरजे ने नेशनल हेराल्ड को बताया कि यह हमारी मांग है, लेकिन यह बातचीत की शर्त नहीं है। हमारी मांग है कि न सिर्फ वांगचुक को, बल्कि उन 50 से ज्यादा नौजवानों को भी बिना शर्त रिहा किया जाए जिन्हें हिंसा के बाद लेह से गिरफ्तार किया गया था। डेमोक्रेटिक एलायंस के सज्जाद हुसैन कारगिली भी यही दोहराते हैं। उधर, गृह मंत्रालय कह रहा है कि बातचीत अपने समय पर ही होगी। लेकिन अगर संगठन बहिष्कार करते हैं, तो बातचीत किससे होगी? सज्जाद हुसैन कारगिली कहते हैं- हम नहीं जानते कि वे किससे बात करेंगे।  

मौजूदा अविश्वास के माहौल में शर्तें मान लिए जाने के बाद भी क्या वार्ता अर्थपूर्ण हो सकेगी? सेरिंग दोर्जे कहते हैं- हम वार्ता के लिए जाएंगे, तो खुले दिमाग से जाएंगे। यह सोचकर जाएंगे कि समाधान निकल सकता है। इसके बिना वार्ता का कोई मतलब भी नहीं होगा।