जीरो बजट खेती कुल मिलाकर मोदी सरकार का राजनीतिक स्टंट

दावा है कि शून्य बजट खेती में किसानों को सूदखोरों से कर्ज लेने की कोई आवश्यकता नहीं होगी क्योंकि इसमें कोई निवेश नहीं होता। इसमें बाहरी इनपुट की कोई आवश्यकता नहीं है। जब किसानों को कर्ज की आवश्यकता नहीं होगी, तो सरकारों को कर्जमाफी की भी जरूरत नहीं पड़ेगी।

फोटोः सोशल मीडिया
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राजेश रपरिया

वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट भाषण में कहा है कि हम जो कुछ भी करते हैं, उसके केंद्र में गांव, गरीब और किसान हैं। उन्होंने गांव-किसान को लेकर मोदी सरकार की उपलब्धियां गिनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, पर इसका कोई ब्योरा नहीं दिया कि किसानों की 2022 तक आय दोगुनी करने के पीएम मोदी के वादे को पूरा करने में अब तक क्या सफलता हासिल हुई है। वैसे, उन्होंने मोदी के इस वादे को पूरा करने के लिए जीरो बजट फार्मिंग (शून्य बजट खेती) का एक नया शिगूफा अवश्य छोड़ दिया। उन्होंने कहा कि जीरो बजट फार्मिंग के नवाचार मॉडल को हमें दोहराने की जरूरत है और कुछ राज्यों में इस काम के लिए किसानों को पहले से ही प्रशिक्षित किया जा रहा है। ऐसे कदम उठाने से स्वतंत्रता के 75वें वर्ष (2022) तक किसानों की आय दोगुनी हो सकती है।

जैसा कि इसके नाम से ही जाहिर होता है कि इस विधि में खेती की लागत शून्य होती है क्योंकि इस खेती में बाहरी इनपुट (जैसे उर्वरक, कीटनाशक, बीज आदि) की जरूरत नहीं होती है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन ने 2016 में बताया है कि बजट का संदर्भ कर्ज और खर्चों से है इसलिए जीरो बजट फार्मिंग का अर्थ है- बिना उधारी और इनपुट पर खर्च किए खेती।

पीएम मोदी ने पिछले कार्यकाल में ही किसानों की आय दोगुनी करने की घोषणा की थी। लेकिन इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कोई समाधान अब तक नहीं दे पाया है। खेती में रासायनिकों का इस्तेमाल किसानों की आय बढ़ाने में सहायक नहीं हो सकते हैं। जैविक खेती भी महंगी है। इसमें विदेशी इनपुट का इस्तेमाल होता है। इससे भी किसानों को कोई राहत नहीं मिलेगी, न ही इससे उत्पादन में वृद्धि होगी।

महाराष्ट्र के 70 वर्षीय सुभाष पालेकर खुद को शून्य बजट नैसर्गिक खेती का जनक मानते हैं। वह कई बार इस खेती का नाम बदल चुके हैं। उनके फेसबुक पेज से पता चलता है कि अब उन्होंने इसका नाम जीरो बजट स्प्रिचुअल फार्मिंग कर दिया है। उनका दावा है कि इस विधि में सभी उपजों की उत्पादन लागत शून्य है। पालेकर का कहना है कि हरित क्रांति से किसी समस्या का निदान नहीं हुआ है, बल्कि इससे कई नई समस्याएं पैदा हो गई हैं।


दावा है कि शून्य बजट नैसर्गिक खेती में उत्पादन लागत शून्य है। इसमें किसानों को बाहर से कोई इनपुट खरीदने की जरूरत नहीं पड़ेगी। इसमें खेती के मौजूदा तरीकों के मुकाबले 10 फीसदी पानी की जरूरत पड़ती है। इस खेती से सिंचित एक एकड़ जोत से 6 लाख रुपये सालाना और गैरसिंचित एक एकड़ जोत से डेढ़ लाख रुपये सालाना किसान कमा सकता है। इस खेती का आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, उत्तराखंड, हिमाचल और छत्तीसगढ़ में किसान इस्तेमाल कर रहे हैं। इससे पहले ही साल में प्रतिफल (यील्ड) बढ़ जाता है। इस खेती से निवेश में भारी कमी आती है। उन्हें सूदखोरों से कर्ज लेने की कोई आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि शून्य बजट खेती में कोई निवेश नहीं होता है क्योंकि इसमें बाहरी इनपुट की कोई आवश्यकता नहीं है।

जब किसानों को कर्ज की आवश्यकता नहीं होगी, तो सरकारों को कर्जमाफी की भी आवश्यकता नहीं पड़ेगी। परंपरागत और जैविक खेती में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। ये गैसें जलवायु परिवर्तन का बड़ा कारक हैं। लेकिन शून्य बजट नैसर्गिक खेती में इन गैसों का उत्सर्जन नहीं होता है। इतने चमत्कारी लाभों के बाद भी सरकारी और गैर सरकारी प्रयासों के बावजूद किसानों के बीच खेती का यह तरीका लोकप्रिय नहीं हो पा रहा है।

दावों पर तनिक भी यकीन नहीं

कृषि विशेषज्ञों को पालेकर के दावों पर तनिक भी विश्वास नहीं है। यहां तक कि मोदी सरकार भी इन दावों को लेकर भ्रमित दिखती है क्योंकि वह कई किस्म के खेती के तरीकों को बढ़ावा दे रही है- जैसे, ऋषि खेती, वैदिक खेती, जैविक खेती आदि। चेन्नई स्थित एम एम स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन के सलाहकार और विख्यात अर्थविशेषज्ञ प्रोफेसर वेंकटेश आत्रेय का कहना है कि शून्य बजट नैसर्गिक खेती सभी प्रकार की भूमि पर इस्तेमाल योग्य नहीं है और आधुनिक वैज्ञानिक खेती के मुकाबले इस खेती में उत्पादकता भी कम है।

टाटा इंस्टीटयूट ऑफ सोशल साइंसेज के सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलेपिंग इकोनॉमीज पीठ के प्रोफेसर आर. रामकुमार का स्पष्ट कहना है कि शून्य बजट नैसर्गिक खेती अपरीक्षित तरीका है और इसके व्यापक स्तर पर इस्तेमाल करने से पहले इसके दावों की जांच और पुष्ट होना जरूरी है। प्रो. रामकुमार का मानना है कि कृषि संकट के तमाम पहलुओं जैसे बढ़ती इनपुट लागत, बेहतर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और उपजों की गिरती या स्थिर कीमतों पर ध्यान दिया जाना चाहिए। पर सरकार कह रही है कि इन मुद्दों को छोड़ देना चाहिए और शून्य बजट नैसर्गिक खेती पर जाना चाहिए।


इसका मतलब है कि किसी भी इनपुट की कीमत कम नहीं की जाएगी क्योंकि शून्य बजट खेती में आपको किसी भी इनपुट को खरीदने की दरकार नहीं होती है। यह असल में मुद्दों से मुंह मोड़ने-जैसा है। प्रो. आत्रेय एक और बात कहते हैं कि नए तरीकों का इस्तेमाल महत्वपूर्ण है, लेकिन उन्हें अपनाने से पहले डीलरों पर किसानों की निर्भरता कम करने के प्रयास होने चाहिए। पर इसके बजाए खेती पर खर्च कटौती हो रही है।

बिहार में जैविक खेती को लोकप्रिय बनाने के लिए जनमुक्ति संघर्ष वाहिनी के सुशील कुमार आरा जिले में अरसे से काम कर रहे हैं। उनका कहना है कि आधुनिक खेती को छोड़ जैविक खेती को अपनाने से तीन फसलों तक पैदावार में कमी आती है। इससे किसानों को आर्थिक नुकसान होता है जिसको वहन करने की क्षमता उनमें नहीं है। इसलिए जैविक या वैकल्पिक खेती के अन्य तरीके लोकप्रिय नहीं हो पा रहे हैं।

कृषि के अधिकांश जानकार शून्य बजट की धारणा को ही भ्रामक मानते हैं। पूर्व केंद्रीय कृषि मंत्री सोमपाल शास्त्री का कहना है कि इतना माना जा सकता है कि शून्य बजट खेती में उर्वरक और दवाएं नहीं लगेंगी लेकिन क्या इसमें मजदूरी और बीज की भी जरूरत नहीं होगी? सिंचाई के लिए पानी और बिजली की जरूरत भी नहीं होगी क्या? निराई, जुताई, कटाई और यातायात के खर्च तो होंगे ही। ऐसे में जीरो बजट की बात समझ में नहीं आती।

महाराष्ट्र के प्रभावशाली किसान नेता और पूर्व सांसद राजू शेट्टी भी कहते हैं कि मजदूरी, बिजली-पानी के खर्च अनिवार्य हैं। उन्नत बीज, उर्वरक, दवाओं और ट्रैक्टर का इस्तेमाल नहीं होगा, तो उत्पादकता घटना तय है। उनका कहना है कि असल में सुभाष पालेकर पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की छाप है। संघ चाहता है कि किसान सदियों पुरानी खेती पर लौटें, यानी किसान जानवरों- जैसी मेहनत करने के लिए मजबूर हों। शून्य बजट नैसर्गिक खेती से आय दोगुनी करने की बात भ्रामक है।

पालेकर ने दावा किया है कि कई राज्यों के लाखों किसानों ने शून्य बजट खेती को अपनाया है। पर त्रासदी देखिए कि इन राज्यों में महाराष्ट्र का नाम नहीं है जहां वह रहते हैं। जनमुक्ति संघर्ष वाहिनी के कुछ सदस्यों ने सुभाष पालेकर के विदर्भ (महाराष्ट्र) के अमरावती जिले के नांद गांव तालुका के धामक विलोटा गांव का दौरा किया। यहां पालेकर की 12 एकड़ खेत है। इनकी रिपोर्ट के अनुसार, पालेकर के खेत पर बटाईदार खेती करते हैं और वह पिछले दस सालों से खेत पर नहीं आए हैं। खेती के लिए रासायनिक खाद, कीटनाशक, खर पतवार नाशक दवाओं का उपयोग होता है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पालेकर के खेत, गांव और तालुका, यहां तक कि जिले में भी जीरो बजट खेती का नामोनिशान नहीं है।

(लेखक अमर उजाला में पूर्व कार्यकारी संपादक थे)

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Published: 27 Jul 2019, 7:59 AM