सिंघु बॉर्डर पर डटे किसानों की आंखों में कौंधता सवाल- इतनी हड़बड़ी क्यों, कहने-सुनने का वक्त क्यों नहीं दिया?

सिंघु बॉर्डर पर डटे किसानों की आंखों में एक भाव नजर आता है कि आखिर सरकार की सोच में वे कहां हैं, एक दरख्वास्त दिखता है कि आखिर कंधे पर हाथ रखकर हमारे अंदर झांककर देखने की कोशिश क्यों नहीं की जा रही, एक सवाल है कि आखिर सरकार नजरें चुरा क्यों रही है?

फोटोः विपिन
फोटोः विपिन
user

तसलीम खान

सड़क पर लंगर, सड़क पर बिस्तर, सड़क पर धरना, सड़क पर अस्पताल, सड़क पर सभा, सड़क पर भाषण... और इन सबके केंद्र में देश का अन्नदाता किसान...। इन शब्दों से जो तस्वीर उभरती है, वह है सिंघु बॉर्डर नाम की दिल्ली की दहलीज की। दहलीज इसलिए कि राजधानी के मुहाने पर हथियारबंद पहरेदार तैनात हैं क्योंकि मुनादी हो चुकी है कि कोई दाखिल नहीं हो सकता। इस दहलीज पर जमे किसानों को एक महीना से अधिक हो गया जब वे देश की राजधानी में आकर अपनी आवाज, अपनी बात केंद्र सरकार के कानों में डालना चाहते थे।

लेकिन देश का पेट भरने वाले इन मेहनतकशों की बात सुनना तो दूर, सरकार ने इस सर्दी के मौसम में उन पर ‘जल तोपें’ दाग दीं, आंसू गैस के गोले चला दिए और लाठियों से हमला कर दिया। मानो वे किसी दुश्मन मुल्क की फौज हों। लेकिन अपनी आवाज बुलंद कर राजधानी के मुहाने पर पहुंचे किसान डिगे नहीं और वहीं जम गए, और यह दिल्ली-हरियाणा के बीच का बॉर्डर ऐतिहासिक धरने में बदल गया।

आपको बताते चलें कि ये अच्छे-भले किसान विरोध कर क्यों रहे हैं। किसान उन कानूनों को वापस लिए जाने की जिद पर क्यों अड़े हैं, जिसे सरकार ऐतिहासिक बता रही है। सत्ता के कुछ चेहरे इन किसानों में कभी नक्सली तो कभी बगावती अक्स देख रहे हैं। आखिर इस विरोध की अंतरकथा और असली तस्वीर क्या है, यह समझने के लिए हमें उन किसानों के बीच जाना होगा जो आंखों में ढेरों सवालों के साथ देश की राजधानी की सीमा पर खड़े हैं।

चौतरफा टेंट ,तंबू, लंगर, कीर्तन, भाषण के बीच मौजूद इन लोगों में एक सुकून है। चेहरों पर मुस्कान है। सेवा भाव है। संकल्प है कि जो भी हो, अपना हक किसी को नहीं छीनने देंगे। इन किसानों में न तो कोई राजद्रोही दिखता है, न कोई नक्सली या माओवादी या फिर खालिस्तानी। इन्हीं नामों से तो सत्ता इन्हें पेश कर रही है! ऐसा दिखाया गया कि कुछ देशद्रोही किसी का मुखौटा पहनकर, किसी के बहकावे में आकर राजधानी की चौखट पर बैठ गए हैं और सरकार को बदनाम, परेशान कर रहे हैं। लेकिन सिंघु बॉर्डर इन उलाहनों से, इन शब्दों से बेपरवाह है। वह कानून की पेचीदगियों में नहीं जाता, बड़े-बड़े सुधारों का अर्थशास्त्र नहीं जानता। जानता है तो सिर्फ इतना कि उसके हक पर किसी ने बुरी नजर डाल दी है, और वह ऐसा नहीं होने देना चाहता।

दिल्ली की तरफ से सिंघु बॉर्डर पहुंचते ही दाईं तरफ गुरु तेगबहादुर मेमोरियल नजर आता है, और यहीं नजर आती है सुरक्षा बलों की कतारें...। यहां से कोई 200 मीटर दूर बड़े-बड़े बोल्डरों को जंजीरों से बांधकर राजधानी में दाखिले को रोक दिया गया है। इस करीब 200 मीटर के नो मेंस लैंड की बाईं तरफ के पेट्रोल पंप बंद हैं। मुख्य सड़क जो राष्ट्रीय राजमार्ग है, सूनी है। लेकिन बगल के रास्ते पर लोगों के आने-जाने का अनवरत सिलसिला बना हुआ है। यहीं एक छोटा-सा हाट भी है जिसमें तरह-तरह के सामान बिक रहे हैं, जैकेट, बैग्स , कपड़े आदि। इसी बाजार के बीच से आने-जाने वाले लोगों में जवान, बूढ़े, महिलाएं, बच्चे, किसान, गैर किसान, आम लोग...सब हैं।

कुछ कदम आगे बढ़ने पर नजर आते हैं कुछ शानदार घोड़े। पता चला कि यह निहंग सिखों और उत्साही सिख किसानों के घोड़े हैं, जिन्हें वे अपने साथ रखते हैं। एक से एक शानदार घोड़ा। यहीं नजदीक में ही लोगों को चाय-पानी भी दिया जा रहा है। हम आगे बढ़े थे कि दो नौजवान पिन्नियां बनाते दिख गए। पिन्नियां, यानी मेवा के बने लड्डू। वे बनाते जाते और लोगों में बांटते जाते। दोनों युवा दो दिन पहले ही मध्य प्रदेश के इंदौर से यहां आए हैं और सेवा में लगे हैं। करीब ही चाय बन रही है। लोग चाय पी रहे हैं, लड्डू खा रहे हैं। यहीं से किसानों के जमावड़े का एक सिलसिला शुरू होता है। लंगर लगा है और लोग खाना खा रहे हैं। कोई किसी से नहीं पूछता कौन हो, कहां से आए हो। बस सेवा की जा रही है।

यहीं से चंद कदम दोनों तरफ टेंट लगे हैं। क्या जवान, क्या बूढ़े जोश के साथ इस मैदान में जमे हैं। मंच पर वक्ता अपनी बात रख रहे हैं। इसी दौरान किनारों पर हमें मेडिकल कैंप दिखते हैं। काउंटर पर युवा जमे हैं, लोग आ रहे हैं, तकलीफें बताते हैं, उन्हें दवा दी जाती है। यहां मौजूद डॉ रनमनदीप सिंह गुरु रविदास अस्पताल से आए हैं। वह बताते हैं कि हर रोज 500-600 मरीज आते हैं, बुखार, सिरदर्द, गैस जैसी मामूली बीमारियों की दवा के लिए। दवाओं की सप्लाई अमृतसर और दूसरे शहरों से लगातार हो रही है। नजदीक ही एंबुलेंस भी खड़ी हैं, जिसमें हर किस्म के इमरजेंसी उपचार की व्यवस्था है।

नजदीक के कैंप में एक युवा ज्ञानी जी हमें मलेरकोटला और सिख-मुस्लिम भाईचारे के इतिहास के बारे में बताते हैं। साफ कहते हैं कि हम तो बात करने आए हैं लेकिन सरकार बात के बहाने टालमटोल पर ही आमादा है। आगे बढ़ने पर एक जगह काफी भीड़ नजर आती है, यहां नुक्कड़ नाटक की तर्ज पर ढोल आदि बजाकर मोदी सरकार और कृषि कानूनों के खिलाफ नारे लगाए जा रहे हैं।

दरअसल सिंघु बॉर्डर एक संगम बना हुआ है, जहां जमीनें खोने का दर्द, बात न सुने जाने का गुस्सा और भविष्य पर मंडराते खतरे के डर की त्रिवेणी नजर आती है। किसानों की आंखों में एक भाव नजर आता है कि आखिर सरकार की सोच में वे कहां हैं, एक दरख्वास्त है कि आखिर कंधे पर हाथ रखकर हमारे अंदर झांककर देखने की कोशिश क्यों नहीं की जा रही, एक सवाल है कि आखिर सरकार नजरें चुरा क्यों रही है?

किसानों के सवाल यह भी हैं कि आखिर ऐसी हड़बड़ी क्या थी कि कोरोना काल के काले बादलों की घटाटोप में ही क्यों सरकार को उन कानूनों को बनाने की जरूरत पड़ी जिसे वह ऐतिहासिक बता रही है। वे सीधे पूछ रहे हैं, जरा-सा धीरज क्यों नहीं रखा, पूछने-कहने का वक्त क्यों नहीं दिया, सबकुछ अचानक और असमय क्यों कर दिया?

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia