कठघरे में एक जज, मुकदमा पूरी व्यवस्था पर
क्या वास्तविक न्यायिक सुधार की शुरुआत करेगा न्यायाधीश यशवंत वर्मा मामला या एक और पर्दा डालने वाला केस बनकर रह जाएगा? खतरा यह है कि ठीकरा एक जज पर फोड़कर गहरी संस्थागत बीमारी से आंख मूंद ली जाएगी।

दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायाधीश यशवंत वर्मा के मामले में असली खतरा यह नहीं है कि इसमें कुछ कार्रवाई नहीं होगी। इतने बड़े खुलासे के बाद और अब तक का सुप्रीम कोर्ट का रुख देखकर लगता है कि मामले में ठीक-ठाक जांच होगी। अगर जांच में कुछ निकला, तो सिर्फ ट्रांसफर जैसी बैंड-ऐड लगाने के बजाय, कुछ गंभीर कार्रवाई की उम्मीद भी है। असली खतरा यह है कि न्यायिक भ्रष्टाचार का ठीकरा एक जज पर फोड़कर इस गहरी संस्थागत बीमारी से आंख मूंद ली जाएगी। उससे भी बड़ा खतरा यह है कि एक जज के बहाने सभी अदालतों को बदनाम कर न्यायपालिका की बची-खुची स्वतंत्रता भी खत्म कर दी जाएगी। इलाज के नाम पर मरीज की हत्या हो जाएगी।
कोर्ट-कचहरी के कामकाज के जानकरों के लिए यह कोई नई बात नहीं थी। नया सिर्फ इतना था कि दैवीय प्रकोप के चलते अचानक बात कुछ इस तरह सार्वजनिक हो गई कि उसे छुपाना-दबाना नामुमकिन हो गया। नहीं तो नीचे से ऊपर तक अदालतों के गलियारों में भ्रष्टाचार की कहानियां हर रोज सुनने को मिलती हैं। संभव है कि यह कहानियां द्वेष से प्रेरित हों, पर सार्वजनिक सूचना के अभाव में इन अफवाहों को बल मिलता है।
जब प्रशांत भूषण ने 2022 में अपने विरुद्ध अदालत की अवमानना के मुकदमे में हलफनामा दाखिल कर सुप्रीम कोर्ट के आठ मुख्य न्यायाधीशों के खिलाफ भ्रष्टाचार के प्रमाण दिए थे, तो उन आरोपों की जांच करने के बजाय अदालत में मामले को दबा दिया गया। दुर्भाग्यवश जब-जब न्यायपालिका से जुड़े संवेदनशील मुद्दे उठते हैं, तब कुछ ऐसा ही होता है।
इस बार यही कहानी न दोहराई जाए, इसके लिए कम-से-कम चार बड़े मुद्दों पर गौर करना होगा जिन्हें कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल एकाउंटेबिलिटी एंड ज्यूडिशियल रिफॉर्म (यानी न्यायिक जवाबदेही और न्यायिक सुधार अभियान) पिछले दस साल से उठा रहा है। पहला मुद्दा तो सीधे इस नवीनतम केस से जुड़ा है — न्यायाधीशों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच और सुनवाई इस तरह से हो जिससे आमजन की न्यायपालिका में आस्था बनी रहे। इस नवीनतम मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पारदर्शिता का एक नमूना पेश किया है।
यह खबर सार्वजनिक होने के बाद सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने इस मामले से संबंधित सारे कागजात सार्वजनिक कर दिए, सिवाय कुछ नामों और सूचनाओं के जिनके सार्वजनिक होने से मामले की जांच में मुश्किल आ सकती थी। तीन हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों को जांच का काम सौंप दिया गया है। जांच पूरी होने तक न्यायाधीश वर्मा को कोई भी न्यायिक काम देने से रोक लगा दी गई है। उम्मीद है जांच की रिपोर्ट को भी सार्वजनिक कर दिया जाएगा। फैसला जो भी हो, किसी के मन में शक की गुंजाइश नहीं रहेगी।
सवाल यह है कि ऐसा हर गंभीर मामले में क्यों नहीं किया जा सकता? दुर्भाग्यवश पिछले अनेक वर्षों से इसका ठीक उल्टा हुआ है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई तो खुद अपने विरुद्ध यौन प्रताड़ना के मामले में इंसाफ करने बैठ गए थे। बाद में जब जांच समिति बनी भी, तो उसकी रिपोर्ट तक शिकायतकर्ता को नहीं दी गई। अधिकांश मामलों में तो पता ही नहीं चलता कि कोई जांच हुई भी या नहीं, हुई तो क्या नतीजा निकला। इससे यही संदेह गहरा होता है कि मामलों को रफा-दफा कर दिया जाता है। इसलिए यह नियम बनाना चाहिए कि हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के किसी भी न्यायाधीश के खिलाफ कोई भी व्यक्ति अगर अपना नाम और प्रमाण देकर कोई गंभीर आरोप लगाता है, तो कोर्ट की जिम्मेदारी बनती है कि उस पर इंटरनल समिति बनाए, आरोपों की जांच करे, उस पर लिखित फैसला दे और अपने फैसले को (पर्याप्त सावधानी सहित) सार्वजनिक करे।
दूसरा मुद्दा जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता का है। हमारे यहां जजों की नियुक्ति का अधिकार सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ जजों के कॉलेजियम ने अपने हाथ में ले रखा है। ऐसे में कोर्ट की जिम्मेदारी बनती है कि इस संवेदनशील फैसले के बारे में उंगली उठाने की गुंजाइश न बचे। लेकिन दुर्भाग्यवश कोर्ट द्वारा चुने गए जजों को लेकर अनेक सवाल उठे हैं। भाई-भतीजावाद और जातिवाद से लेकर लैंगिक पूर्वाग्रह और राजनीतिक दबाव तक के आरोप लगे हैं। संभव है कि अधिकांश आरोप निराधार हों लेकिन सार्वजनिक चर्चा में उनका खंडन करने का आधार नहीं मिलता।
इसलिए कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल एकाउंटेबिलिटी एंड ज्यूडिशियल रिफॉर्म ने मांग की है कि जहां तक हो सके, नियुक्ति से जुड़े सारे कागज सार्वजनिक कर दिए जाएं — किन नामों पर विचार हुआ, क्या आपत्तियां मिलीं और कॉलेजियम के फैसले का आधार क्या था? पिछले कुछ साल से केन्द्र सरकार अपनी मनमर्जी से कोर्ट द्वारा नियुक्ति की किसी सिफारिश को मान लेती है, किसी तो टाल देती है, किसी को खारिज कर देती है। इसकी मर्यादा बनाना भी जरूरी है।
तीसरा मुद्दा कोर्ट के रोस्टर की मर्यादा बांधने का है। न्यायपालिका के काम से वाकिफ हर कोई व्यक्ति जानता है कि केस का फैसला बहुत हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि वह केस किन जजों की बेंच के सामने लगेगा और कब। और यह फैसला पूरी तरह से मुख्य न्यायाधीश के हाथ में है, चूंकि वह ‘मास्टर ऑफ रोस्टर’ हैं। मतलब यह कि मुख्य न्यायाधीश किसी भी केस के भाग्य विधाता हैं — केस कितने साल तक लटकेगा, कब लगेगा, किस रुझान वाले जज या बेंच के सामने लगेगा, सब कुछ।
इस अधिकार के दुरुपयोग की शिकायत बहुत आम है, खासतौर पर उन मामलों में जिनमें सरकार, बड़े राजनेता या बड़े बिजनेस का स्वार्थ जुड़ा हो। दिल्ली दंगों से जुड़े मामलों में सालों तक जमानत की अर्जी पर फैसला नहीं हुआ है। कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल एकाउंटेबिलिटी एंड ज्यूडिशियल रिफॉर्म ने मांग की है कि यह शक्ति केवल मुख्य न्यायाधीश की बजाय वरिष्ठ न्यायाधीशों के कॉलेजियम को दी जाए, कौन जज किस विषय से जुड़े मामले सुनेंगे, यह पहले से तय हो, फिर बेंच का आवंटन लाटरी से हो, हर केस समय से लगे और जल्दी सुनवाई की अर्जी का खुले कोर्ट में फैसला हो।
चौथा और अंतिम मुद्दा जजों की संपत्ति की जानकारी सार्वजनिक करने का है। विडंबना यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने सभी राजनेताओं के लिए अपने नामांकन पत्र में अपनी आय और संपत्ति की घोषणा करना अनिवार्य बनाया। अब यह घोषणा सरकारी अफसरों के लिए भी अनिवार्य हो गई है। लेकिन यह बंदिश सुप्रीम और हाईकोर्ट के जजों पर लागू नहीं होती। जाहिर है, इसे बदलना होगा। बाकी सब के लिए मर्यादा लागू करने वाली न्यायपालिका को खुद मर्यादा के सर्वोच्च प्रतिमान बनाने होंगे।
साभारः नवोदय टाइम्स
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia