आकार पटेल का लेख: एक जज, एक मर्डर मिस्ट्री और हमारी न्याय व्यवस्था की खुलती पोल

पानवाला वकीलों ने अपने उपन्यास की शुरुआत एक ऐसे न्यायाधीश के इर्द-गिर्द की है और वहीं से आगे बढ़ाई है जो सामान्य कानून के रूप में प्रचलित कानून को एक सिद्धांत के तौर विकसित कर उसे खारिज कर देता है और मामलों में मनमर्जी फैसले देना शुरू कर देता है।

एक जज, एक मर्डर मिस्ट्री और हमाली न्याय व्यवस्था की खुलती पोल
एक जज, एक मर्डर मिस्ट्री और हमाली न्याय व्यवस्था की खुलती पोल
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आकार पटेल

इस महीने मेरा एक उपन्यास आया है, और एक कार्यक्रम भी हुआ, जिसमें सांसारिक दुनिया से जुड़ने में कथा लेखन की भूमिका पर चर्चा हुई। सूरत में राहुल गांधी के मामले की जिस वकील ने पैरवी की थी, उसका भी एक उपन्यास आया है जिसका शीर्षक है 'संदेह का सिद्धांत'। किरीट पानवाला और रोहन पानवाला (इन्होंने मेरे केस की भी सूरत में पैरवी की थी, जो उसी विधायक ने दायर किया था) ने अपने उपन्यास में एक वकील के तौर पर आरोपियों के पक्ष की पैरवी करने पर अपने अनुभवों को इस्तेमाल किया है। इस किताब का केंद्रीय विचार एक साथ हुई हत्या के रहस्य से जुड़ा है, और लेखकों का कहना है कि उन्होंने इस किताब को लिखने में वास्तविक घटनाओं से प्रेरणा ली है।

उनका उपन्यास इस मायने में अनोखा है क्योंकि भारत में बहुत कम पेशेवर लोग किताबें लिखते हैं, और अपने पेशे के इर्दगिर्द उपन्यास लिखना तो बहुत ही दुर्लभ बात है। मेरी किताबों की अलमारी में पाकिस्तान के दो चीफ जस्टिस की आत्मकथा हैं, एक है एम सी छागला की ‘रोज़ेज़ इन दिसंबर’ और एक है एम सी सीतलवाड के संस्मरण, लेकिन इनमें उनके कानूनी पेशे से जुड़ा बहुत अधिक नहीं लिखा गया है।

ऐसे में हमें उन लेखकों का कृतज्ञ होना चाहिए जिन्होंने अपने मर्डर मिस्ट्री वाले उपन्यास का तानाबाना पुलिस के कामकाज, न्यायपालिका को लेकर सरकार की भूमिका, वकीलों का आचरण और पूछताथ (इंटेरोगेशन) आदि के आधार पर बुना है। इन सब कारणों से यह उपन्यास पढ़ने योग्य है।

लेकिन मैं इस मर्डर मिस्ट्री के इतर एक और पहलू पर चर्चा करना चाहता था, जिसे पानवाला वकीलों ने उठाया है और वह है न्यायशास्त्र और नवाचार के संबंध में। उन्होंने अपने उपन्यास की एक ऐसे न्यायाधीश के इर्द-गिर्द शुरूआत की है और वहीं से आगे बढ़ाई है जो सामान्य कानून के रूप में प्रचलित कानून को एक सिद्धांत के तौर विकसित कर उसे खारिज कर देता है और मामलों में मनमर्जी फैसले देना शुरू कर देता है। संक्षेप में कहें तो उसका सिद्धांत संदेह को अपराध के समान मान लेता है और फिर इसी 'अपराध' के ही आधार पर वह आरोपी को सजा दे देता है। कई मायनों में यह प्रवृत्ति वर्तमान समय में हमारे देश के बड़े हिस्से के दृष्टिकोण को सामने रखती है।


आधुनिक आपराधिक न्याय प्रणाली अभियुक्तों के अधिकारों के इर्द-गिर्द बनाई गई है क्योंकि आपराधिक मामले में शक्ति अत्यधिक रूप से सरकार के पास होती है। सरकार का पुलिस पर नियंत्रण होता है, न्यायाधीशों की नियुक्ति और तबादलों में उसका एकाधिकार होता है, वह अभियोजन चलाती है और कारावास की सजा देती है। इसकी तुलना में आरोपी के पास बहुत कम अधिकार या विकल्प होते हैं और इसी कारण से लोकतंत्र अपनी न्याय प्रणाली का निर्माण उन लोगों के अधिकारों के इर्द-गिर्द करता है जिनके पीछे सरकार पड़ती है।

इससे उन लोगों को हैरानी होगी, संभवतः अधिकांश आबादी को, जो सोचती है कि इसे सरकार को बुरे लोगों को सजा देने की क्षमता पर केंद्रित होना चाहिए। ऐसी सोच उन लोगों में भी आम है जो सरकार का हिस्सा हैं या पहले रहे हैं। 2007 में, सार्वजनिक व्यवस्था पर प्रशासनिक सुधार आयोग की पांचवीं रिपोर्ट पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के इस उद्धरण के साथ शुरू होती है, जिसमें उन्होंने कहा था कि, "यदि हमारे समाज में वास्तविक अपराधियों को विभिन्न कारणों से आपराधिक न्याय में देरी के कारण वर्षों तक सजा के बिना छोड़ दिया जाता है, तो इसका परिणाम वास्तव में आपराधिक कृत्यों को अपनाने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि होगी।"

यह रवैया, यह मानसिकता ही वह कारण है कि स्वतंत्र भारत ने प्रतिवादियों के खिलाफ सरकार को अधिक शक्ति देने के लिए कानूनों को सख्त कर दिया है, और औपनिवेशिक युग के कानूनों को या तो पूर्ववत रहने दिया है या उन्हें और भी कठोर बना दिया है।

जलियांवाला बाग में नरसंहार उस जनसभा के बाद हुआ, जिसने रोलेट एक्ट का विरोध किया था, जिसने सरकार को बिना मुकदमे के हिरासत में लेने की व्यापक शक्तियां दी थीं। बहुत कम लोग जानते होंगे कि यह कानून कभी लागू नहीं किया गया था और वास्तव में इसे रद्द कर दिया गया था। लेकिन आज भारत के हर राज्य में रोलेट एक्ट से भी बदतर कानून हैं और लोगों को बिना किसी मुकदमे के और यहां तक कि बिना अपराध के जेल में डाल दिया जाता है, उन कानूनों के तहत जो सिर्फ एहतियाती हिरासत की अनुमति देते हैं।

क्या इस कठोरता या यह सख्त रवैया अपराध रोकने में कारगर साबित हुआ है? केंद्र सरकार द्वारा पेश किए गए आंकड़े कहते हैं, नहीं। 1961 में आईपीसी मामलों में सजा की दर 64.8% थी। 2005 में 42.4 फीसदी। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि हत्या के मामलों में दोषी ठहराए जाने का औसत 43 फीसदी है। बलात्कार के मामलों में यह 32 फीसदी, अपहरण में 26 फीसदी, किसी को चोट पहुंचाने, एसिड अटैक सहित 29 फीसदी और दंगा भड़काने और उसमें हिस्सा लेने के लिए 20 फीसदी है। दरअसल कठोर कानून कभी भी उन नतीजों को नहीं दे पाए जिनका जिक्र पूर्व राष्ट्रपति कलाम ने किया था।


जो लोग बरी हो गए हैं, उनके पास अलग ही कहानी है बताने के लिए। आपराधिक कानून किसी के जीवन को बरबाद कर सकते हैं, इसीलिए इनका इस्तेमाल, इसकी परख और इस पर आधारित कार्रवाइयां बहुत सोचसमझकर की जानी चाहिए न कि मनमाने तरीके से, जैसा कि दुर्भाग्य से हमारे देश में होता है। जज और उसके परिवार के बारे में पानवालों की कहानी पढ़ते समय किसी के भी मन में यही विचार आते हैं। उनका जज काल्पनिक है लेकिन जब दुष्ट होने की बात आती है तो उसके पास वास्तविक जीवन में समानताएं होती हैं। जब आप पानवाला की कहानी पढ़ेंगे तो आपके दिमाग में जज और उसके परिवार के बारे में ऐसे ही विचार आएंगे। उपन्यास में तो जज एक काल्पनिक पात्र भर है, लेकिन असली जिंदगी में उस जैसे लोग भरे पड़े हैं।

एक मिसाल के तौर पर इस बात को जानते हैं कि निचली अदालतों में कितने न्यायाधीश गिरफ्तारी और राजद्रोह जैसे आरोपों के आवेदन के मामले में फैसले और सुप्रीम कोर्ट के स्पष्ट निर्देशों को पलट देते हैं, जबकि हिंसा के लिए कोई आह्वान या उकसावा नहीं होता है। इसी हकीकत को उकेरता हुआ यह उपन्यास लिखा गया है। इस उपन्यास की मूल कहानी को बताए बिना मैं कहना चाहता हूं कि उपन्यास में जज को कई तरीकों से फटकार पड़ती है। इसीलिए इस किताब को पढ़ने में मुझे बहुत सुकून मिला है।

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