जलवायु परिवर्तन के असर से कम होगी धान की पैदावार, परंपरागत खेती के समूल नष्ट होने का भी खतरा

इन अध्ययनों से इतना तो स्पष्ट है की तापमान वृद्धि के कारण फसलों की पैदावार पर असर पड़ेगा और किसानों को इस पैदावार की भरपाई के उपाय समय रहते तलाशने होंगेl लेकिन, जलवायु परिवर्तन का सबसे डरावना खतरा यह भी है कि कहीं इससे परंपरागत खेती ही समूल नष्ट न हो जाएl

फोटोः gettyimages
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महेन्द्र पांडे

बिहार स्थित बोरलॉग इंस्टिट्यूट फॉर साउथ एशिया के रिसर्च फार्म पर किये गए एक अनुसंधान से स्पष्ट होता है कि जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ते तापमान, अनियमित बारिश और पानी की कमी के कारण भविष्य में धान की पैदावार कम होगीl यह अध्ययन यूनिवर्सिटी ऑफ इलिनोइस के प्रोफ़ेसर प्रशांत कलिता की अगुवाई में वैज्ञानिकों के दल ने किया हैl इस अध्ययन में कुछ सुझाव भी दिए गए हैं, जिनपर अमल कर पैदावार को बढ़ाया भी जा सकता हैl

यह अध्ययन इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि अनुमान है की साल 2050 तक दुनिया की आबादी आज की तुलना में 2 अरब अधिक होगी और 60 प्रतिशत से अधिक खाद्यान्न की जरूरत पड़ेगीl चावल दुनिया में बड़ी आबादी का मुख्य भोजन है और धान के उत्पादन की शुरुआत पारंपरिक तौर पर दुनिया के उन क्षेत्रों में शुरू की गई थी, जहां सिंचाई के लिए पर्याप्त मात्र में पानी आसानी से उपलब्ध थाl धान की पैदावार से लेकर चावल निकालने तक की प्रक्रिया में पानी की बहुत जरूरत होती हैl अनुमान है कि एक किलो चावल के उत्पादन से लेकर बाजार तक पहुंचने में 4000 लीटर पानी की जरूरत होती हैl

प्रोफ़ेसर प्रशांत कलिता के अध्ययन के अनुसार पिछले कुछ वर्षों के दौरान धान की फसल तैयार होने की अवधि लगातार घट रही है, जिससे इसकी पैदावार गिर रही हैl जलवायु परिवर्तन से तापमान, बारिश और वायु में कार्बन डाइऑक्साइड गैस की सांद्रता प्रभावित होती है और यही सभी कारक पैदावार को भी प्रभावित करते हैंl परंपरागत तौर पर धान के बिचड़े को जिस खेत में लगाया जाता है, उसमें कम से कम 6 इंच गहरा पानी इकट्ठा किया जाता हैl यह पानी गर्मी और हवा के साथ ही वाष्पीकृत होकर वायुमंडल में मिल जाता है, जिससे भारी मात्रा में पानी की बर्बादी होती हैl

प्रोफ़ेसर प्रशांत कलिता के अनुसार पानी बचाने के लिए किसानों को धान की बीज वाली किस्मों का पैदावार बढ़ाना चाहिए, जिससे खेतों में पानी की खपत कम होगीl यदि, परंपरागत तरीके से ही खेती करनी है, तब खेतों में खड़े पानी के ऊपर कृषि अपशिष्ट का छिडकाव कर देना चाहिए, जिससे पानी का वाष्पीकरण कम होगाl कृषि अपशिष्ट पानी के कारण जल्दी विखंडित होगा और खेतों में कार्बनिक खाद की प्रचुरता होगीl इन तरीकों से उपज के कुल नुकसान में से 60 प्रतिशत नुकसान की भरपाई की जा सकती हैl कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार धान से चावल बनाने की प्रक्रिया के दौरान लगभग 30 प्रतिशत उपज बर्बाद हो जाती है, यदि इस बर्बादी को रोक दिया जाए तो चावल का उत्पादन स्वतः 30 प्रतिशत बढ़ जाएगाl

साइंस एडवांसेज नामक जर्नल के 24 फरवरी 2021 के अंक में भारत में सिंचाई की समस्याओं से संबंधित यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन की वैज्ञानिक मेहा जैन का एक शोधपत्र प्रकाशित हुआ हैI इसके अनुसार यदि भूजल के संसाधन ख़त्म हो गए और जिसकी पूरी संभावना भी है, तब सिचाई के अभाव में देश में सर्दियों की फसलों के औसत उत्पादकता में 20 प्रतिशत की कमी हो जाएगीI इस समस्या से सबसे अधिक प्रभावित उत्तर-पश्चिम और मध्य भारत के क्षेत्र होंगे, जहां उत्पादकता 68 प्रतिशत तक कम हो जाएगीI यह कमी तब होगी, जब भूजल ख़त्म हो जाएगा और सिंचाई के लिए नहरों का पानी भी नहीं उपलब्ध रहेगाI

भूजल ख़त्म हो जाने के बाद यदि नहरों का पानी आंशिक तौर पर भी उपलब्ध कराया जाएगा तब भी कृषि उत्पादकता में औसतन 7 प्रतिशत की कमी हो जाएगी और सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्रों में यह कमी 24 प्रतिशत तक हो जाएगीI मेहा जैन के अनुसार भूजल का पूरा विकल्प नहरें नहीं हो सकतीं हैंI नहरों में पानी नदियों से आता है, जिनमें पानी की मात्रा मौसम पर निर्भर करती है और पिछले कुछ वर्षों से देश की लगभग हरेक नदी में पानी का बहाव कम होता जा रहा हैI

नहरों के साथ पानी के असमान वितरण की समस्या भी हैI नहरों के पास के खेतों में जब सिंचाई की जाती है, तब पर्याप्त पानी उपलब्ध रहता है, लेकिन नहरों से खेतों की दूरी जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, किसानों को पानी की कमी का सामना करना पड़ता हैI नहरें हरेक जगह पहुंच भी नहीं सकती हैं, इसीलिए भूजल का उपयोग बढ़ता गया था, जो हरेक जगह उपलब्ध हैI

फिलीपींस में नार्थ कैरोलिना स्टेट यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के एक गहन अध्ययन से पता चलता है कि बढ़ते तापमान से धान की पैदावार कम होती हैl प्रोफेसर रोडरिक रेजेसुस की अगुवाई में किये गए इस अध्ययन में सारे आंकड़े फिलीपींस के धान के खेतों से एकत्रित किये गए थेl इस दल ने धान की पैदावार का अध्ययन तीन वर्गों में किया थाl पहले वर्ग में परंपरागत खेती, दूसरे में हरित क्रांति के बाद के बाद की खेती और तीसरे वर्ग में आधुनिक खेती, जिसे बढ़ते तापमान के अनुरूप ढाला गया हैl

अध्ययन का निष्कर्ष है कि बढ़ते तापमान का असर सबसे अधिक परम्परागत खेती पर पड़ता है और सबसे कम आधुनिक खेती पर, पर असर हरेक प्रकार की खेती पर होता हैl इस दल ने अध्ययन के लिए वर्ष 1966 से 2016 तक के आंकड़ों का विश्लेषण किया हैl

सितम्बर 2018 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार 2030 तक पश्चिमी अफ्रीका के देशों में अनाज की उत्पादकता में 2.9 प्रतिशत और भारत में 2.6 प्रतिशत तक की कमी होगी, जबकि कनाडा और रूस में इनमें क्रमशः 2.5 और 0.9 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी होगीI इस रिपोर्ट के अनुसार 2050 तक दुनिया की आबादी 10 अरब तक पहुंच जाएगी और दुनिया में फसलों की पैदावार कम होने से भूखे लोगों की आबादी भी बढ़ेगीI

वर्ष 2000 से 2010 के आंकड़ों के अनुसार दुनिया के सन्दर्भ में प्रति व्यक्ति प्रत्येक दिन 7322 किलो जूल ऊर्जा प्राप्त करता है और इसमें से 66 प्रतिशत से अधिक गेंहू, चावल, मोटे अनाज और पाम आयल से प्राप्त होता हैI तापमान वृद्धि के कारण साल 2030 तक चावल, गेंहू, मक्का और ज्वार की उत्पादकता में 6 से 10 प्रतिशत तक की कमी होगीI

इन अध्ययनों से इतना तो स्पष्ट है की तापमान वृद्धि के कारण फसलों की पैदावार पर असर पड़ेगा और किसानों को इस पैदावार की भरपाई के उपाय समय रहते तलाशने होंगेl पर, जलवायु परिवर्तन का दुखद पहलू यह भी है कि कहीं इससे परंपरागत खेती ही समूल नष्ट न हो जाएl

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