जोशीमठ से सबक लेने के बजाए सुप्रीम कोर्ट की ग्रीन बेंच ने ऐसे 118 प्रोजेक्ट को दे दी मंजूरी जिन से दहल जाएंगे पहाड़-जंगल

सुप्रीम कोर्ट ग्रीन बेंच ने ऐसी 118 परियोजनाओं को हरी झंडी दी है जिन पर पर्यावरण के आधार पर आपत्तियां की गई थीं। तो क्या विकास के नाम पर जंगल, पहाड़, जलस्रोतों को नष्ट करना उचित है? जबकि सिर्फ जोशीमठ ही नहीं, पूरा हिमालयीन इलाका हमें चेतावनी दे रहा है।


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रश्मि सहगल

सुप्रीम कोर्ट की ग्रीन पीठ ने फरवरी के पहले 10 दिनों में जिस तरह 118 लंबित परियोजनाओं को हरी झंडी दी है, उसका देश के लिए दुष्परिणाम ही होगा क्योंकि फरवरी के मध्य में ही कई बड़े राज्य अभूतपूर्व गर्म हवाओं से जूझ रहे हैं। जिन परियोजनाओं को हरी झंडी दी गई है, उनमें से कई 10 साल से लंबित थीं।

विकास लॉबी प्रफुल्लित है और पर्यावरणवादी सदमे में हैं। पर्यावरणवादी कहते हैं कि न्यायमूर्ति गवई के पहले दिए गए निर्णय और टिप्पणियों के मद्देनजर हरी झंडी दिया जाना अनपेक्षित नहीं है। लेकिन इनमें से एक इस ओर ध्यान दिलाते हैं कि आदेश की कर्कश प्रवृत्ति अनपेक्षित थीः

- पहले के आदेशों के विपरीत ये संक्षिप्त, विवरण न देने वाले आदेश हैं और न तो ये विस्तृत हैं और न ही पूरी तरह जांच-पड़ताल किए हुए

- याचिकाकर्ताओं ने जिन तथ्यों और प्रमाणों को प्रस्तुत किया है, आदेशों में उनका या तो बहुत थोड़ा या नहीं ही जिक्र किया गया है

इस पीठ ने पश्चिम बंगाल में बारासात से बोंगांव तक 59.2 किलोमीटर दूरी के बीच पांच ओवरब्रिज के निर्माण के लिए ऐसे 350 हेरिटेज वृक्षों को काट गिराने को हरी झंडी दी जो ऑक्सीजन और अन्य सूक्ष्म पोषक तत्वों के मामले में 2.2 अरब रुपये मूल्य तक के होंगे। यह आकलन 2021 में प्रधान न्यायाधीश एस ए बोबडे के नेतृत्व वाली ग्रीन पीठ को सौंपी विशेषज्ञ समिति ने अपनी रिपोर्ट में किया था। उन लोगों ने उतनी ही दूरी की सड़क पर किन्हीं अन्य जगहों पर ‘कम खर्च वाले ओवर ब्रिजों’ के निर्माण-जैसे विकल्पों के बारे में सुझाया था। समिति ने अंडरपास की संभावना खोजने की सिफारिश भी की थी लेकिन इन सिफारिशों की अनदेखी कर दी गई।

याचिकाकर्ता के पक्ष में कोर्ट में पेश होकर वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने तर्क दिया था कि पूरी सड़क को चौड़ा करने के काम में हजारों पेड़ काटने होंगे। इस फैसले पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि ‘यह पर्यावरण विरोधी है। यह संकेत देता है कि न्यायाधीशों को सतत विकास की समझ नहीं है और उसे लेकर वे संवेदनशील नहीं हैं।’


पीठ ने जंगलों के विनाश, बड़ी हाइड्रो परियोजनाओं और चार लेन सड़कों के निर्माण की वजह से पारस्थितिकीय समस्याओं के हमले को पहले ही झेल रहे हिमाचल प्रदेश में ‘शिमला जिले के ठियोग जंगल में 11.89 हेक्टेयर क्षेत्र में खसरा संख्या 457 में वर्ग तीन वाले पेड़ों’ को काटने की अनुमति दे दी। भूगर्भविज्ञानियों ने चेतावनी दी हुई है कि जो कुछ जोशीमठ में हो रहा है, उसी तरह के भू-धंसाव की समस्या शिमला के साथ भी हो सकती है। ये अनुमति विद्यालय, डिस्पेन्सरी और सामुदायिक केन्द्रों के निर्माण के लिए दी गई हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि इन कामों के लिए हर राज्य में जब सरकारी भूमि अलग से निर्धारित की हुई है, तो हमारे घटते वन संसाधनों को क्यों निशाना बनाया जा रहा है?

पर्यावरणविद रीना पॉल ने देहरादून नगर निगम का उदाहरण दिया जिसने 2016 में अपने अधिकार क्षेत्र में 72 गांवों को शामिल करने का फैसला किया था। तब सवाल उठाए गए थे कि नगर निगम ने राज्य सरकार द्वारा ली गई ग्राम सभा और चारागाह भूमि का उपयोग करने की योजना आखिर किस तरह बना ली।

पर्यावरणविदों ने यह सूचना हासिल करने के लिए कई आरटीआई दायर किए कि इस तरह की कितनी जमीन राज्य को सौंपी गई थी और उनका अब किस तरह उपयोग किया जाएगा। पॉल के अनुसार, राज्य सरकार ने इन आरटीआई के उत्तर नहीं दिए और इस भूमि के अधिकतर हिस्सों को ठेकेदारों और रीयल एस्टेट डेवलपरों को सौंप दिया गया।

जंगलों को काटने की क्षतिपूर्ति के तौर पर सदाबहार समाधान प्रतिपूरक पौधे लगाना बताया जाता है। पूर्व वन अधिकारी और यमुना जिये अभियान  के संयोजक मनोज मिश्र कहते हैं कि ‘यह समाधान घोटाला ही है। जब हम पेड़ काटते हैं, हम पूरे इकोसिस्टम का विनाश कर रहे हैं जिसे नया जीवन देना असंभव है। प्रकृति क्षतिपूर्ति के किसी नियम का पालन नहीं करती है। हमारे मुख्य वन क्षेत्र कम हो गए हैं और बंजर जंगलों का प्रतिशत बढ़ रहा है।’

ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के देवादित्य सिन्हा ने इस बात पर दुख जताया कि ‘हमारे न्यायाधीशों और राजनीतिज्ञों ने जंगलों को महज ऐसे खड़े वृक्षों की तरह देखना जारी रखा हुआ है जिनकी कमी और अधिक पौधे लगाकर पूरी की जा सकती है। वे यह नहीं समझ पा रहे कि ये जीवित प्राणी हैं जो हजारों सालों में विकसित हुए हैं और अनमोल हैं।’

ग्रीन पीठ इससे भी आगे बढ़ गई है और इसने सिंगल विंडो अनुमति के तौर पर पारस्थितिकीय संवेदनशील क्षेत्रों (ईएसजेड) में भारतीय रेलवे के साथ-साथ इसके आनुषंगिक तथा सहयोगी संगठनों की सभी रेल परियोजनाओं का पूर्ण अनुमोदन कर दिया है। सिर्फ छोटी-सी जगह यह छोड़ी गई है कि रेलवे से संबंधित अनुमतियों को राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड को भेजा जाएगा। वैसे, वन्यजीव बोर्ड के सदस्यों को पर्यावरण से संबंधित मामलों में अनुमति देने पर आपत्तियां करने या सवाल उठाने के लिए नहीं जाना जाता।


भारत में 88 एलिफेंट कॉरिडोर यानी हाथियों के आने-जाने के रास्ते हैं। इनमें से कई रेलवे लाइनों के काफी नजदीक हैं। पॉल का कहना है कि ‘राजाजी नेशनल पार्क से सटे ईएसजेड में हाथी आराम से घूमने के अधिकार का उपयोग कर सकें, इसके लिए हम डोईवाला से ऋषिकेश के बीच 10 किलोमीटर की छूट का इंतजाम करवा सके। लेकिन हमें लगता है कि ट्रेन से डोईवाला से गंगोत्री को जोड़ने के लिए सर्वे पूरा करने का काम अंतिम चरण में है। ऐसा हो गया, तो यह ईएसजेड भी पूरी तरह नष्ट हो जाएगा।’

सुप्रीम कोर्ट ने संरक्षित इलाकों के इर्द-गिर्द एक किलोमीटर ईएसजेड का आदेश दिया हुआ है। लेकिन न्यायमूर्ति गवई और न्यायमूर्ति नाथ- दोनों ने कहा कि इस तरह के एकसमान आदेश को लागू किए जाने से पहले जमीनी वास्तविकताओं को ध्यान में रखना ही होगा। मुंबई के पास तुंगरेश्वर वन्य जीव अभयारण्य को उच्चतम न्यायालय ने अब छूट दे दी है और पर्यावरणवादियों को लगता है कि यह इस तरह की अन्य छूटों का रास्ता खोल देगी।

पेरियार टाइगर रिजर्व का मामला भी जानने लायक है क्योंकि राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल ने केरल सरकार से रिजर्व के अंदर ही बड़ी कार पार्किंग सुविधा और एक फुटबॉल ग्राउंड के निर्माण पर अनुपालन रिपोर्ट देने को कहा है। याचिकाकर्ताओं ने इन मामलों को केरल हाई कोर्ट में उठाया था। यह मामला उच्चतम न्यायालय में गया लेकिन ऐसे महत्वपूर्ण मामले में ग्रीन पीठ ने इसे फिर केरल हाई कोर्ट को वापस भेज दिया।

पॉल ने कहा कि ‘यह बहुत ही निराशाजनक आदेश है। ये तीन मामले 2017 से चल रहे हैं जब याचिकाएं दायर की गई थीं। स्पष्ट निर्देश देने की जगह इसे केरल हाई कोर्ट को भेज दिया गया है। ऐसे अधिकतर मामलों में न्याय नहीं मिला है जिन्हें संक्षिप्त तौर पर खारिज कर दिया गया। उच्चतम न्यायालय कोर्ट का अंतिम उपाय है और मामले यहां तक लाने में हमलोगों को काफी खर्च करना पड़ता है।’

इन 118 याचिकाओं का निबटारा करते हुए कोर्ट ने कहा कि ‘विकास और पर्यावरण को लेकर चिंताओं की प्रतिस्पर्धा सब दिन होती रही है। इसमें शक नहीं कि पारस्थितिकी और पर्यावरण को भविष्य की पीढ़ियों के लिए संरक्षित किए जाने की जरूरत है लेकिन इसके साथ ही ऐसी विकास परियोजनाओं को रोका नहीं जा सकता जो नागरिकों के आर्थिक विकास के लिए जरूरी हैं।’

लेकिन यह विरोधाभास है। पहाड़ी इलाके में एक किलोमीटर की सड़क के निर्माण के लिए 30,000 से 40,000 क्यूबिक मीटर मिट्टी और पत्थर हटाने पड़ते हैं। जंगलों की अनुपस्थिति ऊपरी मिट्टी की परत को नष्ट करती है जिससे भूस्खलन की आशंका बढ़ती है और ऐसा होने पर जानमाल का भारी नुकसान होता है। भूगर्भविज्ञानी डॉ. एस सती के अनुसार, उत्तराखंड का छोटा-सा प्रदेश चार धाम रूट पर रोजाना औसतन आठ भूस्खलन झेल रहा है।


उच्चतम न्यायालय ने जम्मू-कश्मीर से इमारती लकड़ियों को दूसरे राज्यों में ले जाने की अनुमति दे दी है। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने 1996 में प्रतिबंध लगाया था। यह अनुमति बिना यह स्पष्ट किए ही दी गई है कि लकड़ियों को इस तरह ले जाने को कौन नियंत्रित करेगा और इसकी देखरेख कौन करेगा। ऐक्टिविस्टों को आशंका है कि जहां वन संसाधनों की पहले ही कमी होती जा रही है, वहां यह अनुमति लूट ला देगी।

तमिलनाडु में ऐसे ‘पेड़ों की कुछ वेरायटी’ को काटने की अनुमति दी गई है जो ‘निरंतर बढ़ते रहते हैं।’ समुद्र के जल में बाढ़ से तटीय इलाकों को बचाने के खयाल से ऐसे सदाबहार वृक्ष लगाए गए हैं। स्थानीय इकाइयों से अनुमति लेकर 500 पेड़ तक काटना संभव है।

इनमें से अधिकांश याचिकाएं तमिलनाडु गोदावरनम थिरुमुलापड़ी पीआईएल के अंतर्गत दायर किए गए हैं। यह जनहित याचिका थिरुमुलापड़ी ने यह सवाल उठाते हुए 1995 में दायर की थी कि वन संरक्षण कानून, 1980 और पर्यावरण (संरक्षण) कानून, 1986 का उल्लंघन करते हुए गुडुलूर और नीलगिरि क्षेत्रों में उष्णकटिबंधीय (ट्रॉपिकल) वर्षा जंगलों को किस तरह नष्ट किया जा रहा है जो तमिलनाडु के लोगां के जीवन और जीवनयापन को प्रभावित करते हुए गंभीर पारस्थितिकीय असंतुलन पैदा कर रहा है। इसके बाद पेड़ काटने, जंगल में अतिक्रमण और खनन के मामलों पर हजारों वादकालीन आवेदन दायर किए गए।

देश और पर्यावरणवादियों ने पिछले चार दशक के दौरान प्रगतिशील कानून और न्यायिक आदेशों से प्राप्त लाभों को खो दिया है। उन्हें आश्चर्य है कि आखिर, प्रधान न्यायाधीश ने उन न्यायमूर्ति गवई को ग्रीन पीठ की अध्यक्षता क्यों दी है जिन्होंने जनहित याचिका और राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल के प्रति अपनी अनिच्छा को कभी छिपाया नहीं है। पहले या तो प्रधान न्यायाधीश खुद या सुप्रीम कोर्ट के सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश पीठ के प्रमुख होते रहे हैं जिनके दिए फैसले देश के सभी लोगों के जीवन को प्रभावित करेंगे।

ग्रीन बेंच के फैसले अब पूर्व अनुमान के अनुरूप ही होंगे क्योंकि न्यायमूर्ति गवई का यह कथन रिकॉर्ड में है कि ‘जनहित याचिका को वर्तमान स्थितियों में एक उपकरण की तरह उपयोग नहीं किया जाना चाहिए’ और उन्होंने इस पर सवाल किया है कि ‘सफेद कॉलर वाले पर्यावरणविदों’ द्वारा विकास को क्यों रोका जाना चाहिए।

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