अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस : सबके पास साझा करने को होती है कोई न कोई कहानी

मुझे अच्छा नहीं लगता जब एक कलाकार के रूप में नहीं बल्कि एक महिला कलाकार या निर्देशक के तौर पर मुझे देखा जाता है। मेरे से ऐसे सवाल भी पूछे जाते हैं कि मैं कंपनी में अपना काम कैसे निभा पाती हूं, खास तौर पर तब जब मुझे पुरुष सहयोगियों से भी काम लेना होता है।

सांकेतिक तस्वीर
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संपूर्णा चटर्जी

Considerthefemalebodyyourmost
Basictextanddontforgetitsslokas 

We have wrung poems from household tasks

Carrying water, child, sorrow, can you do so much?

My worst fear is Sankara had I indeed been you

I might not after all have conceived anything new.

- 'जेंडरोल', रुक्मिणी भाया नायर

 अमेरिका के नारी मुक्ति आंदोलन से अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च) को जन्म लिए अभी एक सदी से कुछ ही ज्यादा समय हुआ है। इस दिन का उद्देश्य महिला अधिकारों का जश्न मनाना और महिलाओं की उपलब्धियों का सम्मान करना है। महिला रचनाकारों के लिए जद्दोजहद से हासिल इस हकूक और एड़ी-चोटी का जोर लगाकर पाई कामयाबी को आकार देने के मामले में लिंग, समुदाय, परंपरा की क्या भूमिका होती है? यह सवाल अपनी ओर खींचता है। एक युवा लेखिका के तौर पर किसी भी तरह के लेबल के चस्पां होने से खुद को बचाने की कोशिश किया करती थी। मुझे याद है कि रुक्मिणी भाया नायर की इस कविता से मैं कितनी प्रभावित हुई थी जिसमें संस्कृत श्लोकों के शिलालेख की नकल करने वाली रन-ऑन पंक्तियां मुझे पढ़ने का एक नया तरीका बता रही थीं। उन्हें पढ़ते हुए दिमाग को बीच-बीच में खाली जगह डालकर शब्दों को पहचानना पड़ रहा था। बहुत पुराने और एकदम नए को एक साथ देखने पर कैसा महसूस होता है, मेरे लिए ये रन-ऑन लाइन उसका उदाहरण थीं। इन्हीं लाइनों ने मेरे सामने उन तीन सवालों को ला खड़ा किया जिन्हें मैंने चार कलाकारों से पूछा।

(संपूर्णा चटर्जी, कवि, संपादक, अनमैपेबल मूव्स की लेखिका)

सबके पास साझा करने को होती है कोई न कोई कहानी - अनुरूपा राय

सवाल नंबर -1 : वह ‘जेंडरोल’ क्या है जिसका आप अपनी रचना के जरिये विरोध करती हैं या फिर जिसे पुन:परिभाषित/पुनःजीवित करती हैं?

जिस ‘जेंडरोल’ का मैं विरोध करती हूं, वह है एक महिला के रूप में देखा और पहचाना जाना। मुझे अच्छा नहीं लगता जब एक कलाकार के रूप में नहीं बल्कि एक महिला कलाकार या महिला निर्देशक के तौर पर मुझे देखा जाता है। यह एक ऐसा मामला है जिसे मैं बदलना चाहूंगी। मेरे से ऐसे सवाल भी पूछे जाते हैं कि मैं कंपनी में अपना काम कैसे निभा पाती हूं, खास तौर पर तब जब मुझे पुरुष सहयोगियों से भी काम लेना होता है। मैं इसे भी फिर से परिभाषित करना चाहती हूं। जब मैं एक निर्देशक होती हूं तो अपने काम को एक निर्देशक के तौर पर देखती हूं। जब हम महिलाएं स्टेज पर निर्देशन कर रही होती हैं तो हम खुद को कई तरह से संबोधित करती हैं- निर्माता, सहयोगी, सूत्रधार। जब मैं कहती हूं कि मैं एक निर्देशक हूं, कठपुतली थियेटर की डिजाइनर हूं, तो बहुत स्पष्ट और मुखर तरीके से और बिल्कुल सोच-समझकर बोलती हूं। मैं कठपुतलियों के साथ प्रदर्शन करती हूं और कठपुतलियों को तैयार भी करती हूं। लेकिन मैं मुख्यत: एक निर्देशक हूं। मैं चाहती हूं कि भविष्य में और महिलाएं ऐसा करने में सहज महसूस करें। मुझे लगता है कि कठपुतली थियेटर की भारत में एक बहुत ही अनोखी जगह है। यह या तो बहुत पारंपरिक है या यह पश्चिमी प्रभाव वाला एकदम नया रूप है। मैं यह देखने की कोशिश कर रही हूं कि इनके बीच में कैसी जगह है। मैं एक और बात जोड़ना चाहूंगी कि यह नई पौध तैयार करने की भी जगह है। कई वर्षों तक जब मैं लोगों को तैयार कर रही थी, तो कई बार एक मेंटर के रूप में मैं खुद को अपरिचित महसूस करती थी। लेकिन अब मुझे यह कहते हुए अधिक आत्मविश्वास महसूस होता है कि मैं एक मेंटर हूं। मैं एक ऐसी जगह बनाने में मदद कर रही हूं जहां से दूसरे कठपुतली कलाकार अपनी आगे की यात्रा कर सकें।

सवाल नंबर -2 : आपकी रचना को आकार देने में मदद या मुश्किलें खड़ी करने में समुदाय की क्या भूमिका पाती हैं?

समुदाय मेरे द्वारा किए जाने वाले कार्य का एक बहुत बड़ा पहलू है। न सिर्फ मेरी कंपनी बल्कि देश-विदेश में होने वाले कठपुतली प्रदर्शनों के लिए सबसे पहले आता है कठपुतली समुदाय। इनसे संवाद बनाए रखना, उनसे पूछना कि ‘सच्चा सहयोग क्या हो सकता है’- यह समुदाय का एक पहलू है। दूसरा पहलू है स्थान। मेरी कंपनी ‘कटकथा पपेट आर्ट’ दिल्ली के बाहर बदरपुर नाम के इलाके में पड़ने वाले जैतपुर गांव में है। यह अर्ध-ग्रामीण, अर्ध-शहरी इलाका है जो शहरों के विस्तार की प्रक्रिया में एक सामान्य सी बात है। जब शहर अपनी बाहें फैलाता है तो आसपास के इलाकों को अपने आगोश में ले लेता है जो मूलत: ग्रामीण होते हैं। हम जो करते हैं, उसके लिए बदरपुर का समुदाय बहुत महत्वपूर्ण है। हम न केवल वहां बाहर से आने वाले लोग हैं बल्कि उनके साथ मिलकर अभ्यास करते हैं और वहां से वापस आने के बाद भी वहां जो हो रहा है, उसके लिए अपने खिड़की-दरवाजे खोलकर रखते हैं। कहने का मतलब यह है कि पिछले आठ वर्षों में हमने वहां एक सामुदायिक थिएटर बनाया है जहां कम-से-कम हर रविवार को बच्चे नाटक देखते हैं, किताबें उधार लेते हैं, कार्यशालाएं लगाते हैं। वे अपना खुद का थिएटर प्रोडक्शंस बनाते हैं और यह हमारे काम के लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि ये बच्चे ही हैं जो यह बताने का सबसे बेहतर जरिया होते हैं कि हम एक समुदाय के लिए कैसी रचना तैयार कर रहे हैं। इसका एक परिणाम यह भी होता है कि समुदाय हमें बाहरी नहीं समझता। तीसरी बात यह है कि हम जिस मोहल्ले में रहते हैं, वहां आसपास के लोगों से लगातार बातचीत होती रहती है। हम जानते हैं कि वहां क्या चल रहा है, कौन क्या सोच रहा है। चौथी बात यह है कि हमें अक्सर उन समुदायों में काम करने के लिए बुलाया जाता है जो दिल्ली या हमारे पड़ोस में नहीं हैं। हमने 20 वर्षों में यह किया है– लोगों के ऐसे समूह में जाना जिन्हें एक समुदाय के रूप में पहचाना जा सकता है, उनके साथ हम स्कूल या क्लब, संघ या गैरसरकारी संगठन के रूप में काम करते हैं। समुदाय के साथ विभिन्न स्तरों पर जो यह रिश्ता हम कायम करते हैं, वह बहुत महत्वपूर्ण है  और एकमात्र मानदंड यह है कि समुदाय की कहानियों को कठपुतलियों के माध्यम से बताएं। मुझे लगता है कि हर किसी के पास दुनिया के साथ साझा करने के लिए एक महत्वपूर्ण कहानी होती है।


सवाल नंबर -3 : परंपराओं को तोड़ते/पुन:परिभाषित करते हुए भी क्या आप खुद को किसी परंपरा से जुड़ा पाती हैं?

मेरे मामले में, परंपरा और पारंपरिक कठपुतली थियेटर अपने आप में बहुत पेचीदा रहा है। शुरू में मैं इसके बारे में बहुत कम जानती थी। फिर मैंने इसके बारे में गहराई से जाना और तब इससे लगाव हो गया। कठपुतली का खेल दिखाने वालों के साथ मिलकर प्रैक्टिस करती रही और अब जो बात मुझे बेहद आकर्षित करती है, वह यह है कि मैं एक कठपुतली कलाकार हूं, बावजूद इसके कि पारंपरिक रूप से मैं इस विधा से नहीं जुड़ी हुई हूं। मुझे लगता है कि मैं समाज में कठपुतली चलाने वाले की भूमिका को समझने लगी हूं। दर्शकों के नजरिये से हम समकालीन कठपुतली कलाकार धर्मनिरपेक्ष हैं। हम अनुष्ठान समारोह नहीं करते, मंदिरों में प्रदर्शन नहीं करते लेकिन जैसे ही हम कठपुतली थियेटर में प्रदर्शन शुरू करते हैं, हम अपना स्वयं का एक अलग ही अनुष्ठान कर रहे होते हैं, भले ही वे धार्मिक अनुष्ठान न हों। हम ‘निर्जीव वस्तु’ के जरिये दर्शकों के साथ एक तरह का रिश्ता बनाते हैं। जैसे ही हम उस निर्जीव वस्तु में हरकत लाते हैं, ऐसा लगता है जैसे हम उस शो के दौरान उस निर्जीव में प्राण फूंक रहे हों। यह बहुत खास है। इस खेल और इसके दौरान वहां बने माहौल को देखें तो साफ महसूस होगा कि यह केवल शो नहीं। इंसानी कलाकारों के साथ होने वाले नाटक के मंचन में भी ऐसा ही होता है। परंपरागत रूप से दोनों जुड़े हुए हैं। इस तरह के प्रदर्शन बड़े प्रभावशाली होते हैं। मुझे लगता है कि दोनों बहुत गहराई से जुड़े हुए हैं। दर्शकों और कलाकार के बीच रिश्ता केवल मनोरंजन और कल्पना की डोर से बंधे होने का नहीं होता, वहां बहुत कुछ और भी होने लगता है। मेरी परंपरा के मनोविज्ञान, इसके आभामंडल, अनास्था का त्याग और इसके उपचारात्मक पहलुओं में खासी दिलचस्पी है।

(अनुरुपा रॉय कठपुतली थियेटर निर्देशक, डिजाइनर और कलाकार हैं। वह ‘कटकथा पपेट आर्ट्स ट्रस्ट’ की संस्थापक और प्रबंध न्यासी हैं)

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