पुरातत्व महत्व के मंदिरों में पर्यटकों को बुलावा, क्या चुनावी कारण से अब कुमाऊं पर मेहरबान हुए मोदी!

कुमाऊं के विकास और वहां के पवित्र मंदिरों के कायाकल्प की जैसी बेचैनी सरकार ने अचानक दिखाई है, हाल के विनाशकारी अनुभवों के बाद इन्हें चुनावी लाभ के लिए दौड़ाई गई ट्रेन के रूप में देखा जाना लाजमी है।

उत्तराखंड के कुमाऊं में जागेश्वर धाम
उत्तराखंड के कुमाऊं में जागेश्वर धाम
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रश्मि सहगल

उत्तराखंड में गढ़वाल क्षेत्र के चारधाम सर्किट में बेरोकटोक पर्यटन के विनाशकारी नतीजों के बावजूद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब कुमाऊं के पवित्र मंदिरों के मामले में पर्यटकों की भीड़ के उसी विनाशकारी मॉडल का विस्तार करना चाहते हैं।

हाल की अपनी यात्रा के बाद, मोदी ने माइक्रोब्लॉगिंग प्लेटफॉर्म X (पूर्व में ट्विटर) पर लोगों से इन धार्मिक स्थलों की प्राकृतिक भव्यता और ‘दैवीय आभा’ का बखान करते हुए अल्मोड़ा के करीब पार्वती कुंड और जागेश्वर मंदिरों की यात्रा करने की अपील की। हालांकि इस ‘आध्यात्मिक प्रेम’ के पीछे असल बात कुछ और ही है।

सब जानते हैं कि कुमाऊं पारंपरिक रूप से कांग्रेस के साथ रहा है जबकि गढ़वाल का झुकाव आमतौर पर भाजपा की ओर देखा गया है। ऐसे में लोकसभा चुनाव करीब आने के साथ मोदी आध्यात्मिक पर्यटन को बढ़ावा देने की आड़ में अगर एक बार फिर मतदाताओं को लुभाने की इस तरह कोशिश कर रहे हैं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

यह भी एक तथ्य है कि प्रधानमंत्री की 14 अक्तूबर की कुमाऊं की प्रचार यात्रा के काफी पहले से बीजेपी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के हाथों से कुमाऊं के ऐतिहासिक मंदिरों का नियंत्रण छीनने के लिए एक व्यवस्थित प्रयास करती रही है।

इस साल की शुरुआत में उत्तराखंड सरकार ने राज्य में पंद्रह प्रमुख मंदिरों के विकास के लिए ‘मानसखंड मंदिर माला मिशन’ की घोषणा की थी, जिसमें अल्मोड़ा जिले का बागेश्वर महादेव मंदिर और जागेश्वर मंदिर,  कटारमल का सूर्यदेव मंदिर, नंदा देवी मंदिर, बागेश्वर का बागनाथ मंदिर और पिथौरागढ़ जिले का पाताल भुवनेश्वर गुफा परिसर शामिल हैं। दरअसल राज्य सरकार इस क्षेत्र के 45 मंदिरों का विकास करना चाहती है। बागनाथ, बागेश्वर, जागेश्वर, सूर्यदेव और नंदा देवी मंदिर ऐतिहासिक महत्व के स्थान रहे हैं और आजादी के बाद से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की देखरेख में ही हैं।

बागनाथ मंदिर की तो एक दुर्लभ ऐतिहासिकता और महत्व है जिसका निर्माण 1450 में कुमाऊं राजा लक्ष्मी चंद ने करवाया था। मंदिर परिसर में अनेक संस्कृत शिलालेख हैं जो इसके अत्यंत प्राचीन काल का होने की गवाही देते हैं। एएसआई के मुताबिक, ये शिलालेख 2500 साल पुराने और गुप्त काल के बाद के हैं।

बागनाथ मंदिर सरयू और गोमती नदियों के संगम पर बसे बागेश्वर शहर में स्थित है। हालांकि जिस धड़ल्ले से यहां पुरातत्त्व नियमों की खुल्लमखुल्ला अवहेलना हो रही है, लगता नहीं कि इसका नियंत्रण अब एएसआई के हाथ में रह गया है! क्योंकि एएसआई का तो साफ कहना है कि स्मारक के 200 मीटर के दायरे में किसी भी तरह का निर्माण नहीं हो सकता लेकिन पिछले एक साल में यहां बहुत कुछ बदल चुका है।


देहरादून स्थित पर्यावरणविद् रीनू पॉल मंदिर की प्राचीन मूर्तियों को गेरुआ रंग में रंगा देखकर और परिसर के अंदर इन मूर्तियों की पूजा होते देखकर परेशान हैं: “दुख की बात यह है कि जिन 15 मंदिरों का चयन किया गया है उनका भी वही हश्र होने जा रहा है जो हमारे चार धामों का हुआ।”

रीनू पॉल कहती हैं: मेरा डर निराधार नहीं है क्योंकि मैं जानती हूं  कि जागेश्वर मंदिर परिसर के लिए एक मास्टर प्लान तैयार किया गया है जिसे केदारनाथ और बद्रीनाथ की तर्ज पर अहमदाबाद की उसी वास्तुशिल्प फर्म ‘आईएनआई डिजाइन स्टूडियो’ द्वारा विकसित किया जाना है। मंदिर के आसपास के मकानों के टूटने की आशंका जताई ही जा रही है। कानूनगो और पटवारी मंदिर क्षेत्र की पैमाइश पहले ही कर चुके हैं और क्षेत्रीय निवासी भविष्य को लेकर अपनी आशंकाएं सार्वजनिक तौर पर व्यक्त करते रहे हैं। पॉल ने बताया कि एएसआई अब इस परिसर की देखभाल नहीं करता है, जिसे एक ट्रस्ट को सौंपा जा चुका है।

पॉल बताती हैं कि जागेश्वर में नदी किनारे कई घाटों का निर्माण भी हो चुका है जबकि बागेश्वर में घाटों पर लंबी कतार में छतरियां लगाई गई हैं और वहां सुबह-शाम गोमती और सरयू नदियों पर उसी तरह आरती होने लगी है, जैसा ऋषिकेश और वाराणसी में गंगा के किनारे होता रहा है।

पिथौरागढ जिले के गंगोलीहाट स्थित पाताल भुवनेश्वर में प्राकृतिक गुफाओं का एक नेटवर्क भी था। राज्य सरकार ने ऐसी 15 गुफाओं की पहचान की है जिन्हें अब वे एक-दूसरे से जोड़ना चाहते हैं। बड़े पैमाने पर बनी इस योजना को ‘गुफा सर्किट’ नाम दिया गया है। इनमें एएसआई के संरक्षण वाली पाताल भुवनेशर, अमर महाकाली, बोलेश्वर, गुप्त गंगा, मेलचोर, दानेश्वर और शैलेशर जैसी गुफाएं भी शामिल हैं।

इस क्षेत्र में तैनात एएसआई के पुरातत्वविद् के बी शर्मा से जब इस परियोजना के बारे में पूछा गया तो उन्होंने राज्य सरकार के इस कार्यक्रम के प्रति अनभिज्ञता जताई। लेकिन एएसआई के एक अन्य अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि उनके पास दुनिया में कहीं भी गुफाओं के ऐसे बेतरतीब तरीके से जुड़े होने का कोई उदाहरण नहीं है। उनका कहना था कि, “यह एक बहुत बड़ा उपक्रम है जिसके लिए अत्यधिक शोध की आवश्यकता है। गुफाओं, नदियों और पहाड़ियों जैसे हर प्राकृतिक संसाधन का मौद्रिक लाभ के लिए इस तरह इस्तेमाल एक अप्रिय विचार है। ऐसी तमाम तथाकथित विकासात्मक गतिविधियों के कारण राज्य पहले से ही पीड़ित है और हमें अपनी गलतियों से सीखने की जरूरत है।”


अल्मोड़ा से 17 किलोमीटर दूर स्थित कटारमल सूर्य मंदिर, कोणार्क सूर्य मंदिर के बाद भारत में निर्मित दूसरा सबसे महत्वपूर्ण सूर्य मंदिर है। इस परिसर में 44 छोटे मंदिर थे और इसका निर्माण नौवीं शताब्दी में कत्यूरी राजाओं ने करवाया था। राष्ट्रीय महत्व का स्मारक होने के कारण इसका रखरखाव भी एएसआई द्वारा किया जाता रहा। लेकिन इस परिसर के आसपास भी लगातार अतिक्रमण बढ़ता गया और महत्वपूर्ण पैनलों और कीमती नक्काशीदार दरवाजों को सुरक्षित रखने के लिए आखिरकार यहां से दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में ले जाना पड़ा।

इस मंदिर में पर्यटकों को आकर्षित कर राजस्व कमाने के सरकारी लक्ष्य के तहत इसे कुमाऊं के पहले आध्यात्मिक गांव के रूप में विकसित किया जा रहा है जिसमें 13 करोड़ रुपये की लागत से योग केन्द्र, कैफे और ध्यान केन्द्र जैसी सुविधाएं बनाई जाएंगी। इन मंदिरों के विकास पर 83 करोड़ रुपये से अधिक की लागत आएगी और इसके लिए राशि पहले ही स्वीकृत की जा चुकी है।

पिछले साल ही राज्य के पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज ने एएसआई नियमों में संशोधन की अहमियत बताई थी, ताकि इन मंदिर परिसरों के आसपास निर्माण की अनुमति तो दी ही जा सके, साथ ही मंदिर परिसर के भीतर पर्यटकों के लिए सुविधाएं भी प्रदान की जा सकें।

एएसआई के साथ काम करने वाले राष्ट्रीय स्मारक प्राधिकरण ने 23 जून को एक नोटिस के जरिये  सूचना दी थी कि कटारमल सूर्य मंदिर के लिए विरासत उपनियमों के मसौदे की समीक्षा की जा रही है और जनता इस पर अपनी टिप्पणियां और सुझाव देने के लिए स्वतंत्र है। इस नोटिस पर संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले राष्ट्रीय स्मारक प्राधिकरण के निदेशक कर्नल सव्यसाची मारवाह के हस्ताक्षर थे।

मोदी ने इस साल की शुरुआत में नौ ऐसे नवरत्नों के विकास की बात कही थी जो मंदिरों की बेहतर कनेक्टिविटी में मददगार होंगे। इसी के मद्देनजर एक विशेष बागेश्वर-टनकपुर रेलवे लाइन को भी मंजूरी दी गई थी। रानीपोखरी से कोटी कॉलोनी के बीच रेल कनेक्टिविटी स्थापित करने और एकल सुरंग बनाकर यमुनोत्री और गंगोत्री को रेल और सड़क मार्ग से जोड़ने की योजना को केन्द्र सरकार पहले ही मंजूरी दे चुकी है।


इन स्मारकों पर जिस तरह से कब्ज़ा किया जा रहा है, उस पर पुरातत्ववेत्ता आशंका जताते हैं। एक प्रमुख पुरातत्वविद् ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “ये स्मारक चाहे मंदिर हों या अन्य, हमारी विरासत का हिस्सा हैं। उन्हें विशेष देखभाल और संरक्षण की जरूरत है। पंडितों को यहां अंधाधुंध पूजा और अन्य अनुष्ठान की इजाजत देने से उनकी पवित्रता और ऐतिहासिकता नष्ट हो जाएगी। सरकार को इन प्राचीन मंदिरों के संरक्षण और रखरखाव के पहलुओं पर भी ध्यान देना होगा।”

इस प्रकरण में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज, बेंगलुरु के भूकंपविज्ञानी और पृथ्वी वैज्ञानिक डॉ. सीपी राजेंद्रन की चेतावनी गंभीर है जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। उनका कहना है कि, “विश्व की सबसे ऊंची पर्वत श्रृंखला हिमालय अपने कुछ सबसे खराब पर्यावरणीय मुद्दों का सामना कर रहा है, जिसका मनुष्यों के एक तिहाई हिस्से पर भारी दुष्प्रभाव पड़ रहा है। यह न सिर्फ एशिया की कुछ प्रमुख नदियों का स्रोत है, बल्कि एशियाई क्षेत्र की जलवायु को विनियमित करने वाला एक प्रमुख कारक तत्व भी है। अफसोस की बात है कि मानव-जनित जलवायु परिवर्तन संकट और इंसानी गतिविधियों के कारण एक प्रमुख जलवायु नियामक शक्ति के रूप में अब यह अपना मूल वैभव और शक्ति खोने के गंभीर खतरे से जूझ रहा है।”

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