क्रिकेट की पिच पर सियासी स्ट्रोक
जब पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेल ही लिया, तो हाथ न मिलाने का यह विरोधाभासी दिखावा क्यों?

प्रतिस्पर्धी खेलों से चरित्र का निर्माण होता है, ऐसा मानते हैं। इसके अतिरिक्त, कुछ खेलों में एक विशेष तरह का आकर्षण होता है, इससे सभ्य परंपराएं जुड़ी होती हैं। क्रिकेट भी ऐसा ही एक खेल है। कहावत के अनुसार यह ‘भद्रजनों का खेल’ है। इसका बड़ा कारण शुरुआती समय से उच्चवर्गीय लोगों का इसे खेलना तो रहा ही, इसके साथ ही इससे जुड़ी खेल भावना और इसे निष्पक्ष तरीके से खेलने पर जोर देना भी रहा।
इंग्लैंड में, जहां क्रिकेट का आविष्कार हुआ, यह कुलीन और पढ़े-लिखे शिक्षित वर्ग की प्रतियोगिता के रूप में विकसित हुआ। उदाहरण के लिए, क्रिकेट के पितामह माने जाने वाले डब्ल्यू.जी. ग्रेस एक डॉक्टर थे। उनके साथी इंग्लैंड की कप्तानी करते थे। लंदन स्थित मैरीलेबोन क्रिकेट क्लब (एमसीसी) ने 1788 से 1989 तक, 200 सालों तक क्रिकेट को नियंत्रित किया। एमसीसी ने ही क्रिकेट के नियम बनाए। इसी ने निष्पक्ष खेल के नियम और खेल के आधारभूत मूल्य भी तय किए। इन्हीं में है ‘क्रिकेट की भावना’ जिसका उल्लेख एमसीसी मैनुअल की प्रस्तावना में है। इसमें खिलाड़ियों से न केवल नियमों का पालन करने, बल्कि उच्च आचरण अपनाने का आग्रह किया गया है जिससे विरोधियों, टीम के साथियों, अंपायरों और खेल की विरासत के प्रति सम्मान बढ़े। यही वह चरित्र है जिसने महान क्रिकेट लेखक सर नेविल कार्डस को यह कहने के लिए प्रेरित किया कि यह ‘केवल एक खेल नहीं, बल्कि जीवन जीने का तरीका’ है!
समय के साथ राजनीति यह तय करने लगी कि कोई देश दूसरे किसी देश के साथ खेले या नहीं। इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जैसे श्वेत राष्ट्रों ने रंगभेद के दौर में भी दक्षिण अफ्रीका के साथ क्रिकेट संबंध बनाए रखे, जबकि नेहरूवादी भारत से प्रेरित अश्वेत देशों ने ऐसा नहीं किया- जब तक कि देश की कार्यकारी राजधानी प्रिटोरिया ने बहुजातीय समानता को आधिकारिक नीति के रूप में नहीं अपना लिया। इस मुद्दे पर दुनिया भले ही बंटी हुई थी, लेकिन विकासशील देशों ने भारत के रुख की सराहना की। भारत ने अपने रुख पर कायम रहने के लिए 1974 में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ टेनिस के डेविस कप फाइनल की कुर्बानी भी दे दी।
अब बात भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव की। दोनों देशों के बीच आखिरी द्विपक्षीय टेस्ट सीरीज 2006-07 में और आखिरी सीमित ओवरों की सीरीज 2012-13 में हुई थी। 2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के सत्ता में लौटने के बाद से पाकिस्तान के साथ कोई द्विपक्षीय सीरीज नहीं हुई; हालांकि, सीमित ओवरों के टूर्नामेंटों में आईसीसी (अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद) की प्रतिबद्धताओं के कारण पाकिस्तान जरूर आया था। इस साल की शुरुआत में भारत द्वारा आईसीसी चैंपियंस ट्रॉफी के मैच पाकिस्तान में खेलने से इनकार करने के बाद, पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड ने आगामी आईसीसी आयोजनों के लिए भारत न आने की धमकी दी।
एशिया कप आईसीसी द्वारा अनुमोदित टूर्नामेंट है, जिसका आयोजन एशियाई क्रिकेट परिषद करती है। शुरुआती शास्त्रीय आदर्शों पर टिके लोग इसे क्रिकेट कैलेंडर के एक अहम हिस्से के बजाय पैसा कमाने का जरिया मानते हैं। लेकिन अगर इसका आयोजन होना ही है, तो इतनी उम्मीद होती ही है कि खेल के चरित्र पर बट्टा न लगे।
9-28 सितंबर के बीच चल रहे एशिया कप से ऐन पहले का समय राजनीतिक रूप से संवेदनशील था। 22 अप्रैल को पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद, मई में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध छिड़ गया था। पहलगाम से पहले भी, पाकिस्तान ने कथित तौर पर 2016 में पठानकोट और उरी में भारतीय सैन्य प्रतिष्ठानों में घुसपैठ की थी और उस पर 2019 में पुलवामा में हुए आत्मघाती हमले को प्रायोजित करने का भी आरोप लगा था, जिसमें भारतीय अर्धसैनिक बल के दर्जनों जवान मारे गए थे।
2019 में अपने-अपने उच्चायुक्तों को वापस बुलाने से भारत और पाकिस्तान के बीच राजनयिक संबंधों का स्तर नीचे आ गया है। उसी साल प्रत्यक्ष व्यापारिक संबंध भी स्थगित कर दिए गए थे। पहलगाम के बाद भारत ने घोषणा की कि वह लगभग 65 साल पुरानी सिंधु जल संधि को स्थगित कर रहा है। यूं कहें कि दोनों देशों के आपसी रिश्ते इतने खराब पहले कभी नहीं रहे।
प्रधानमंत्री मोदी को यह कहते सुना गया है कि पहलगाम के बाद किया गया भारत का जवाबी हमला, ऑपरेशन सिंदूर, ‘अभी खत्म नहीं हुआ है’। वरिष्ठ रक्षा अधिकारियों को भी यही बात दोहराते सुना गया है। तो फिर, पाकिस्तान के खिलाफ भारत ने क्रिकेट मैच को मंजूरी कैसे दे दी? क्या तटस्थ स्थल पर आयोजन से उन कसमों की हेठी नहीं होती जिसके कारण भारत ने पाकिस्तान के साथ मैच खेलना बंद किया था? या फिर भाजपा-प्रभुत्व वाले बीसीसीआई के लिए दांव पर लगे मुनाफे का लालच इतना बड़ा था कि उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था?
इसके अलावा भी कुछ अन्य असहज सवाल हैं। टीम को भेजने और उसे पाकिस्तान के साथ खेलने की इजाजत देने का फैसला, सिंधु जल संधि के फैसले को सही ठहराते हुए मोदी के उस तीखे बयान से कैसे मेल खाता है जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘खून और पानी एक साथ नहीं बह सकते?’ क्या केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह के बेटे जय शाह के आईसीसी प्रमुख होने से भारत की भागीदारी का पलड़ा भारी हो गया? या, अगर राजनीति और खेल को अलग रखना है, जिसका जवाब होगा नहीं, तो फिर हाथ न मिलाने का खेल-भावना-विरोधी नाटक क्यों किया जाए, जबकि यह ‘क्रिकेट की भावना’ का इतना अभिन्न अंग है? अपने राजनीतिक खेल में क्रिकेटरों को मोहरे की तरह क्यों इस्तेमाल किया जाए?
चाहे जो भी तर्क दिया जाएं, संतुलन साधने की कोशिश बुरी तरह गड़बड़ा गई लगती है। ऐसा लगता है कि सत्ताधारियों को, थोड़ी देर से ही सही, यह एहसास हुआ कि भारत के जुनूनी क्रिकेट प्रेमी, जो भारत को पाकिस्तान से खेलते देखने के लिए जी-जान लगा देते हैं, पाकिस्तान के बारे में लानत-मलामत करते हुए भी टीम भेजने के इस दोहरे फैसले से चिढ़ गए। हाथ न मिलाने का यह तात्कालिक उपाय शायद नुकसान कम करने की राजनीतिक कोशिश थी। सरकार, बीसीसीआई या भारतीय क्रिकेट प्रतिष्ठान को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा कि भारतीय टीम और उसके कप्तान सूर्यकुमार यादव को उनकी जीत में इतना तुच्छ, इतना छोटा दिखाया गया।
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