वर्चस्ववादी राजनीति ने विकसित किया है भीड़ द्वारा हत्या का ढांचा

यदि भारतीय समाज में भीड़ द्वारा हत्या की घटनाओं के आयामों को समझना है तो इसे इस रुप में भी देखा जा सकता है कि सरकारी भीड़ (मशीनरी) के द्वारा मुठभेड़ के नाम पर हत्याएं होती हैं और लोकतंत्र के नागरिक भीड़ के रुप में उस पर अपनी मुहर लगाते हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
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अनिल चमड़िया

भारतीय समाज में भीड़ द्वारा हिंसा के विविध आयामों पर एक नजर डालनी चाहिए। हाल के वर्षों में सरकार के स्वच्छता के नाम पर भीड़ द्वारा हत्याओं की कई घटनाएं सामने आई। क्या यह हैरान करने वाली प्रवृति नहीं है ? भीड़ द्वारा हत्या की घटनाएं गाय की हत्या या गौमांस के नाम पर की गईं। गाय सांप्रदायिक राजनीति के विस्तार के लिए एक माध्यम माना जाता है और समाज के दलित और अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ घृणा को जाहिर करने के लिए यह भीड़ जमा की जाती है। तीसरी तरह की घटनाएं बच्चों के चोरी के संदेह की आड़ में सामने आई है, जिसे समाज के पिछड़े इलाके के लोगों ने अंजाम दिया। यदि भारतीय समाज में भीड़ द्वारा हत्या की घटनाओं के और आयामों को समझना है तो इसे इस रुप में भी देखा जा सकता है कि सरकारी भीड़ (मशीनरी) के द्वारा मुठभेड़ के नाम पर हत्याएं होती हैं और लोकतंत्र के नागरिक भीड़ के रुप में उस पर अपनी मुहर लगाते हैं।और भी ऐसी घटनाएं है जिसमें भीड़ द्वारा हत्या की मानसिकता की पड़ताल की जा सकती है। मसलन लोकतंत्र के नागरिक भीड़ की शक्ल में परिवर्तित होकर विभिन्न तरह के अपराधों के लिए हत्या की सजा देने की मांग करते हैं। उस समय की सबसे ज्यादा लोकप्रिय मांग फांसी का फंदा तैयार करने का होता है। नशा, बलात्कार आदि अपराधों के लिए ही नहीं किसी और भी अपराध की घटनाओं के लिए कानून को एक भीड़ के रुप में तब्दील होने के लिए बाध्य किया जाता है ।

यदि पड़ताल करें तो भीड़ द्वारा सजा देने के ढांचे का तेजी से विस्तार हाल के वर्षों में हुआ है। सामंती ढांचे में यह प्रवृति पहले से मौजूद रही है। उदाहरण के लिए जिसमें डायन के नाम पर भीड़ द्वारा हत्या करने और चोरी जैसे अपराध का आरोप लगने पर भीड़ द्वारा सजा देने की घटनाएं हम देखते रहे हैं। लड़के-लड़कियों की एक दूसरे को पसंद करने के कारण सरेआम भीड़ द्वारा हत्या की भी घटनाएं होती रहती हैं जिन्हें हम खाप पंचायत के रुप में जानते हैं।

इस तरह हम देखते हैं कि भीड़ द्वारा हत्या और अमानवीय व्यवहार करने की प्रवृति और उसकी स्वीकृति का एक ढांचा भारतीय समाज में भी मौजूद रहा है। जाहिर है कि इस प्रवृति का इस्तेमाल सामंती काल में कमजोर माने जाने वाले लोगों के खिलाफ ही होता रहा है। हमारे बीच एक स्थिति में यह बदलाव आया कि हमने समाज को आधुनिक बनाने की जरुरत महसूस की और संविधान का एक ढांचा विकसित करने का लिखित समझौता किया। यानी सामंती दौर के तमाम असामनता के साथ भेदभाव करने वाले, अमानवीय और अन्यायी ढांचों को खत्म करने का एक उद्देश्य निर्धारित किया गया। अमेरिका की प्रोफेसर मार्था नस वाउम जब हाल में भारत आईं तो उन्होने एक साक्षात्कार में बताया कि अमेरिकी समाज में भी भीड़ द्वारा काले लोगों की हत्या की घटनाएं बड़ी संख्या में होती थीं, लेकिन उन्हें धीरे-धीरे खत्म किया गया। लेकिन इसके लिए जरुरी था कि कानून की मशीनरी को चुस्त-दुरुस्त किया जाए और राजनीतिक उद्देश्य के तहत उसे समाप्त किया जाए।लेकिन यहां विपरीत स्थितियां देखने को मिलती हैं और भारतीय समाज में भीड़ द्वारा हत्याएं या हत्याओं पर भीड़ की सहमति एक विचार के रुप में लगातार मजबूत होती चली गई है।

आधुनिक समाज बनाने के नाम पर जो राजनीतिक ढांचा हमने विकसित किया है, उसे सामाजिक और आर्थिक स्तर पर वर्चस्व बनाए रखने वाले वर्गों के द्वारा अपने हितों में इस्तेमाल करते देखा जा रहा है। इसीलिए सामाजिक स्तर पर भीड़ द्वारा हत्या करने के ढांचे को राजनीतिक स्तर पर सहयोग मिलता रहा है। याद करें कि सती के नाम पर महिलाओं की हत्या में पूरा पुरुष समाज शामिल होता था और उस सती प्रथा का विरोध करने वालों के खिलाफ सामाजिक स्तर पर वर्चस्व रखने वाला वर्ग किसी भी हद तक जाने को तैयार दिखता था। खाप पंचायत के खिलाफ किसी राजनीतिक पार्टी ने आंदोलन करने का साहस नहीं किया। इस तरह हम देखें तो भीड़ द्वारा हत्या की प्रवृतियों को राजनीतिक स्तर पर बढ़ाने की ही कोशिश की जाती रही है। हाल के दिनों में भीड़ के द्वारा जितने भी हमले और हत्या की घटनाएं हुई हैं उन्हें इस हद तक राजनीतिक सहयोग मिलता रहा है कि संवैधानिक जिम्मेदारियों को पूरा करने का शपथ लेने वाला पुलिस-प्रशासन हमलावरों के पक्ष में झुका दिखा।

भीड़ द्वारा हत्या के पुराने ढांचे को भारतीय समाज में धर्म के नाम पर इस्तेमाल करने का बाकायदा अभ्यास कराया गया है। इसे स्थायित्व देने के लिए समाज में घृणा को एक विचार के रुप में विकसित किया गया। यह धृणा मुसलमानों, ईसाईयों और दलितो के विरुद्ध स्थायी रुप से विधिवत तैयार करने में वर्चस्ववादी राजनीति सक्रिय दिखती है। दरअसल वर्चस्ववादी राजनीति जब घृणा को अपना हथियार बनाती है तो उसके साथ यह पहलू भी जुड़ा हुआ है कि वह खास तरह की पहचान को ही स्थापित करती है। यानी एक पहचान के बरक्स अन्य पहचानों को वह अपने विरोधी या शत्रु के रुप में विस्तार देती है। इसीलिए कानूनी प्रक्रियाओं को दरकिनार करते हुए एक खास तरह की पहचान को फांसी पर लटका देने का उन्माद पैदा किया जाता है।

भीड़ द्वारा हत्या की घटनाओं की गहराई में जाकर पड़ताल करें तो एक स्थिति और स्पष्ट होती है। वह है सामाजिक स्तर पर असुरक्षा की भावना को विस्तार देना। सामाजिक स्तर पर असुरक्षा की भावना जितनी ज्यादा बढ़ती है, भीड़ उतनी ही आक्रमक रुख अख्तियार करती है। बच्चों के चोरी होने की अफवाहें और इलाके में अंजान लोगों की भीड़ द्वारा हत्याएं क्या स्थापित करती है? भीड़ असुरक्षा बोध से घिरी है और जिनकी हत्याएं हुई, वे अंजान हैं यानी भीड़ की पहचान से भिन्न हैं। इस तरह के विचारों को लगातार बढ़ाने की कोशिशों को यदि समझना हो तो दिल्ली जैसे शहरों में रिकार्ड किए गए उस संदेश को सुनें जिसमें कहा जाता है कि अंजान व्यक्ति से दोस्ती नहीं करें। समाज में वर्चस्व की राजनीति ने बाकायदा हत्या के लिए भीड़ को विस्तार दिया है।

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