पंचेश्वर बांध: विनाश की आहट

इस परियोजना से भारत के हिस्से में कुल 30000 परिवार विस्थापित होंगे और यहां की विशेष संस्कृति और परंपरा हमेशा के लिए समाप्त हो जायेगी। साथ ही पूरे क्षेत्र की जैव-विविधता हमेशा के लिए नष्ट हो जायेगी।

फोटो: सोशल मीडिया
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महेन्द्र पांडे

पीएम मोदी लगातार कहते रहे हैं, पर्यावरण संरक्षण की हमारे देश में 5000 वर्षों से परंपरा चली आ रही है, और दूसरी तरफ पर्यावरण के विनाश की नयी परिभाषाएं लिखी जा रही हैं। इस महीने के अंत में उनकी प्रस्तावित नेपाल यात्रा का एक बड़ा एजेंडा पंचेश्वर बांध के कामकाज की समीक्षा भी है। वर्ष 2014 से इस बांध का निर्माण उनका प्रमुख एजेंडा रहा है। पंचेश्वर बांध रॉकफिल प्रकार का बांध है और इसे दुनिया का सबसे ऊंचा बांध कहकर प्रचारित किया जा रहा है। पूरी दुनिया का अब बड़े बांधों से मोहभंग हो चुका है और अनेक देश ऐसे बांधों को नदी के रास्ते से हटा रहे हैं। बहुत सारे अध्ययन बताते हैं कि बड़े बांध फायदे से अधिक नुकसान पंहुचाते हैं। ऐसे दौर में सबसे ऊंचे बांध को बना देना कम से कम ऐसी कामयाबी नहीं हैं जो सही मायनों में सर ऊंचा कर सके। जिस केदारनाथ के दर्शन करने पीएम मोदी बार-बार जाते हैं और हरेक बार जाकर उसके पुनरुद्धार में अपने योगदान की चर्चा करना नहीं भूलते, कम से कम वहां बाढ़ से विनाश को ही याद करते तो शायद पहाड़ों और नदियों को बांधने की बात नहीं करते।

पंचेश्वर बांध भारत-नेपाल बॉर्डर के पास शारदा नदी पर बनाया जा रहा है। शारदा नदी को नेपाल में महाकाली कहा जाता है। इस बांध से भारत में उत्तराखंड के पिथोरागढ़, चम्पावत और अल्मोड़ा जिले और नेपाल के धार्चुला, बैताड़ी और डडेलधुरा जिले प्रभावित होंगे। इस परियोजना के अंतर्गत दो बांध बनने है, मुख्य बांध 311 मीटर ऊंचा और दूसरा बांध 81 मीटर ऊंचा होगा। अनुमान है कि इससे 5600 मेगावाट बिजली का उत्पादन किया जा सकेगा। इसका रिजर्वायर क्षेत्र 72 वर्ग किलोमीटर होगा यानी इतने बड़े इलाके की हरेक चीज डूब जायेगी। बांध के बनने के बाद भारत में 259000 हेक्टेयर भूमि पर और नेपाल में 170000 हेक्टेयर भूमि पर सिंचाई की सुविधा दी जा सकेगी। पंचेश्वर बांध भारत और नेपाल के बीच वर्ष 1981 में किये गए महाकाली समझौते का हिस्सा है, पर प्रधानमंत्री मोदी ने वर्ष 2014 में बांध बनाने के लिए नेपाल के साथ मेमोरेंडम ऑफ़ अंडरस्टैन्डिंग पर हस्ताक्षर किये और पंचेश्वर डेवलपमेंट अथॉरिटी का गठन किया गया।

एनवायर्नमेंटल जस्टिस एटलस के अनुसार, इस परियोजना से भारत के हिस्से में कुल 30000 परिवार विस्थापित होंगे और यहां की विशेष संस्कृति और परंपरा हमेशा के लिए समाप्त हो जायेगी। 11600 हेक्टेयर क्षेत्र डूब जाएगा और इसके साथ ही पूरे क्षेत्र की जैव-विविधता हमेशा के लिए नष्ट हो जायेगी। भू-दृष्य हमेशा के लिए बदल जाएगा, बाढ़ के खतरे बढेंगे, विस्थापितों में खाद्य और पानी की असुरक्षा पनपेगी, भूमि का अपरदन, वनों का कटना, वनस्पति के क्षेत्र में कमी, नदियों में प्रदूषण, जल गुणवत्ता में गिरावट, भूजल में कमी और जल तथा भौगोलिक परिस्थितियों में तेजी से बदलाव आयेंगे। वन्यजीव और कृषि-विविधता में कमी के साथ ही विस्थापितों में बेरोजगारी बढ़ेगी। यह स्पष्ट तौर पर मानवाधिकार हनन का मामला होगा। महिलाएं विशेष तौर पर प्रभावित होंगी और 30000 परिवारों के अस्तित्व का सवाल होगा। यह भूकंप के लिहाज से देश के सबसे सक्रिय क्षेत्रों में है, इसलिए बड़े भूकंप से नुकसान का खतरा हमेशा बना रहेगा।

पंचेश्वर बांध के बनने का विरोध स्थानीय पर्यावरण के जानकारों के साथ अनेक अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं भी कर रही हैं। स्थानीय जन हरेक तरह से इस परियोजना का विरोध कर रहे हैं। पर, सरकार ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है। प्रधानमंत्री की परियोजना में रूचि को ध्यान में रखते हुए इस परियोजना को आनन-फानन में पर्यावरण स्वीकृति प्रदान कर दी गयी, जबकी इसकी पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन रिपोर्ट में गलत जानकारियां भरी पड़ी थीं। अनेक स्थानीय संस्थाओं ने पर्यावरण मंत्रालय का ध्यान इन गलत और अपूर्ण जानकारियों की तरफ दिलाया, पर मंत्रालय को आंख मूंद कर इसे पर्यावरण स्वीकृति देनी थी और उसने यही किया।

इसके लिए जन-सुनवाई तो एक तमाशा था, प्रभावित लोगों को जन-सुनवाई में जाने से रोका गया, विरोध में बोलने वालों को जन-सुनवाई से बाहर का रास्ता दिखाया गया। कुल मिलाकर, पंचेश्वर बांध परियोजना सरकारी तानाशाही का एक उदाहरण है। इससे सरकार की कथनी और करनी में फर्क भी स्पष्ट होता है। भाषणों में तो पर्यावरण संरक्षण की परंपरा का राग होता है, पर करनी में विनाश ही विनाश है। हिमालयी क्षेत्रों में बड़े बांधों और बड़ी पन-बिजली परियोजनाओं पर तो सर्वोच्च न्यायालय भी अनेक बार सरकार की खिंचाई कर चुका है।

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