वादा तो कर लिया पीएम मोदी ने, लेकिन कोयले का इस्तेमाल खत्म करने विकल्प क्या है! यही है खरबों डॉलर का सवाल

भारत-जैसे देश अनिश्चित काल तक कोयले के सहारे नहीं रहेंगे। हमारे पास जो कोयला भंडार है, वह 2050 से आगे नहीं चल पाएगा। उसके विकल्पों को खोजना होगा। फिलहाल हम शत-प्रतिशत किसी अन्य माध्यम पर नहीं जा सकते क्योंकि प्राकृतिक गैस का उत्पादन सीमित है।

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प्रमोद जोशी

स्कॉटलैंड के ग्लासगो में 26वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन (कॉप-26) में भारत ने नेट-जीरो उत्सर्जन के लिए अपनी समय-सीमा तय कर दी है। अब सवाल यह है कि हम इस लक्ष्य को किस प्रकार हासिल करेंगे? भारत ने 2070 तक नेट-जीरो के लक्ष्य को प्राप्त करने के अलावा 2030 तक ऊर्जा की अपनी 50 प्रतिशत जरूरतें अक्षय ऊर्जा से पूरी करने का लक्ष्य भी घोषित किया है। इसके लिए भारत 2030 तक अपनी गैर-जीवाश्म ऊर्जा क्षमता को 500 गीगावाट तक पहुंचाएगा।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की इन घोषणाओं से कुछ विशेषज्ञों को हैरत हुई है क्योंकि अभी तक भारत कहता रहा है कि नेट-जीरो लक्ष्य इस समस्या का समाधान नहीं है और भारत इस मामले में किसी के दबाव में नहीं आएगा। विकसित देशों और चीन की तुलना में भी भारत अपने औद्योगिक विकास के शिखर से कई दशक दूर है। भारत में इस समय जरूरत की 70 फीसदी ऊर्जा कोयले से उत्पन्न हो रही है। भारत में ही नहीं, चीन में भी कोयला अभी ऊर्जा का मुख्य साधन है। इसका विकल्प अभी तक तैयार नहीं है। हालांकि भारत में दुनिया की सबसे सस्ती सौर ऊर्जा तैयार हो रही है, पर अभी इसे ग्रिड से जोड़ने की तकनीक विकसित नहीं हो पाई है। इसके अलावा भारत को हाइड्रोजन और उसके भंडारण की तकनीक विकसित करने में समय लगेगा। विशेषज्ञों का अनुमान है कि यह काम 2040 तक हो पाएगा।

खेल शब्दों का

संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलनों के क्रम में मैड्रिड में हुए कॉप-25 में सहमतियां नहीं बन पाईं थीं। उसके मुकाबले कॉप- 26 में आंशिक सफलता मिली है जिसमें शामिल करीब 200 देश ग्लासगो जलवायु समझौते को अपनाने के लिए सहमत हुए हैं। इसमें कार्बन मार्केट का पुराना मसला सुलझा है। 13 नवंबर की रात को ‘ग्लासगो क्लाइमेट पैक्ट’ नामक समझौते को अपनाने के साथ सम्मेलन समाप्त हो गया। अनेक प्रश्न अनुत्तरित हैं जिन पर भविष्य में विचार होगा। कॉप-27 अगले वर्ष मिस्र में होगा।

सम्मेलन के आखिरी क्षणों में भारत, चीन, ईरान, वेनेजुएला और क्यूबा ने ग्लासगो-सहमति के प्रारूप में ‘कोयले की निरंतर जारी ताकत और जीवाश्म-ऊर्जा (मुख्यतः कोयला, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस) पर लग रही अक्षम सब्सिडी को ‘खत्म करने’ (फेज-आउट) के विचार को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। अंततः अंतिम घोषणापत्र में भारत द्वारा प्रस्तावित संशोधन स्वीकार किया गया जिसमें फेज-आउट की जगह ‘फेज्ड-डाउन’ शब्द को रखा गया है। इस संशोधन को चीन का समर्थन भी प्राप्त था।

इस शाब्दिक नरमी से कई देश नाराज हुए हैं, पर उन्होंने इसे अपनी स्वीकृति दे दीहै। अब भारत और चीन पर कोयले का इस्तेमाल कम करने का वैश्विक दबाव बढ़ता ही जाएगा। भारत का कहना है कि जीवाश्म ईंधन की मदद से दुनिया ने तेज प्रगति की है। विकसित देश भी पूरी तरह से कोयले के इस्तेमाल को खत्म (फेज-आउट) नहीं कर पाए हैं। अब उन्हें जलवायु वित्त-सहायता की जिम्मेदारी लेनी चाहिए और विकासशील देशों को जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को जारी रखने का अधिकार मिलना चाहिए।


अमीरों से मदद चाहिए

भारत ने यह भी कहा है कि उसे अपनी 2030 की प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए एक हजार अरब (ट्रिलियन) डॉलर की जरूरत होगी। रेल सेवाओं तथा अन्य उद्योगों में 500 गीगावाट की गैर- जीवाश्म ऊर्जा के इस्तेमाल के लिए और एनडीसी (राष्ट्रीय योगदान) को पूरा करने के लिए भारत को विकसित दुनिया की ओर से भी वादा चाहिए।

सन 2015 में हुए पेरिस समझौते का लक्ष्य है कि वैश्विक तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 2 डिग्री सेल्सियस से ‘पर्याप्त नीचे’ आना चाहिए और तमाम देशों को ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए ‘प्रयास’ करना चाहिए। ग्लासगो समझौते में इस बात पर सहमति बनी है कि देश ईंधन के स्रोत के रूप में कोयले के उपयोग को कम करें और जीवाश्म ईंधन पर ‘अक्षम’ सब्सिडी को समाप्त करने के लिए प्रयास करें। सभी देश कोयले के उपयोग को चरणबद्ध तरीके से कम करेंगे।

पर्यावरण मंत्री भूपेन्द्र यादव ने सम्मेलन में पूछा कि कोई विकासशील देशों से कोयले और जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को बंद करने के वादे की उम्मीद कैसे कर सकता है जबकि हमें अब भी विकास- एजेंडा और गरीबी से निपटना है।

वैसे, भारत-जैसे देश अनिश्चित काल तक कोयले के सहारे नहीं रहेंगे। हमारे पास जो कोयला भंडार है, वह 2050 से आगे नहीं चल पाएगा। हमें उसके विकल्पों को खोजना होगा। फिलहाल हम शत-प्रतिशत किसी अन्य माध्यम पर नहीं जा सकते क्योंकि प्राकृतिक गैस का उत्पादन सीमित है और अक्षय ऊर्जा की भी सीमाएं हैं। नाभिकीय ऊर्जा एक विकल्प है।

सौर ऊर्जा

पेरिस समझौते के साथ ही 2015 में भारत ने सौ देशों का सौर गठबंधन बनाने की घोषणा की थी। इस गठबंधन के तहत भारत का लक्ष्य वर्ष 2030 तक 450 गीगावाट बिजली उत्पादन करना है। इसमें 280 गीगावाट सौर ऊर्जा होगी। इसमें से 100 गीगावाट का लक्ष्य 2022 तक हासिल होने की उम्मीद है।

भारत में औसतन 300 दिन सूरज की खुली रोशनी उपलब्ध रहती है। सौर ऊर्जा के लिए जरूरी निवेश और तकनीक अब भी चुनौती है। देश में इस समय सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए सब्सिडी का सहारा लिया जाता है। ऐसा हमेशा नहीं चलेगा। दूसरे, सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा को प्राकृतिक परिस्थितियों पर निर्भर रहना होता है। हाल के वर्षों में कचरे से बिजली बनाने की कोशिशें भी हुई हैं। इनकी तुलना में नाभिकीय ऊर्जा ज्यादा व्यावहारिक है जिसका उत्पादन काफी बड़े स्तर पर हो सकता है। उसे सुरक्षित बनाने पर शोध लगातार जारी है।

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