कई देशों के चुनाव में प्रदूषण बना मुद्दा, भारत में जान के खतरे के बावजूद नहीं है कोई चर्चा

कुल मिलाकर हमारे देश में प्रदूषण कितना भी अधिक हो, लाखों लोग इससे मर जाएं तब भी सरकारें इस मामले में कभी गंभीर नहीं होतीं। लोगों के लिए भी प्रदूषण कभी बड़ा मुद्दा नहीं बनता। जाहिर है यही वजह है कि चुनावों में भी यह मुद्दा उपेक्षित ही रहता है।

फोटोः सोशल मीडिया
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महेन्द्र पांडे

ऑस्ट्रेलिया में चुनाव होने वाले हैं और वहां पर्यावरण और प्रदूषण एक बड़ा चुनावी मुद्दा है। हमारे देश में चुनाव हो रहे हैं और पर्यावरण या प्रदूषण कोई मुद्दा नहीं है। कुछ पार्टियों ने अपने चुनाव घोषणापत्र में इसे शामिल जरूर किया है, लेकिन भाषणों में और वादों में इसका कोई जिक्र नहीं होता है।

दरअसल हमारे देश में पर्यावरण संरक्षण कभी कोई मुद्दा रहा ही नहीं। 2014 के चुनावों में मोदी वाराणसी से उम्मेदवार थे, इसलिए गंगा पर चर्चा थोड़ी बहुत हो गयी। यह चर्चा भी ठीक वैसी ही थी, जैसी उनकी चाय पर चर्चा होती है, पर चाय से कुछ लेना-देना नहीं है। ठीक वैसे ही गंगा से भी कोई मतलब नहीं था। स्वच्छ भारत अभियान भी बस गंदगी को नजरों से दूर कर देने तक सीमित है और वायु प्रदूषण की तो कहीं चर्चा भी नहीं होती।

हमारा देश हरेक तरह के प्रदूषण के संदर्भ में दुनिया के सबसे गंदे देशों में शुमार है, जबकि इंग्लैंड और अमेरिका अपेक्षाकृत साफ-सुथरे देश माने जाते हैं। वास्तविकता तो यह है कि प्रदूषण का पर्याय बन चुका चीन भी हमसे अच्छी स्थिति में पहुंच चुका है। इंग्लैंड की संसद ने जलवायु परिवर्तन को आपातकाल घोषित कर दिया है और 2050 तक कार्बन उत्सर्जन को पूरी तरह से रोकने का मन बना लिया है, जबकि पड़ोसी देश स्कॉटलैंड ऐसा 2045 तक कर लेगा।

हमारे देश में तो लाखों लोगों की मृत्यु वायु प्रदूषण के कारण होने के बाद भी इसकी लगातार उपेक्षा की जाती है। लांसेट में कुछ समय पहले प्रकाशित एक लेख के अनुसार दुनिया में 2015 के दौरान 42 लाख व्यक्तियों की असामयिक मृत्यु वायु प्रदूषण के कारण हो गयी और इस तरह यह मृत्यु के कारणों में पांचवें स्थान पर है। न्यू यॉर्क यूनिवर्सिटी के विशेषज्ञ मसूद घन्देहारी की अगुवाई में वैज्ञानिकों के एक दल ने नेचर कम्युनिकेशंस नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोधपत्र में बताया है कि इतनी बड़ी संख्या में मृत्यु का कारण प्रदूषण के जनसंख्या पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन है।


उदाहरण के लिए दिल्ली के प्रदूषण के स्तर से यह बताया जा सकता है कि यहां की पूरी जनसंख्या पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, जबकि प्रदूषण का प्रभाव व्यक्तिगत स्तर पर होता है। जो दिन भर घर में बैठा होगा उस पर प्रदूषण का असर कम होगा जबकि दिन भर सड़क पर चलने वालों पर यह असर कम होगा। साइकिल या फिर बाइक से चलने वालों पर प्रदूषण का अधिक प्रभाव होगा जबकि कार, बस या मेट्रो से सफर करने वालों पर प्रदूषण का असर कम होगा। इसी तरह खुली खिड़की वाले मकानों और झोपड़पट्टी में रहने वालों को वायु प्रदूषण अधिक प्रभावित करेगा, जबकि बंद खिड़कियों वाले मकानों में इसका असर कम होगा।

इस दल के अनुसार वायु प्रदूषण के व्यक्तिगत प्रभावों को भी आसानी से परखा जा सकता है। इसके लिए भवनों या लैंप-पोस्ट पर वायु प्रदूषण के सेंसर स्थापित कर किसी भी क्षेत्र का प्रदूषण आसानी से मापा जा सकता है, फिर इन आंकड़ों में सामाजिक-आर्थिक स्थिति, परिवहन का स्तर और जीवनचर्या के आंकड़ों का समावेश कर इसके प्रभाव को व्यक्तिगत स्तर तक देखा जा सकता है। इस दल ने न्यू यॉर्क, हांगकांग और सैन फ्रांसिस्को में इस अध्ययन को किया है।

आश्चर्य तब होता है, जब हम देखते हैं कि विकसित देशों में अब प्रदूषण के व्यक्तिगत स्तर पर प्रभावों के लिए अध्ययन किये जा रहे हैं, जबकि हमारे देश में तो जनसंख्या के स्तर पर भी कोई अध्ययन नहीं होता। हमारे देश में तो हालत यह है कि 2009 में अधिसूचित वायु प्रदूषण के मानकों में कुल 12 पैरामीटर का जिक्र है, लेकिन अब 10 साल बाद भी हमारे पूरे देश में इन सभी पैरामीटरों की जांच भी नहीं की जाती। इसका सीधा सा मतलब ये है कि देश में इन पैरामीटरों का स्तर ही नहीं पता है।

देश भर में जहां भी वायु प्रदूषण के स्तर को मापा जाता है, वहां केवल चार पैरामीटर ही मापे जाते हैं। तथाकथित एयर क्वालिटी इंडेक्स के लिए भी केवल 8 पैरामीटर की जरूरत है, लेकिन इसे केवल तीन पैरामीटर के आंकड़े उपलब्ध होने पर भी बताया जा सकता है। आप केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की मानसिक विकलांगता तो देखिये, यह संस्थान मात्र 3 पैरामीटर से बनाए गए इंडेक्स से उस इंडेक्स की तुलना करता है जिसे 8 पैरामीटर से बनाया गया हो।


कुल मिलाकर हमारे देश में प्रदूषण कितना भी अधिक हो, लाखों लोग इससे मर जाएं तब भी सरकारें इस मामले में कभी गंभीर नहीं होतीं। लोगों के लिए भी प्रदूषण कभी बड़ा मुद्दा नहीं बनता। जाहिर है यही वजह है कि चुनावों में भी यह मुद्दा उपेक्षित ही रहता है। वैसे भी अब मुद्दे हैं कहां? पीएम मोदी के लगातार चलते भाषणों में तो केवल कांग्रेस परिवार ही छाया रहता है।

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