पाकिस्तान चुनाव: 'तानाशाही व्यवस्था' के खिलाफ जनता की खुली बगावत और उपमहाद्वीप की राजनीति के लिए संदेश

समय का चक्र कभी रुकता नहीं है। वहां वही सब कुछ होगा जो एक तानाशाही व्यवस्था के विरूद्ध संघर्ष में होता है। और उम्मीद है, जनता फौज की हर चाल का विरोध करेगी।

इस्लामाबाद में शनिवार को चुनाव आयोग के बाहर इमरान खान की पार्टी पीटीआई कार्यकर्ताओं का प्रदर्शन (फोटो - Getty Images)
इस्लामाबाद में शनिवार को चुनाव आयोग के बाहर इमरान खान की पार्टी पीटीआई कार्यकर्ताओं का प्रदर्शन (फोटो - Getty Images)
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ज़फ़र आग़ा

कभी-कभी व्यवस्था या पाकिस्तान के संदर्भ में कहें तो इस्टैबलिशमेंट की जो मर्जी होती है, नतीजे ठीक उसके उलट होते हैं। हमारे पड़ोस पाकिस्तान में ठीक वैसा ही हुआ। पाकिस्तान के चुनावी नतीजे सिर्फ पाकिस्तान के भविष्य के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं हैं, बल्कि इसका प्रभाव संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप की राजनीति को प्रभावित कर सकता है। लेकिन, पाकिस्तान में चौंकाने वाले चुनावी नतीजों का आखिर रहस्य क्या है। यह एक लंबी गाथा है।

लगभग डेढ़ वर्ष पूर्व इमरान खान को यह भ्रम हो गया था कि उनका कद देश की फौज से बड़ा हो गया। बस, उन पर ‘व्यवस्था’ का आतंक टूट पड़ा। देखते-देखते इमरान और उनकी पत्नी बुशरा बीबी को सलाखों के पीछे भेज दिया गया और वे महीनों से जेल की हवा खा रहे हैं। इमरान पहले सत्ता से बाहर हुए और फिर पार्टी का सारा नेतृत्व या तो जेल गया या उनकी पार्टी छोड़कर भाग गया। उन्हें पहले भ्रष्ट करार दिया गया, फिर उनकी पार्टी से उनका चुनावी चिह्न छीन लिया गया। हद तो तब हुई जब इमरान खान और बुशरा बीबी की शादी भी अवैध घोषित कर दी गई।

परंतु एक समय वह भी था जब इमरान खान पाकिस्तानी फौज के ‘बेबी’ कहलाते थे। आलम यह था कि फौज लिखती थी और इमरान खान हस्ताक्षर करते थे। सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। लेकिन इमरान खान को भ्रम हुआ कि फौज की अनदेखी कर वह जो चाहें कर सकते हैं। वह यह भूल गए कि जिसने भी यह सपना देखा, वह या तो जान से गया या फिर जान बचाने के लिए पाकिस्तान से भागकर विदेश चला गया।

1970 के दशक में जुल्फिकार अली भुट्टो को फौज ने फांसी चढ़वा दिया था। फिर उनकी बेटी बेनजीर भुट्टो की गोली मारकर हत्या करवा दी गई। और तो और, इन दोनों के अलावा पाकिस्तानी फौज की फिलहाल आंखों के तारे बने नवाज शरीफ को भी दो बार देश छोड़कर विदेश में पनाह लेनी पड़ी।

खैर, ऐसी क्या बात है कि पाकिस्तान में चुनाव तो होते हैं, पर सत्ता फौज के ही हाथों में होती है? दरअसल, पाकिस्तान का जन्म जिन शक्तियों के कारण हुआ, उन्होंने उस समय भी लोकतांत्रिक प्रणाली स्वीकारी ही नहीं थी। लेकिन, आखिर, वह कौन सी शक्ति है जो पाकिस्तान में लोकतंत्र के विरोध में है। यह गुत्थी सुलझाने के लिए पाकिस्तान आंदोलन को समझना होगा।


दरअसल 1920 और 1930 के दशक में जब भारत का स्वतंत्रता संग्राम तेज हुआ तो कांग्रेस पार्टी ने यह बात स्पष्ट कर दी थी कि स्वतंत्र भारत एक आधुनिक राष्ट्र होगा। इसके लिए यह अनिवार्य था कि देश में सामंती व्यवस्था समाप्त की जाए। बस, इस बात से मुस्लिम समाज का सामंती गुट विचलित हो गया। कारण यह था कि सदियों से चली आ रही राजशाही व्यवस्था में देश की सत्ता तो सामंतों के ही हाथों में थी।

जब भारत में आधुनिक राजपाट की चर्चा चली तो विशेषतया मुस्लिम सामंतों को अपना भविष्य खतरे में लगा। उसी गुट ने ‘इस्लाम खतरे में’ का नारा उठाकर देश का बंटवारा कर दिया। पाकिस्तान के जननायक बने मोहम्मद अली जिन्ना की मृत्यु के कुछ ही समय बाद वहां जो कुछ लोकतांत्रिक व्यवस्था बन रही थी, उसको पलट जनरल अय्यूब खां ने सत्ता फौज के हाथों में सौंप दी। बस, तब से आज तक पाकिस्तान में चुनाव तो होते हैं लेकिन वह एक ‘फिक्स्ड मैच’ ही होते हैं। अभी का चुनाव के नाम पर तमाशा भी एक फिक्स्ड मैच ही है।

पर सवाल तो यह है कि सत्ता तो फौज के पास है। आखिर इसका सामंतों से क्या लेना-देना? जमीनी स्थिति यह है कि सत्ता पूर्ण रूप से सामंतों के ही हाथ में है, फौज तो केवल उनकी अंगरक्षक है। तभी तो अपने जन्म 1947 से आज तक पाकिस्तान में बड़े-बड़े सामंत हजारों हजार एकड़ जमीन के मालिक बने बैठे हैं। फौज का काम यह है कि चुनाव के माध्यम से चुने गए नेता पर कड़ी नजर रखे और यह सुनिश्चित करे कि नेता देश की आर्थिक दशा बदलने की कोई कोशिश न करे।

जैसे ही यह संभावना होती है, सामंतों की अंगरक्षक फौज लोकतांत्रिक नेता का तख्ता पलटकर एक दूसरा मोहरा बैठा देती है। यह एक चक्र है जिसमें देश की जनता पिस रही है। परंतु समय तो कभी रुकता नहीं है। जैसे-जैसे समय बदलता है, वैसी-वैसी जनता की अपेक्षाएं बदलती जाती हैं। इन अपेक्षाओं को जो बदलना चाहता है, उसे सामंती व्यवस्थाओं में बदलाव की आवश्यकता होती है। बस, वही समय होता है जब सामंती अंगरक्षक फौज उसका तख्ता पलटकर व्यवस्था को अपनी राह पर चला देती है। यही कारण है कि पाकिस्तानी राजनीति सांप-सीढ़ी का खेल बन गई है। जैसे ही लोकतांत्रिक नेता तेजी से ऊपर पहुंचता है, वैसे ही फौजी सांप उसे डंस लेते हैं। इमरान खान को भी फौजी सांप ने डंस लिया।


परंतु यह भी ऐतिहासिक सत्य है कि समय का चक्र कभी रुकता नहीं है। सामंती व्यवस्था लगभग सारे संसार में समाप्त हो चुकी है। पाकिस्तान में चुनावी परिणाम इसी बात का एक ऐतिहासिक सत्य है। अब प्रश्न यह है कि पाकिस्तान की राजनीति कौन-सी करवट लेगी। वही जो ऐसी स्थिति में सदा होता रहा है। स्पष्ट है कि फौज अपने मोहरों को आगे कर एक बार पुनः लोकतांत्रिक ड्रामा रचेगी। पहले नवाज शरीफ एवं भुट्टो की पार्टियों के दलों का गठबंधन बनवाया जाएगा। फिर भी बात नहीं बनी, तो इमरान खान की पार्टी भी तोड़ दी जाएगी। यदि इस काम में समस्या हुई तो फौज की तोप एवं अपार दौलत के लालच से बात बनवाई जाएगी।

सारांश यह कि वही सब कुछ होगा जो एक तानाशाही व्यवस्था के विरूद्ध संघर्ष में होता है। जनता फौज की हर चाल का विरोध करेगी। फौज का दमन बढ़ता जाएगा। यह चक्र कब तक चलेगा, कहना मुश्किल है। परंतु यह भी स्पष्ट है कि यह संघर्ष केवल इमरान खान का नहीं रहा। अब तो घमासान होगा और यह पाकिस्तानी फौज और जनता के बीच होगा।

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