जफर आगा का लेख: एएमयू के नाम पर ध्रुवीकरण की राजनीति करने वालों से सावधान रहने की जरूरत 

आज से नहीं, अंग्रेजी शासन के दौर से भारतीय राजनीति ‘हिंदू-मुस्लिम’ चक्रव्यूह से बाहर नहीं निकल सकी है यानी शासन तो बदला लेकिन ‘बांटो और राज करो’ की रणनीति का अंत अभी भी नहीं हुआ है।

फोटो: सोशल मीडिया
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ज़फ़र आग़ा

जैसा मैंने पहले लिखा था कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, उर्दू, पाकिस्तान, आतंकवाद जैसे प्रतीकों के चक्रव्यूह में भारतीय मुस्लिम समुदाय ऐसा फंसा है कि वह कतई इस चक्रव्यूह को तोड़ नहीं सकता। लेकिन कभी-कभी यह भी प्रतीत होता है कि मुस्लिम समाज खुद इस चक्रव्यूह से बाहर नहीं निकलना चाहता है। अब अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में हुए विवाद को ही लें। इन दिनों प्रतीत होता है कि मुस्लिम समुदाय के पास केवल एक ही मुद्दा है और कुछ बचा ही नहीं है। तीन तलाक से लेकर बेरोजगारी, सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन, दंगा-फसाद जैसी तमाम जटिल समस्याएं हल हो चुकी हैं।

लेकिन ऐसा तो हुआ नहीं है। मुस्लिम समाज में बेरोजगारी वैसी ही है जैसी एएमयू में जिन्ना के जिन्न के प्रकट होने से पहले थी। आज भी दंगे-फसाद बंद नहीं हुए हैं। इस मामले में इन दिनों औरंगाबाद खबरों में है। तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट ने भले ही रोक लगा दी हो, लेकिन मोदी सरकार इसे लेकर अध्यादेश लाने के लिए कमर कस रही है। सीधी सी बात यह है कि मुस्लिम समाज की सारी समस्याएं बरकरार हैं। लेकिन शोर केवल एएमयू का है।

इससे यह स्पष्ट है कि मुस्लिम समाज से संबंधित जिस समस्या का अचानक शोर उठता है वह समस्या कहीं न कहीं से पैदा की जाती है। सच्ची बात यह है कि एक बड़ी साजिश के तहत पूरे मुस्लिम समाज को किसी बेमतलब की समस्या से घेर दिया जाता है जिसका उसके रोजमर्रा के जीवन से कोई लेना-देना नहीं होता है। अब अलीगढ़ की समस्या को ही लें। कुछ हिंदू संस्थाओं ने एएमयू के यूनियन हॉल से जिन्ना की फोटो हटाने को लेकर बवाल खड़ा कर दिया। एएमयू के छात्र जब एक जुलूस लेकर पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराने गए तो उन पर पुलिस ने लाठीचार्ज कर दिया। ऐसा लगा कि पुलिस ने किसी सोची-समझी रणनीति के तहत यह किया। बस क्या था, पूरे देश में बवाल मच गया। मीडिया में, खासतौर पर टीवी पर, बस एक मुद्दा बच गया: भारतीय मुसलमान और जिन्ना। और इस तरह रातों-रात भारतीय मुस्लिम समुदाय फिर से ‘पाकिस्तानी’ बना दिया गया!

लेकिन क्यों? इस साजिश से किसी को क्या फायदा? यह एक ऐसी राजनीतिक गुत्थी है जिसका जिक्र जरूरी है। आज से नहीं, अंग्रेजी शासन के दौर से भारतीय राजनीति ‘हिंदू-मुस्लिम’ चक्रव्यूह से बाहर नहीं निकल सकी है यानी शासन तो बदला लेकिन ‘बांटो और राज करो’ की रणनीति का अंत अभी भी नहीं हुआ है। भला बीजेपी और संघ परिवार से ज्यादा किसे इस रणनीति की जरूरत हो सकती है? हिंदू वोट बैंक की राजनीति के लिए एक मुस्लिम शत्रु का होना जरूरी है। वह कभी बाबरी मस्जिद, कभी तीन तलाक तो कभी एएमयू में टंगी जिन्ना की फोटो का रूप ले लेता है।

अब उत्तर प्रदेश के कैराना जिले में चुनाव होने वाले हैं। इससे पहले कर्नाटक में चुनाव चल रहे थे। हिंदू ध्रुवीकरण कराने के लिए पहले जिन्ना की फोटो याद आई और फिर टीवी समेत दूसरे मीडिया माध्यमों से इसका शोर मचाया गया। सारे देश में जिन्ना-एएमयू का हंगामा उठ खड़ा हुआ और इस देश का हर मुस्लिम ‘पाकिस्तानी’ हो गया यानी हिंदू-विरोधी और देशद्रोही। इस तरह एक हिंदू-मुस्लिम विभाजन उत्पन्न किया गया जिसका मकसद ‘बांटो और राज करो’ था।

यह बात तो अब काफी स्पष्ट होती जा रही है कि ऐसे विवादों का एक राजनीतिक उद्देश्य होता है। लेकिन हैरत इस बात की है कि इन विवादों का मतलब समझते हुए भी कथित मुस्लिम नेतृत्व उसमें छलांग क्यों लगा देता है।

पहली बात तो यह कि मौलाना आजाद के बाद इस देश में मुस्लिम नेतृत्व पैदा ही नहीं हुआ। तो फिर हर मौके पर ये मुस्लिम नेता पैदा कैसे हो जाते हैं। कभी इमाम बुखारी तो कभी शहाबुद्दीन, कभी बाबरी मस्जिद एक्शन कमिटी तो कभी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, यह सब षड़यंत्र के मोहरे हैं जो हिंदू-मुस्लिम विभाजन पैदा करने के लिए राजनीतिक बिसात पर आगे-पीछे किए जाते हैं। और राजनीतिक उद्देश्य पूरा होने के बाद इन मोहरों पर से हाथ हटा लिया जाता है। एएमयू के मामले को लेकर इन दिनों टीवी स्क्रीन पर जो मुस्लिम चेहरे हैं, उनमें से किसी से आप पहले से परिचित थे? नहीं, क्योंकि इनकी मुस्लिम समाज में ही कोई पहचान नहीं थी।

एएमयू के छात्र बहुत समझदारी से काम कर रहे हैं। उनका संघर्ष पुलिस के खिलाफ है। वे विश्वविद्यालय की परिधि के भीतर शांतिपूर्ण ढंग से अपना आंदोलन चला रहे हैं। विश्वविद्यालय में परीक्षाएं चल रही हैं। लेकिन दिल्ली से लेकर अलग-अलग शहरों में न जाने कितने गुट एएमयू की दुकान लगाकर धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। कैराना उपचुनाव जब तक नहीं हो जाता तब तक यह प्रदर्शन होते रहेंगे और यह लोग टीवी पर चमकते रहेंगे।

अब आप समझ गए होंगे मुस्लिम समाज के ये लोग कौन हैं और कहां से आते हैं। यह कुछ और नहीं, बल्कि संघ के मोहरे हैं जो हिंदू-मुस्लिम विभाजन पैदा करने के लिए खड़े किए जाते हैं जिससे होने वाले ध्रुवीकरण से उसे फायदा होता है। इसलिए कैराना उपचुनाव के बाद इनकी टर्र-टर्र बंद हो जाएगी और ये बरसाती मेढ़क की तरह गायब हो जाएंगे। देश के समझदार हिंदुओं और मुसलमानों को इन बरसाती मेढ़कों से सावधान रहने की जरूरत है।

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