कुलदीप कुमार की कविता राग कोरोना: चांदनी रात में सहमी परछाइयां जा रहीं श्मशान, मृत्यु नहीं मानती 6 फीट दूरी का विधान
आश्चर्यों से भरे हमारे देश में आजकल मृत्यु का उत्सव मनाया जा रहा है, कोरोना को भी उल्लास के साथ गाया जा रहा है, थालियाँ और तालियाँ दोनों बज रही हैं, दीये जल रहे हैं, पटाखे चल रहे हैं, लोग पटापट मर रहे हैं।

मृत्यु वह राग है
जिसे जीवन
अभिशाप की तरह ढोते हुए
गाता है,
सुर वही रहते हैं
नाम हर बार बदल जाता है।
इन दिनों उसका नाम
कोरोना है,
यही अकेला राग है
जिसमें केवल अवरोह है
आरोह नहीं,
मुरकियां कब हिचकियाँ बन जाएँगी
गाने वाले को भी
गाते-गाते ही पता चलता है।
उस क्षण
सकल सृष्टि को ढाँप लेने वाले
इसके फन पर
तानों का तांडव होता है।
आश्चर्यों से भरे
हमारे देश में आजकल
मृत्यु का उत्सव मनाया जा रहा है
कोरोना को भी
उल्लास के साथ
गाया जा रहा है
थालियाँ और तालियाँ
दोनों बज रही हैं
दीये जल रहे हैं
पटाखे चल रहे हैं
लोग पटापट मर रहे हैं।
चाँदनी रात में सहमी-सहमी परछाइयाँ
जा रही हैं श्मशान
मृत्यु नहीं मानती
छह फ़ीट दूर रहने का विधान।
वह कुछ भी नहीं मानती
और जीवित रहती है हमेशा
एक वही है
शाश्वत।
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