हे भगवान, तुम्हारे दर पर भी वीआईपी कल्चर!

तिरुमला बालाजी मंदिर से लेकर वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर तक में वीआईपी दर्शन करने वालों द्वारा दिए जाने वाले शुल्क से कहीं ज्यादा बड़ा आकर्षण उनके भारी भरकम चढ़ावे का होता है। इसके चलते उनके लिए ऑनलाइन बुकिंग की मार्फत दर्शन का समय स्लॉट चुनने वगैरह की व्यवस्था भी होती है

प्रतीकात्मक तस्वीर
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कृष्ण प्रताप सिंह

डॉ. सावित्री सिन्हा द्वारा संपादित और राधाकृष्ण प्रकाशन द्वारा 1967 में प्रकाशित पुस्तक ‘दिनकर’ में मन्मथनाथ गुप्त ने ‘दिनकर: जीवनी और व्यक्तित्व’ शीर्षक निबंध में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ से जुड़े 1949 के एक अद्भुत प्रसंग का जिक्र किया है:

एक दिन दिनकर बाल-बच्चों के साथ देवघर स्थित बैद्यनाथ धाम में जल चढ़ाने गए। देखा कि वहां मिथिलांचल से आई ग्रामीण स्त्रियां जल चढ़ाने की प्रतीक्षा में जाड़े से थर-थर कांप रही हैं, और अपने यजमान की पूजा करवा रहा एक पंडा उन्हें बरबस रोके हुए है। यजमान सेठ था, यानी गांठ का पूरा। पंडा का कहना था कि जब तक वह पूजा समाप्त नहीं कर लेता, कोई जल नहीं चढ़ाएगा।

यह देख दिनकर आपा खो बैठे। पंडा से बहस करने लगे कि भगवान के दरबार में भी अमीर-गरीब या स्त्री-पुरुष का भेदभाव कैसे हो सकता है। फिर भी पंडा महिलाओं को सेठ से पहले जल चढ़ाने देने को राजी नहीं हुआ तो उनके क्रोध का पारावार नहीं रह गया।

उन्होंने भगवान शंकर को संबोधित करते हुए कहा, ‘हे महादेव! लोग मुझे क्रांतिकारी कवि कहते हैं और मैं देख रहा हूं कि आप अमुक पंडा के गुलाम हो गए हैं। ऐसे में अगर मैं जल चढ़ाऊं तो इसमें मेरे प्रशंसकों का अपमान है।’ इतना कहकर उन्होंने गंगाजल से भरी सुराही उनके माथे पर दे मारी और क्रोध के मारे मंदिर के बाहर निकल कर मार-पीट की तैयारी करने लगे।

 यह प्रसंग इधर याद आया, जब अपने को महाकवि मानने वाले मेरे एक मित्र नया-नया बना राम मंदिर देखने और रामलला के दर्शन-पूजन के लिए सैकड़ों किलोमीटर दूर से सपरिवार अयोध्या आए। इस आश्वासन के बावजूद कि अब मंदिर में श्रद्धालुओं की पहले जैसी भीड़ नहीं उमड़ती और थोड़ा इंतजार करके सामान्य श्रद्धालुओं की तरह भी सुभीते से दर्शन-पूजन कर सकते हैं, उन्हें तब तक चैन नहीं आया, जब तक जमीन आसमान एक कर वीआईपी दर्शन का जुगाड़ नहीं कर लिया।

उनके पास इसके तर्क भी थे: एक तो साथ में वृद्ध माता-पिता सहित इतना बड़ा परिवार है, जो लाइन में धक्के खाने का अभ्यस्त नहीं है। दूसरे, वीआईपी गेट से प्रवेश करने पर दर्शन कराने वालों के व्यवहार में रुखाई नहीं होती और रामलला का दर्शन ज्यादा नजदीक से होता है।


बहरहाल, ‘कृतकृत्य’ होकर निकले तो आह्लादित थे। बोले, ‘बहुत अच्छे से हुआ दर्शन। माता-पिता भी बहुत खुश, पत्नी-बच्चे भी।...तुम कह रहे थे कि सामान्य श्रद्धालुओं की तरह भी सुभीते से दर्शन हो सकता है, लेकिन मैंने देखा, जो हालत थी, उसमें लाइन में खड़े-खड़े पैर दुखने लग जाते हम सबके।’

लेकिन मैं उनकी बातें कम सुन रहा था और उनके महाकवि व्यक्तित्व की ‘महानता’ से चकित ज्यादा था। दिनकर के विपरीत उनके मन में, उन्हीं के शब्दों में कहें तो लंबी लाइन में धक्के खाने के बावजूद दूर से रामलला का दर्शन करने को अभिशप्त सामान्य जन को लेकर कतई कोई भाव नहीं था।

मैं समझ नहीं पा रहा था कि कोई ‘महानता’ इतनी निर्दयी क्योंकर हो सकती है कि अपने आराध्य के पास जाते हुए भी ‘आप-आप ही चरे’ की पशु प्रवृत्ति से मुक्त न हो पाए और ‘हमीं-हम’ की फांस में उलझी रहे?

बात को देर तक नहीं समझ पाया तो अपनी उलझन लेकर एक अन्य मित्र के पास गया। उन्होंने पलटकर पूछ लिया कि तुम्हें इस बात पर इतना अचरज क्यों हो रहा है? फिर बताया कि अब धर्मस्थलों में वीआईपी दर्शन आम रिवाज है। इनके कर्ता-धर्ताओं के पास इसके पक्ष में तर्क हैं। अलबत्ता, इस प्रश्न का जवाब किसी के पास नहीं है या देना नहीं चाहता कि क्या इससे आराध्य के समक्ष सारे भक्तों की बराबरी की मान्यता प्रभावित नहीं होती और छोटे-बड़े की भावना को प्रश्रय नहीं मिलता?

मुझसे अकस्मात कुछ कहते नहीं बना और चुपचाप मित्र का मुंह ही देखता रह गया, तो बोले: वह बेचारा कवि है तो इस बहाने तुम उसकी ‘महानता’ के पीछे पड़ गए हो। लेकिन वह तो न तीन में है, न तेरह में। मुझे याद आया, अयोध्या के पंडे और तीर्थपुरोहित उन भक्तों में एकदम रुचि नहीं लेते जो उनको कुछ खास नहीं देते या सूखे-सूखे चरण छूकर आशीर्वाद लेना भर जानते हैं!


तभी मित्र ने पूछा-आंखें कुछ खुलीं या नहीं? खुली हों तो यह जानकर उनको थोड़ा और खोल लो कि विभिन्न मंदिरों में वीआईपी दर्शन के लिए वसूले जाने वाले शुल्क में भी एकरूपता नहीं है। हर मंदिर में इसके लिए अलग-अलग शुल्क है।  वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में वीआईपी दर्शन का प्रति व्यक्ति शुल्क 500 रुपये है, जबकि हिमाचल प्रदेश स्थित माता चिंतपूर्णी मंदिर में ‘सुगम दर्शन प्रणाली’ के तहत 1100 रुपये की पर्ची कटाकर पांच श्रद्धालु वीआईपी दर्शन कर सकते हैं। ज्यादा भीड़भाड़ वाले दिनों में इसके लिए 500 रुपये की एक और पर्ची कटानी पड़ती है।

लेकिन वीआईपी दर्शन करने वालों द्वारा दिए जाने वाले शुल्क से कहीं ज्यादा बड़ा आकर्षण उनके भारी भरकम चढ़ावे का होता है।

 इसके चलते उनके लिए ऑनलाइन बुकिंग की मार्फत दर्शन का समय स्लॉट चुनने वगैरह की व्यवस्था भी होती है।

मित्र चुप हुए तो मैंने सोचा-इस लिहाज से तो अयोध्या में अभी बहुत गनीमत है कि उसके भव्य राम मंदिर में वीआईपी दर्शन के लिए कोई धनराशि नहीं ली जाती। लेकिन मित्र ने कहा कि इसे लेकर भी बहुत खुश होने की जरूरत नहीं है। यहां भी वीआईपी दर्शन के बहाने भक्तों से धोखाधड़ी और धन उगाही कर फर्जी पास पकड़ा दिए जाने तक की खबरें पुरानी पड़ चुकी हैं।

 कोई नौ महीने पहले एक प्राइवेट गाइड के साथ दर्शन करने राम मंदिर पहुंचे पंजाब के एक श्रद्धालु दंपति का वीआईपी पास फर्जी पाया गया। पुलिस ने आगे जांच की तो पता चला कि किसी गिरोह ने उससे चार हजार रुपये ठगकर यह पास उपलब्ध कराया था। दंपति ने नगर कोतवाली में एक महिला समेत तीन के खिलाफ रिपोर्ट भी दर्ज कराई थी।

लेकिन यह इस तरह की इकलौती घटना नहीं थी। मार्च 2024 में वीआईपी दर्शन के नाम पर दूसरी तरह की अवैध वसूली का खुलासा हुआ था, जिसमें सिपाही तक शामिल थे। एक सिपाही गिरफ्तार और निलंबित भी हुआ था।

लेकिन कई सामाजिक कार्यकर्ताओं के अनुसार अयोध्या में इससे कहीं बड़ी समस्या यह है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ स्वयं राम मंदिर में वीआईपी कल्चर के संरक्षक बने हुए हैं। प्रधानमंत्री द्वारा इस मंदिर के निर्माण के लिए किया गया भूमिपूजन रहा हो, उसमें रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा या धर्म ध्वजा का आरोहण, इन सभी में अयोध्यावासियों और श्रद्धालुओं की कीमत पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार के ‘विशिष्टों’ का ही वर्चस्व रहा है। जब भी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री अयोध्या आते हैं, आम अयोध्यावासियों और श्रद्धालुओं को तमाम बंदिशें और परेशानियां झेलनी पड़ती हैं।

स्थानीय शहीद शोध संस्थान के निदेशक और सामाजिक कार्यकर्ता सूर्यकांत पांडे कहते हैं कि यह इसलिए भी अप्रिय लगता है कि यही प्रधानमंत्री कभी वीआईपी संस्कृति के उन्मूलन का दम भरा करते थे। 30 अप्रैल, 2017  की ‘मन की बात’ में उन्होंने कहा था कि अब वीआईपी की जगह ईपीआई (एवरी पर्सन इज इंपोर्टेंट) चलेगा। लेकिन बाद में उनका यह कथन उनके तमाम झूठे दावों की एक कड़ी भर सिद्ध हुआ। लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने पूछा कि राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा में कोई गरीब, मजदूर या किसान क्यों नहीं दिखा. तो इसका जवाब उन पर व्यक्तिगत हमले के रूप में सामने आया।

लेकिन यह सवाल अब तक अनुत्तरित है कि अपना सारा अहं विसर्जित करके आराध्य के समीप जाने की भक्तों की पुरानी परंपरा के विपरीत वीआईपी कल्चर के भक्त अपनी पूरी ठसक के साथ वहां जाकर और धर्म और राज सत्ताएं उनके लिए पलक पांवड़े बिछाकर क्या सिद्ध करना चाहती हैं? क्या उन्हें गुमान है कि इस तरह वे पुराने ‘तू दयालु दीन हौं’ वाले आराधक-आराध्य संबंध को बदलकर रख देंगी?

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