मोदी सरकार में प्राकृतिक संसाधनों की खुलेआम लूट, हिमालय के विनाश पर सभी कोर्ट-प्राधिकरण बने मूक दर्शक

पश्चिमी देशों में निष्पक्ष पत्रकार और पर्यावरणविद यह अध्ययन करते हैं कि उनके देश का पर्यावरण मंत्रालय किस तरह से देश के पर्यावरण को सुरक्षित कर रहा है, पर हमारे देश में यह अध्ययन होना चाहिए कि देश में पर्यावरण विनाश में पर्यावरण मंत्रालय की क्या भूमिका है?

फोटोः सोशल मीडिया
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महेन्द्र पांडे

केन्द्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने हिमालय के ऊपरी क्षेत्रों में सात बंद पड़ी पन-बिजली योजनाओं का काम चालू करने का निर्णय ले लिया है और इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय में एक एफिडेविट प्रस्तुत किया है। कॉरपोरेट घरानों को फायदा पहुंचाने की पर्यावरण मंत्रालय की ललक का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2013 में केदारनाथ के प्रलयंकारी बाढ़ के बाद से सर्वोच्च न्यायालय ने उस समय उपरी क्षेत्रों में निर्माणाधीन 24 पन-बिजली परियोजनाओं पर रोक लगा दी थी और यह रोक आज भी चल रही है। जिन 7 प्रोजेक्ट का काम फिर से शुरू करने का प्रस्ताव है, वे सभी उन 24 परियोजनाओं में शामिल हैं।

केदारनाथ की त्रासदी में सरकारी आंकड़ों के अनुसार 5000 से अधिक व्यक्तियों की मृत्यु हो गई थी, पर वास्तविक आंकड़े इससे बहुत अधिक थे। पर्यावरण वैज्ञानिक शुरू से ही पर्यावरण के सन्दर्भ में अतिसंवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र होने के कारण हिमालय के उपरी क्षेत्रों में पन-बिजली योजनाओं, इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं और बांध के निर्माण का विरोध कर रहे हैं, और यह विरोध केदारनाथ की त्रासदी के बाद और तेज हो गया है। दूसरी तरफ मोदी सरकार अपने कार्यकाल के आरंभ से ही देश के सभी पारिस्थितिकी तंत्र को महज आर्थिक सम्पदा मानकर उसका अंधाधुंध दोहन कर रही है, जबकि पर्यावरण मंत्रालय द्वारा नियुक्त अनेक कमेटी इस बारे में सरकार को आगाह करती रही हैं।

हिमालय क्षेत्रों में सरकारी विभागों द्वारा अनियोजित और अवैज्ञानिक विकास के असर लगातार देखे जा रहे हैं, पर पर्यावरण मंत्रालय इसके पर्यावरण की लगातार उपेक्षा कर रहा है और उसे जिसकी रक्षा करनी चाहिए उसी के विनाश में लगातार शामिल रहा है। ऋषिकेश और देहरादून के बीच एक सड़क पुल बाढ़ में 27 अगस्त को बह गया। जुलाई के बाद से हिमालय के क्षेत्रों में भारी बारिश, बादल के फटने, हिमस्खलन और भूस्खलन और चट्टानों के गिरने की खबरें करीब रोज ही आती रही हैं।

हिमालय पर हाईवे जैसे इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट का पर्यावरणविद लगातार विरोध करते रहे हैं, फिर भी सरकारें जनता को और न्यायालयों को गुमराह कर और जरूरत पड़े तो सरासर झूठ बोलकर भी, ऐसी परियोजनाएं पूरी करती रहीं। पर्यावरण मंत्रालय प्रकृति के विनाश में केवल शामिल ही नहीं रहा बल्कि अग्रणी भूमिका निभा रहा है। हिमस्खलन, भूस्खलन और चट्टानों के गिरने की घटनाएं सबसे अधिक हाईवे के किनारे ही होती हैं, क्योंकि इसके लिए चट्टानों को जकड़ने वाले पेड़ों को काट डाला जाता है और बड़े मशीनों और ब्लास्टिंग के बाद हाईवे के किनारे की चट्टानें कमजोर हो जाती हैं।


शीर्ष अदालत में प्रस्तुत पर्यावरण मंत्रालय के संयुक्त सचिव सुजीत कुमार बाजपेयी के हस्ताक्षर वाले एफिडेविट में कहा गया है कि हिमालय के उपरी क्षेत्र में 50 प्रतिशत से अधिक निर्माण कार्य पूरा करने वाली 7 परियोजनाओं को काम फिर से शुरू करने की अनुमति प्रदान कर दी जाए। इसके लिए ऊर्जा मंत्रालय और जलशक्ति मंत्रालय के साथ ही उत्तराखंड सरकार ने भी सहमति दे दी है।

इन सात परियोजनाओं के नाम हैं– अलकनंदा नदी पर स्थित 444 मेगावाट क्षमता का विष्णुगद पीपलकोटी परियोजना, धौलीगंगा नदी पर 520 मेगावाट क्षमता की तपोवन विष्णुगद परियोजना मंदाकिनी नदी पर स्थित 99 मेगावाट की सिंगोली भटवारी परियोजना और 76 मेगावाट की फाटा-बुयोंग परियोजना, भागीरथी नदी पर 1000 मेगावाट की टेहरी परियोजना, मध्यमहेश्वर गंगा पर स्थित 15 मेगावाट की मध्यमहेश्वर परियोजना और कालीगंगा पर स्थित 4.5 मेगावाट की कालीगंगा परियोजना।

सबसे चिंताजनक बात ये है कि इनमें से फरवरी 2021 में धौलीगंगा नदी पर स्थित 520 मेगावाट क्षमता की तपोवन विष्णुगद परियोजना की मीडिया में बहुत चर्चा थी क्योंकि इसकी निर्माणाधीन सुरंग में सैकड़ों मजदूर काम कर रहे थे, जो नदी में आई आकस्मिक बाढ़ में फंस गए और फिर मर गए या लापता हो गए। आश्चर्य यह है कि यह योजना भी इन सात परियोजनाओं में से एक है।

देश की समस्याओं से सरकार उदासीन है और इन समस्याओं को बढ़ाने में पत्रकारों का बहुत बड़ा योगदान है। आपदाएं आती हैं, सरकारे मुवावजा देकर अपना काम पूरा कर लेती हैं और पत्रकारों में कुछ दिनों की सुगबुगाहट होती है और फिर दूसरी आपदा पर खबरें आनी शुरू हो जाती हैं। शायद ही कोई पत्रकार पर्यावरण से संबंधित सरकारी नीति पर सवाल करता है या फिर किसी प्राकृतिक आपदा की फाइनल सरकारी रिपोर्ट की मांग करता है। 7 फरवरी 2021 को सुबह 10 बजे के आसपास उत्तराखंड के चमोली में ऋषिगंगा नदी में अचानक चट्टानों और पानी का सैलाब आया, कुल चार पन-बिजली परियोजनाओं को नुकसान पहुंचा, इनमें से दो पनबिजली परियोजनाएं पूरी तरह ध्वस्त हो गईं और इनमें काम करने वाले 200 से अधिक मजदूर लापता हो गए, या सुरंगों में फंस गए।


प्रसिद्ध वैज्ञानिक जर्नल साइंस में इस आपदा से संबंधित एक अध्ययन जुलाई 2021 में प्रकाशित किया गया था, जिसमें दुनिया के 50 से अधिक वैज्ञानिक शरीक हैं। इसमें भारत के वैज्ञानिक भी शामिल हैं। इस अध्ययन में पूरी आपदा को सिलसिलेवार तरीके से बताया गया है और इसके लिए हिमालय पर बड़ी विकास परियोजनाओं और तापमान वृद्धि को जिम्मेदार ठहराया गया है। इस अध्ययन के अनुसार ऋषिगंगा का हादसा तो ऐसे हादसों की शुरुआत भर है, भविष्य में इससे भी भयंकर हादसों का अंदेशा है, क्योंकि ना ही तापमान वृद्धि रोकने के लिए कुछ किया जा रहा है और न ही हिमालय के ऊपरी हिस्सों में बड़ी परियोजनाओं पर अंकुश लगाया जा रहा है।

इस अध्ययन का आधार उपग्रहों से प्राप्त चित्र, भूकंप के आंकड़े, प्रत्यक्षदर्शियों के वीडियो और गणितीय मॉडल्स हैं। इसके अनुसार 7 फरवरी को लगभग सूर्योदय के समय समुद्र तल से करीब 5600 मीटर की ऊंचाई पर स्थित हिमालय की रोंती चोटी के पास से ग्लेशियर और चट्टानों का बहुत बड़ा हिस्सा टूटकर लगभग 3.7 किलोमीटर नीचे गिरा, जिससे ऋषिगंगा नदी में चट्टानों और पानी का सैलाब आ गया। गिरने वाले चट्टानों और ग्लेशियर के हिस्से का आकार लगभग 2.7 करोड़ घनमीटर था और वजन लगभग 6 करोड़ टन था। ऊंचाई से गिरने और बाद में पानी में बहने के चलते घर्षण के कारण ग्लेशियर का हिस्सा तेजी से पिघला जिससे नदी का जलस्तर अचानक बढ़ गया। जलस्तर बढ़ने के कारण पानी का बहाव इस कदर बढ़ गया कि उसमें 20 मीटर से अधिक परिधि वाले चट्टानों के टुकड़े भी आसानी से और तेजी से बहने लगे। यही सैलाब आगे चलकर पनबिजली योजनाओं और इसमें काम कर रहे श्रमिकों को अपने साथ बहा ले गया।

इस अध्ययन के एक लेखक देहरादून स्थित वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ हिमालय इकोलॉजी के निदेशक कलाचंद सैन के अनुसार इतने बड़े नुकसान का मुख्य कारण अत्यधिक ऊंचाई से चट्टान और ग्लेशियर के हिस्से का गिरना, चट्टानों और ग्लेशियर का अनुपात और पनबिजली परियोजनाओं की स्थिति है। एक अन्य लेखक आईआईटी इंदौर के वैज्ञानिक मोहम्मद फारुख आज़म के अनुसार यह पूरा क्षेत्र सेडीमेंटरी चट्टानों का है, जो अपेक्षाकृत कमजोर होता है, इसलिए भी यह हादसा हुआ|

इस अध्ययन के अनुसार तापमान वृद्धि के कारण ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं और ग्लेशियर के आकार में अंतर का असर चट्टानों पर पड़ता है और उनमें दरार उभरने लगते हैं| चट्टानों को कमजोर करने में इस क्षेत्र की बड़ी परियोजनाओं का भी योगदान है, इसलिए यह कोई आखिरी आपदा नहीं है, बल्कि अभी इससे भी बड़ी दुर्घटनाएं होनी बाकी हैं।


वैज्ञानिकों के अनुसार पूरा हिन्दुकुश हिमालय क्षेत्र एक तरफ तो जलवायु परिवर्तन से तो दूसरी तरफ तथाकथित विकास परियोजनाओं से खतरनाक तरीके से प्रभावित है। हिन्दूकुश हिमालय लगभग 3500 किमी के दायरे में फैला है और इसके अंतर्गत भारत समेत चीन, अफगानिस्तान, भूटान, पाकिस्तान, नेपाल और म्यांमार का क्षेत्र आता है। इससे गंगा, ब्रह्मपुत्र, मेकोंग, यांग्तज़े और सिन्धु समेत अनेक बड़ी नदियां उत्पन्न होती हैं, इसके क्षेत्र में लगभग 25 करोड़ लोग बसते हैं और 1.65 अरब लोग इन नदियों के पानी पर सीधे आश्रित हैं। अनेक भू-विज्ञानी इस क्षेत्र को दुनिया का तीसरा ध्रुव भी कहते हैं क्योंकि दक्षिणी ध्रुव और उत्तरी ध्रुव के बाद सबसे अधिक बर्फीला क्षेत्र यही है। पर, तापमान वृद्धि के प्रभावों के आकलन की दृष्टि से यह क्षेत्र उपेक्षित रहा है। हिन्दूकुश हिमालय क्षेत्र में 5000 से अधिक ग्लेशियर हैं और इनके पिघलने पर दुनिया भर में सागर तल में 2 मीटर की वृद्धि हो सकती है।

वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड के एक प्रेजेंटेशन के अनुसार पिछले तीन दशकों के दौरान ग्लेशियर के पिघलने की दर तेज हो गयी है, पर पिछले दशक के दौरान यह पहले से अधिक थी। भूटान में ग्लेशियर 30 से 40 मीटर प्रतिवर्ष की दर से सिकुड़ रहे हैं। भारत का दूसरा सबसे बड़ा ग्लेशियर, गंगोत्री जिससे गंगा नदी उत्पन्न होती है, 30 मीटर प्रति वर्ष की दर से सिकुड़ रहा है। गंगोत्री ग्लेशियर की लम्बाई 28.5 किलोमीटर है।

लगभग सभी हिमालयी नदियां जिन क्षेत्रों से बहती हैं, वे वहां की संस्कृति का अभिन्न अंग हैं। यदि ग्लेशियर नष्ट हो जाएंगे तो नदियां भी नहीं रहेंगी और सम्भवतः संस्कृति भी बदल जाएगी। इन सबके बीच हादसे होते रहेंगे, मीडिया आंसू बहाएगा और सरकारें मुवावजा देती रहेंगी। यही न्यू इंडिया में विकास की परिभाषा है।

मोदी सरकार केवल देश की सार्वजनिक संपत्ति और संस्थानों की एक-एक कर नीलामी ही नहीं कर रही है बल्कि सभी तरह के प्राकृतिक संसाधनों को लूट भी रही है। इस सरकार के बाद से देश की लगभग हरेक नदियां बेच दी गईं, जंगलों का अधिकार पूंजीपतियों को दे दिया गया और हिमालय को भी ठेकेदारों और कॉर्पोरेट जगत के हवाले कर दिया गया है। देश का हरेक पर्यावरण मंत्री इस लूट में कॉर्पोरेेट जगत के साथ खड़ा दिख रहा है। देश के सभी न्यायालय और पर्यावरण से संबंधित प्राधिकरण मूक दर्शक बने बैठे हैं। पश्चिमी देशों में निष्पक्ष पत्रकार और पर्यावरणविद यह अध्ययन करते हैं कि उनके देश का पर्यावरण मंत्रालय किस तरह से देश के पर्यावरण को सुरक्षित कर रहा है, पर हमारे देश में यह अध्ययन होना चाहिए कि देश में पर्यावरण विनाश में मंत्रालय की क्या भूमिका है?

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