मृणाल पांडे का लेख: भारत माता की मूल छवि का राजनीतिकरण और इससे उपजी आक्रामक उग्रता

भारत माता की छवि का एक लंबा इतिहास है, औरउसे क्रमिक तौर से पढ़ने से दिखता है कि जिनको इतिहास से राजनैतिक वजहों से छेड़छाड़करना सुहाता है, वे किस तरह छवियों और घटनाओं को सहीसंदर्भ से हटा कर अर्थ का अनर्थ कर सकते हैं।

फोटो : सोशल मीडिया
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मृणाल पाण्डे

राष्ट्र, राज्य विशेष की छवि 19वीं सदी में एक सशस्त्र और रक्षात्मक मुद्रा में खड़ी माँ के रूप में पहले पहल यूरोप में जर्मनी, स्वीडन और फ्रांस जैसे देशों के स्थापत्य में दिखाई जाने लगी थी। यूरोप से गहराई से प्रभावित 19वीं सदी में धीमे-धीमे बन रहे भारत के दक्षिणपंथी गुट भी पितृ सत्तात्मक समाज के पक्षधर थे, लेकिन वे भी उनकी ही तरह देश को माता मान कर उसको उसी तरह का आक्रामक सशस्त्र रूप देने को आगे आये जिसे वे घर के भीतर सचमुच की माताओं को देने के कतई खिलाफ थे।

आज भारत माता की जिस इकलौती छवि को संघ के ठेकेदार धुका रहे हैं, वह काफी हद तक अंतर्विरोध भरी और परिवार पर हावी पुरुष नेताओं की राजनैतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के वास्ते गढ़ी गई है ।

पहले पहल बंगाल में किरण चंद्र, बंकिम और अवनींद्रनाथ टैगोर जैसे लेखकों और कलाकारों द्वारा एक ग्रामवासिनी सरल निराभरण माता के रूप में बनाई गई भारत माता की जो मूल सात्विक छवि थी, उसे आज एक कलेंडरी कला से जोड़ कर झमाझम शेरांवाली माता के समतुल्य बड़ी हद तक राजसी, तामसिक बना दिया गया है।

गौरतलब है कि बंगाल के प्रसिद्ध चितेरे अवनींद्रनाथ टैगोर ने बांग्ला लेखकों की कल्पना के आधार पर भारत माता को सादे गेरुआ वस्त्रों में हाथ में धान की बालियाँ, वस्त्रखंड, माला और ताड़पत्र लिये करुणामयी निराभरण माँ के रूप में रचा था। वह मूल छवि जो बंगाल सहित गाँधीवादी रंग में रंगे भारत के सत्याग्रहियों के बीच तब बहुत लोकप्रिय थी, एक नई दक्षिणपंथी राजनीति के उदय के साथ ही हाशिये में धकेल दी गई।

भीषण सांप्रदायिक मारकाट के बीच हुए बँटवारे के साथ ही 1940 के आसपास भारत माता की एक नई छवि बनी। इसमें भारत के नक्शे की पृष्ठभूमि के सामने भारत माता को लाल रेशमी साड़ी में गहनों और मुकुट से लदी फँदी विजय पताका फहराती देवी बना कर दिखाया गया था। यही नहीं, उसकी रेशमी सुनहरी साड़ी के अंचल को विजय पताका की तरह लहराकर उसमें पाकिस्तान और म्यांमार तक को भारत के भीतर समेटा गया और नेपथ्य में खड़े शेर ने इस छवि को महिषासुर मर्दिनी देवी दुर्गा की मिथकीय छवि से सहज ही जोड़ दिया।

भारतमाता के इस सनातनीकरण से गैर हिंदू समुदायों को परहेज़ होना स्वाभाविक था। आज उसी परहेज़ को उनके देशद्रोह का सबूत बताया जा रहा है। यह साफ कपट है।

चलिये कहानी को सिरे से समझें । ‘भारतमाता’ दरअसल बंगाल के किरनचंद्र बंदोपाध्याय द्वारा अकाल और भुखमरी से घिरे बंगाल की दुर्दशा पर 1873 में लिखे एक लोकप्रिय नाटक का नाम था। इस नाटक में जन्मदायिनी उर्वरा बंगभूमि के कृषक समाज की अंग्रेज़ों के शासन तले फटेहाल मलिन दशा के चित्रण से प्रभावित हो कर 1882 में अन्य बांग्ला लेखक बंकिमचंद्र ने ‘आनंदमठ’ नामक अपना प्रसिद्ध उपन्यास लिखा। यह दाने दाने को तरसते उत्तर बंगाल में जबरन भारी लगान वसूलने वाले अंग्रेज़ी राज के खिलाफ 1773 में फूटे सन्यासी विद्रोह की गाथा है। इसी उपन्यास में संन्यासियों ने घने वन के बीच अपनी मातृभूमि की स्तुति में, ‘वंदे मातरम्’ का वह गाना सामूहिक रूप से गाया है, जो बाद को आज़ादी की लडाई के दिनों में बार बार गाया गया।

दुर्भाग्यवश भारतमाता को देवी और इस गीत को भी धार्मिक गान की रंगत दे कर आजकल उसे कई जगह एक तलवार की तरह भंजाया जाने लगा है। कई राज्यों में गैर हिंदू समूहों से जबरन वंदे मातरम बुलवाने और उनके न करने पर उनके खिलाफ देशद्रोह का लांछन लगाना भी बढ़ता जा रहा है ।

आज बहुतों को शायद याद न हो, कि भारतमाता की उग्र और आक्रामक छवि को 80 के दशक में बल मिला, जब बहुसंख्य समुदाय की तरफ से देवत्व प्रदान करने के लिये विश्व हिंदू परिषद् ने 1983 में एक महीने की देशव्यापी एकात्मता यात्रा निकाली थी।

‘80 के दशक में ही वीएचपी के स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि ने हरिद्वार में भव्य भारतमाता मंदिर भी बनवाया, जहाँ वितरित अंग्रेज़ी पुस्तिका (भारतमाता मंदिर, ए कैंडिड अप्रेज़ल) के अनुसार इस मंदिर के निर्माण में अनिवासी सनातनी हिंदुओं के दिये धन का बड़ा योगदान था।

मंदिर के भीतर एक तल्ले पर भारत के महान विचारकों की प्रतिमायें भी स्थापित की गईं जिनमें स्वामी रामकृष्ण, विवेकानंद और श्री अरबिंदो की मूर्तियाँ तो हैं, किंतु किसी महिला चिंतक विचारक की (सिवा रामकृष्ण परमहंस की पत्नी शारदा माँ के ) मूर्ति नहीं है। सती प्रथा अवैध घोषित होते हुए भी मंदिर में सतियों की कुछ प्रतिमायें भी हैं।

मंदिर बनने के जल्द बाद ही गाड़ियों को रथ की शक्ल देकर उनका काफिला भारत माता की इस छवि के प्रचार के लिये देश भर में भेजा गया और श्री अडवाणी की रथयात्रा के बाद भारतमाता के गिर्द बार बार रेखांकित किये गये जनमानस के इस क्रमिक सनातनी हिंदूकरण का भरपूर चुनावी लाभ भारतीय जनता पार्टी को मिला।

इसने किस तरह की कड़वाहट और आक्रामक उग्रता फैला दी है इसकी एक बानगी हमको तब देखने को मिली जब दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट में एक भीड़ ने भारतमाता की जय के नारे लगाते हुए छात्रों, शिक्षकों और वकीलों के साथ परिसर के भीतर मारपीट की।

जैसे जैसे हम इक्कीसवीं सदी में आगे बढ़ रहे हैं, ग्लोबल हवायें चारों तरफ से हमारी खुली खिड़कियों से आ रही हैं। और भारत ही नहीं, हर कहीं आप्रवासियों की भीड़ के साथ देशों के भीतर बाहर धर्मांधता और धर्मनिरपेक्षता के बीच टकराव तेज़ी से बढ़ने लगा है।

यह सही है कि धर्म आज वह नहीं रह गया जैसा कि था, फिर भी क्या मुसलमानों से सदियों पीछे के बदले लेने और सनातनी धार्मिक कर्मकांड का सहारा लिये बिना पंजाब से मिथिला तक और कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश के इतिहास और संस्कृति की कोई प्रामाणिक समझ नहीं बनाई जा सकती?

बंग भंग के ज़माने में बंगाल के छोटे लाट फुलर ने 1905 में कहीं यह धमकी दे डाली थी, कि विद्रोह पर उतारू बंगालियों के लिये मुगल सूबेदार शाइस्ता खान के लगाये जज़िया कर जैसी दमनकारी व्यवस्था फिर लाई जायेगी। इस पर हिंदी के लेखक बालमुकुंद गुप्त ने अपनी लाजवाब शैली में लाट साहिब के नाम शाइस्ता खान के जन्नत से आये दो व्यंग्यात्मक खत छपवाये, जिनमें वे समूचे हिंदुस्तान की तरफ से शासकों को जैसे फटकारते हैं, वह आज फिर पढ़ने की मांग करता है।

‘जहाँ तुम्हारी हुकूमत जाती है वहाँ खाने पीने की चीज़ों को एकदम आग लग जाती है। ...अपने बादशाह के हुक्म से मैंने जज़िया लगाया...और इसका बदला भी हाथों हाथ पाया और इसी का खौफ तुम अपने इलाके के हिंदुओं को दिलाते हो। ...तुमने बिगड़ कर कहा है कि तुम बंगालियों को 500 साल पीछे फेंक दोगे, अगर ऐसा हो भी तो बंगाली बुरे नहीं रहेंगे। उस वक्त बंगाल में एक राजा का राज था जिसने हिंदुओं के लिये मंदिर और मुसलमानों के लिये मस्जिदें बनवाई थीं। उसके मरने पर हिंदू उसकी लाश को जलाना और मुसलमान गाड़ना चाहते थे। वह ज़माना तुम्हारे जैसा हाकिम क्यों कर आने देगा।’

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