दलबदलू गिना तो देते हैं कई कारण, लेकिन छिपा ले जाते हैं खुद की वजहें और गले में पहन लेते हैं नई पार्टी का पट्टा

नेता पार्टी बदलें तो जाते-जाते अपनी पुरानी पार्टी की खामियां गिनाने लगते हैं। लेकिन जिन वजहों ने वे अपना पता बदलकर गले में दूसरी पार्टी का पट्टा पहनते हैं, उन्हें छिपा ले जाते हैं।

सांकेतिक तस्वीर
सांकेतिक तस्वीर
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अनिल चमड़िया

बल्लभ गौरव ने भी 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी का गले में पट्टा लटका लिया। उन्होंने भी बीजेपी में जाने वाले दूसरे लोगों की तरह आरोप लगाया। आरोप ही आने जाने वाले रास्ते का नाम है। पण्डित बल्लभ ने आरोप लगाया कि कांग्रेस डाईरेक्शन लेस यानी दिशाहीन हो गई है। इनके पहले जाने वाले भी कोई न कोई आरोप ही लगाकर गए हैं।

हाल के दिनों या सालों में बीजेपी का पट्टा लटकाने वाले जो भी लोग हैं, और उनके द्वारा पार्टी छोड़ने के जो कारण बताए गए हैं, उनकी फेहरिस्त बनाएं तो एक समानता नजर आती है। मसलन मध्य प्रदेश के सुरेश पचौरी कई दशकों से कांग्रेस में कई अहम पदों पर रहे, लेकिन जब गए तो कहा कि उन्हें सम्मान नहीं मिला। मुंबई में बसे बिहारी संजय निरुपम को अचानक लगने लगा कि अब जमाना नेहरुवादी समाजवाद का नहीं रहा। ऐसे कारणों की सूची देखें तो शंका होने लगती है कि कांग्रेस राजनीतिक दल है कि नहीं, या सिर्फ हवा में ही चुनाव लड़ती रही है।                 

यहां लेखक की तरफ से एक स्पष्टीकरण है। यहां जो कहा जा रहा हैं, उसे पढ़ने वाले उसका मतलब ठीक ठीक उसी तरह लगा लें, जैसे लिखा गया है। बीजेपी का पट्टा लटका लिया, यह इस संदर्भ में है कि यह संसदीय राजनीति में एक नई संस्कृति का चिह्न है। किसी एक नेता या व्यक्ति को दूसरी चुनावबाज पार्टी में जाने के लिए कुछ ज्यादा नहीं करना होता है। बस गले में एक नई पार्टी का नया पट्टा लटकाना होता है। वह पट्टा उसकी नई गली का पता होता है।

दूसरी बात यह भी स्पष्ट रहे कि यह किसी एक विशेष पार्टी से दूसरी किसी विशेष पार्टी की तरफ जाने पर भी टिप्पणी नहीं है। यहां कांग्रेस से भाजपा में जाने की चर्चा जरुर की गई है। लेकिन कांग्रेस में भी भाजपा से कई कुर्सीधारी नेता आए हैं।

अन्य पार्टियां भी हैं। जैसे समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता रहे गौरव भाटिया जब बीजेपी में गए थे तो गौरव बल्लभ ने शायद यही पूछा होगा कि उन्हें भी पार्टी बदलनी है तो क्या कहें, ऐसे में संभवता जवाब रहा होगा कि जैसाकि उन्होंने कहा, वही कह दीजिएगा। तीसरी बात यह भी स्पष्ट है कि पार्टियों के प्रवक्ताओं के पार्टी बदलने तक भी यह सीमित हैं। प्रवक्त्ता टेलीविजन स्क्रीन पर दिखते हैं तो उन्हें लगता है स्क्रीन ही समाज है। वे स्क्रीन से  हटे और विचारधारा दुर्घटनाग्रस्त हो गई। आने-जाने वाले लोगों का इतिहास देखिए। उनका अता-पता नहीं मिलता है।   


यह साफ साफ दिखता है कि कुर्सी के लिए टिकट उनके गले में पेंडलुम की तरह लटका रहता है। उनका जीना इधर उधर घूमने में ही दिख सकता है। उन्हें किसी न किसी विचारधारा के पक्ष में बोलते हुए दिखना है, यह उनका धंधा है। वह अपने धंधे में इतने माहिर है कि उल्टी भाषा बोल सकते हैं। इसे अभिजात्य भाषा में भाषण की कला कहते हैं।

यह तो साफ हो गया है कि चुनाव धंधेबाजों का धंधा है।  कई तरह के पेशे वालों की जरूरत होती है। चुनाव में हार जीत का गणित बनाने वाले विशेषज्ञ भी होते हैं। वे किसी भी पार्टी के लिए कभी भी काम करते दिख सकते हैं। काम मतलब कमाई। काम मतलब कुर्सी। काम मतलब ....... । नया चुनाव मतलब उसके लिए धंधे के लिए नई जगह की तलाश। बाजार होता है धंधेबाजों का अड्डा। लोकतंत्र और समाजवाद बाजार के धंधेबाजों की भेंट चढ़ चुका है। यह तो विदित ही होगा। प्रवक्ताई भी धंधा है। प्रवक्ताई का कम्पटीशन टेलीविजन स्क्रीन पर लोग देख लेते हैं।

पार्टी कोई धंधेबाज बदलता है तो इसमे मैं कोई बुराई नहीं देखता हूं। धंधा है जिस गली में चलता है वही जाया जाता है। लेकिन धंधेबाज जब धंधेबाज के अलावा कुछ और होने का दावा करता है तो फिर एतराज होता है। जैसे टेलीविजन स्क्रीन पर चमकने वाले चेहरे होते हैं। वे स्क्रीन वाले एंकर कहलाते है और कलम वाले खुद को पत्रकार बुलाते हैं। यह कुल मिलाकर है मीडिया का धंधा। जैसे रामदेव कंपनी चलाते हैं लेकिन वह धंधा चलाने के लिए गेरूआ पहनते हैं। धार्मिक होने का भ्रम पैदा करते है और धंधे को राष्ट्र प्रेम बताते हैं। उनका राष्ट्र मतलब धंधे की जगह।

जो लोग इधर उधर जाते हैं वे दरअसल विचारधारा में विफल लोग है। इस मायने में कि वे अपनी असलियत को छुपा नहीं पाते हैं। पार्टी के छोड़ने का फैसला नितांत व्यक्ति का अपना होता है। वैसे लोग खुद के लिए जीते हैं। विचारधारा का नकाब ओढ़ लेते हैं।

यहां एक घटना याद आ रही है। दिल्ली में इंडियन न्यूजपेपर्स सोसायटी का विशाल दफ्तर है। वह जमाना केंद्र में यूपीए की सरकार का था। फिल्म वाले अनुपम खेर बीजेपी में जाने के लिए भूमिका बना रहे थे। इनकी पत्नी किरण खेर बीजेपी की सांसद हैं। एक प्रमुख समाचार पत्र के प्रमुख व्यक्ति अपने को धर्म निरपेक्ष बताते हैं।  वे उस समय धर्मनिरपेक्षता वादियों के खिलाफ गुस्सा जाहिर कर रहे थे कि अनुपम खेर को जबरन साम्प्रदायिकता की तरफ धकेला जा रहा है। मैंने पूछा, कैसे? उन्होंने बताया कि अनुपम खेर पर बीजेपी की तरफ झुकने का आरोप लगाया जा रहा है।


लेकिन उनकी प्रतिक्रया में जो मूल बात है, उस पर गौर करने की जरुरत हैं। क्योंकि अनुपम खेर की ही तरह सभी खुद को बीजेपी की तरफ धेकेले जाने की वजहें बता रहे हैं। कांग्रेस में आने की वजह बता रहे हैं। खुद की वजह को छुपाकर। मूल बात कि उन्हें बीजेपी की तरफ धकेला जा रहा है। प्रेमचंद की कहानी है पंच परमेश्वर। इसमें पीडित महिला पंच से पूछती है कि क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं करोगे?

यहां इमान जो है वह विचारधारा है। समाज को बनाने की विचारधारा। बिगाड़ का डर व्यक्तिगत स्वार्थ है। क्या किसी को ईमानदारी इसीलिए भूल जानी चाहिए कि उसे कोई कुर्सी पर बैठने के लिए नहीं पूछ रहा है?  समाज में सच बोलना इसीलिए छोड़ देना चाहिए क्योंकि बाजार में झूठ बिकता है? पार्टियां बदलने वाले साम्प्रदायिकता और धर्म निरपेक्षता का इस्तेमाल ‘बिगाड़’ के अपने डर को छुपाने के लिए करते हैं। यह दुखी करता है। वे अपने हितों के लिए राजनीति का इस्तेमाल करते हैं। राजनीति उनके लिए गले का पट्टा हैं। गली में घूमने का लाइसेंस हैं।

(यह लेखक के अपने विचार हैं)

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