साबरमती आश्रम को संवारने के 'पीएम प्रोजेक्ट' का विरोध वाजिब, क्योंकि सवाल तो बापू और बा की विरासत बचाने का है

सरकार के इरादों और योजनाओं के बारे में बहुत कुछ औपचारिक रूप से जाना जाना अभी बाकी है, लेकिन एक बात तय है कि यह ‘पीएम’ प्रोजेक्ट है और तमाम अन्य ‘पीएम प्रोजेक्ट’ की तरह ही यह भी हम पर थोपा जाने वाला है। गुजरात में बुलडोजर चलाने वाले उन्हीं के लोग हैं।

फोटो : Getty Images
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तुषार गांधी

पिछले दो साल से मीडिया में इस तरह की खबरें आ रही हैं कि भारत और गुजरात की सरकारें साबरमती आश्रम का ‘पुनर्विकास’ कर वहां एक भव्य विश्व स्तरीय स्मारक बनाने जा रही हैं। इस बारे में तरह-तरह की अफवाहों का बाजार तो गर्म है लेकिन आधिकारिक तौर पर इसके बारे में शायद ही कोई जानकारी है। लगता है, वे सरकारी तौर पर इस मामले में गोपनीयता रखना चाहते हैं।

इस दौरान मैं जब भी साबरमती आश्रम गया हूं, आश्रम परिसर के कई पुराने निवासियों से मिला हूं। ये उन लोगों के वंशज हैं जो 1917 में कस्तूरबा और बापू द्वारा इस आश्रम की स्थापना के बाद से ही यहां रह रहे हैं। इन परिवारों को यहां रहते हुए सौ साल से ज्यादा समय हो चुका है। 12 मार्च, 1930 को जब बापू दांडी यात्रा पर निकले, तो उन्होंने भारत को आजादी मिलने तक आश्रम नहीं लौटने की कसम खाई थी और 1933 में उन्होंने अंततः इसे भंग करने का फैसला किया लेकिन लोगों ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया।

‘दांडी कूच’ और उसके बाद देश भर में शुरू हुए नमक सत्याग्रह के अहिंसक विद्रोह को अंग्रेजों ने बेदर्दी से कुचलना शुरू किया। इस अत्याचारी दमन का खामियाजा किसानों और सत्याग्रहियों को भुगतना पड़ा। राज ने उनके पास संपत्ति से लेकर जो-कुछ भी था, सब जब्त कर उन्हें बेसहारा बना दिया। इससे बापू बड़े आहत हुए और उन्होंने इस तरह के सोचे-समझे क्रूर तरीके के विरोध में औपनिवेशिक सत्ता को साबरमती आश्रम को सौंप देने का फैसला किया था। बापू का मानना था कि चूंकि वही शासन के लिए ‘परेशानियों’ को भड़काने वाले थे, इसका ‘दंड’ उन्हें मिलना चाहिए। लेकिन जब बापू के सहयोगियों को उनके इस फैसले के बारे में पता चला तो हंगामा मच गया। लोग ऐसा किए जाने के सख्त खिलाफ थे।

अंततः बापू के वरिष्ठ सहयोगियों में से एक ठक्कर बप्पा ने उन्हें ऐसा कठोर कदम न उठाने के लिए मना लिया। बापू झुक गए और आश्रम को ‘हरिजन सेवक संघ’ को सौंप दिया। बापू ने उन्हें हरिजनों के उत्थान और लाभ के लिए आश्रम का उपयोग करने का निर्देश दिया। जब बापू 13 साल तक अपना घर रहे आश्रम को छोड़ रहे थे तो उन्होंने आश्रम का प्रबंधन देखने वाले मगनलाल गांधी को सुनिश्चित करने के लिए कहा कि आश्रम में जो लोग भी रह रहे हैं, उन्हें आश्रम के आदर्शों के मुताबिक आजीवन वहां रहने दिया जाए, जैसा बा और बापू के आश्रम में रहने के दौरान वहां का चलन था। तब से आश्रम में रहने वाले लोगों के वंशज वहां रह रहे हैं और कई तो सौ साल से भी अधिक समय से। अब इन लोगों को वहां से बेदखल होने, विस्थापित होने की आशंकाओं का सामना करना पड़ रहा है।

इसलिए पिछले दो वर्षों से जब भी मैं आश्रम का दौरा करता हूं, सरकार के इस प्रस्ताव से आशंकित लोग मुझसे आश्रम और अपने आवास को बचाने की गुहार लगाते हैं। इस वृहत् आश्रम परिवार से जुड़े कई लोगों को आश्रम के काम में लगे देखता हुआ मैं बड़ा हुआ हूं। उनके विस्थापित होने का विचार ही परेशान करने वाला है, और स्वाभाविक रूप से वे चिंतित हैं।


मीडिया की विभिन्न रिपोर्टों से पता चलता है कि सरकार आश्रम को अपने हाथ में लेने और इसकी पुनर्विकास योजना की राह पर काफी आगे बढ़ चुकी है। आश्रम के सुधार के लिए आर्किटेक्ट के चयन से लेकर आश्रम के नए स्वरूप की विस्तृत योजनाओं से जुड़ी तरह-तरह की खबरें मीडिया में आती रही हैं और इनमें से कई तो परस्पर विरोधी हैं। एक का कहना है कि सरकार के पास आश्रम की 1947 की तस्वीर है जब देश आजाद हुआ था और सरकार आश्रम को उसी हाल में लाना चाहती है।

इस कदम का एक बहुत ही बुरा नतीजा यह होगा कि जाने-माने वास्तुकार चार्ल्स कोरिया द्वारा डिजाइन और निर्मित पुरस्कृत संग्रहालय को भी हटा दिया जाएगा। क्यों? क्योंकि इसकी स्थापना और उद्घाटन तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने किया था?

एक अन्य रिपोर्ट में दावा किया गया है कि इसे एक ‘भव्य’, ‘विश्वस्तरीय’ पर्यटक आकर्षण केंद्र के तौर पर विकसित करने की योजना बनाई गई है। बापू ने अपनी वसीयत में साफ लिखा है कि साबरमती आश्रम को हरिजनों के उत्थान और लाभ के लिए काम करना है। लेकिन प्रस्तावित सुधार से यह कैसे होगा? आश्रम परिसर में रहने वालों में हरिजन परिवार भी हैं, उन्हें भी ‘प्रस्तावित’ सुधार के कारण बेदखली का सामना करना पड़ रहा है। तो भला इससे उन्हें कैसा फायदा? औपनिवेशिक सरकार द्वारा किसानों और सत्याग्रहियों के घर-बार को जबरदस्ती जब्त कर लेने से बापू बहुत आहत हुए थे। यह समझना मुश्किल है कि एक भारतीय सरकार सत्तावादी और अत्याचारी औपनिवेशिक शासन की तरह क्यों काम कर रही है?

सरकार के इरादों और उसकी योजनाओं के बारे में बहुत कुछ औपचारिक रूप से जाना जाना अभी बाकी है लेकिन कोई कुछ नहीं कह रहा। एक बात तय है कि यह ‘पीएम’ प्रोजक्ट है और तमाम अन्य ‘पीएम प्रोजेक्ट’ की तरह यह हम पर थोपा जाने वाला है। गुजरात में बुलडोजर चलाने वाले उन्हीं के लोग हैं।

आश्रम में रहने वाले लोगों ने मुझे तमाम चीजें बताई हैं लेकिन जब मैं साबरमती आश्रम से जुड़े कई ट्रस्टों के ट्रस्टियों से बात करता हूं जो आश्रम के संरक्षक और देखभाल करते हैं, तो वे बार-बार यही कहते हैं कि उनके पास कोई ‘आधिकारिक’ जानकारी या सूचना नहीं है। आज तक यही स्थिति है।


आश्रम परिसर में रहने वाले कई लोगों और किरायेदारों का कहना है कि उनसे संपर्क किया गया है। कुछ का कहना है किउन्हें धमकी दी गई है कि मुआवजा लेकर चुपचाप बाहर हो जाएं या फिर जबरन निकाल दिए जाएंगे। लेकिन अभी तक ट्रस्टियों के पास कोई आधिकारिक सूचना नहीं है। पूरे मामले के पीछे गलत मंशा की बू आ रही है, वरना इस तरह की गोपनीयता क्यों? क्या छुपा रही है सरकार? साबरमती आश्रम के साथ जो हो रहा है, यह उसकी पृष्ठभूमि है और जल्दी ही इसका स्वरूप हमेशा-हमेशा के लिए बदल जाने वाला है!

बापू ने कहा था, ‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है’, यही उनकी विरासत है। आज के समय में उस आदमी की सादगी, मितव्ययिता और खुलेपन की कल्पना भी मुश्किल है। उनका जीवन वास्तव में पारदर्शी था। जैसा निजी जीवन, वैसा ही सार्वजनिक। कहीं कोई छिपाव नहीं। मौजूदा समयमें यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि कभी कोई ऐसा व्यक्ति हुआ था।

वर्धा में साबरमती आश्रम और सेवाग्राम आश्रम उस महान इंसान की सादगी, उसके मितव्ययी अस्तित्व, उसके पारदर्शी जीवन के जीवंत प्रतीक हैं। हृदयकुंज में साबरमती आश्रम में जाने पर मैंने अक्सर बच्चों को अपने माता-पिता से यह पूछते सुना है, “इतनी छोटी और साधारण झोपड़ी में इतना बड़ा आदमी रहता था? वह इतनी खुली जगह पर बैठकर काम करता था!” आज की पीढ़ी जब साबरमती आश्रम में हृदय कुंज और सेवाग्राम में बापू कुटीर को देखती है तो उसे भरोसा होता है कि हां, बापू वाकई ऐसे ही थे। जब ये खो जाएंगे तो बापू एक मिथक बन जाएंगे। और पौराणिक कथाओं में जरूरत के मुताबिक रद्दोबदल कितना आसान होता है, यह याद रखना चाहिए।

साबरमती आश्रम आज बापू के जीवन और विरासत के आदर्शों को स्थापित करता है। यह विरल है, सरल है और बेहद कम खर्चे वाला। जो बापू के आदर्शों और जीवन को समझते हैं, वे जानते हैं कि यही तो उनकी सच्ची विरासत है और साबरमती आश्रम इसी विरासत को सही मायने में चित्रित करता है। जो बापू को कभी नहीं समझते और उन्हें समझने की परवाह नहीं करते, उनका अनुकरण करने की तो बात ही नहीं, उन्हें ही लगता है कि इसे ‘भव्य’ बनाने की जरूरत है।

उनका इरादा आश्रम को संरक्षित करना या इसे और अधिक आकर्षक बनाना नहीं है; उनका इरादा इसे और इससे जुड़ी विरासत को मिटा देना है। हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के एक मंदिर और वहां रहने वाले दंपति के जीवन को एक पर्यटक प्लाजा, एक मनोरंजन पार्क में बदलने के लिए। यही उनकी असली मंशा है। अब सवाल साबरमती आश्रम को बचाने का नहीं है, बापू और बा की विरासत को बचाने का है।

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