मोदी सरकार का मूलमंत्र- गरीब देशों को पर्यावरण नहीं, सिर्फ विकास पर ध्यान देना चाहिए

केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी समेत पूरी मोदी सरकार का यही मूलमंत्र है कि भारत जैसे गरीब देश इंफ्रास्ट्रक्चर की चिंता करते हैं, पर्यावरण की नहीं। क्योंकि जनता का पैसा इंफ्रास्ट्रक्चर में लगने से विकास होगा, पर्यावरण से क्या फायदा होगा?

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया
user

महेन्द्र पांडे

कुछ दिनों पहले ही केन्द्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने संसद में जो कुछ कहा उसका मतलब स्पष्ट था- भारत एक गरीब देश है और गरीब देश इंफ्रास्ट्रक्चर की चिंता करता है, पर्यावरण की नहीं। जनता का पैसा इंफ्रास्ट्रक्चर में लगने से विकास होगा, पर्यावरण से क्या फायदा होगा? नितिन गडकरी समेत पूरी सरकार का यही मूलमंत्र है।

जब गंगा सफाई का काम नितिन गडकरी के जिम्मे था तब भी गंगा साफ तो नहीं हुई, पर गडकरी साहब ने उसमें जलपोत और क्रूज जरूर चला दिए थे। गडकरी जी और प्रधानमंत्री मोदी के लिए तो तीर्थयात्रा के अतिरिक्त हिमालय का भी कोई महत्व नहीं है। इसीलिए तमाम पर्यावरण विशेषज्ञों के विरोध के बाद भी आल-वेदर रोड का काम जोरशोर से चल रहा है।

दूसरी तरफ पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर को भी पर्यावरण की कोई चिंता नहीं है, उन्हें तो बस परियोजनाओं के पर्यावरण स्वीकृति की चिंता है। कुछ दिनों पहले ही उन्होंने अरुणाचल प्रदेश में स्थापित किये जाने वाले दिबांग मल्टीपरपस डैम के पर्यावरण स्वीकृति की घोषणा की है। इस डैम के पर्यावरण स्वीकृति का मसला मनमोहन सरकार में भी उठा था, लेकिन बहुत नाजुक पारिस्थिकी तंत्र में स्थापित किये जाने वाले इस डैम के कारण लगभग 350000 पेड़ों के काटे जाने के मुद्दे पर इस परियोजना की स्वीकृति की फाइल वापस कर दी गयी थी।

लेकिन यूपीए सरकार के उलट इस सरकार को पर्यावरण से कोई भी सरोकार नहीं है। दिबांग मल्टीपरपस डैम देश का सबसे बड़ा बांध होगा, जिसकी ऊंचाई 278 मीटर होगी। केन्द्रीय मंत्रिमंडल की आर्थिक मामलों की कमेटी ने इसके लिए 1600 करोड़ रुपये स्वीकृत भी कर दिए हैं। इस परियोजना की कुल लागत 28080 करोड़ रुपये है।


दिबांग परियोजना से 2880 मेगावाट बिजली बनाने का लक्ष्य रखा गया है। दुनिया भर में आज स्थिति यह है की जितने नए बड़े बांध बन रहे हैं, उससे कहीं अधिक संख्या में इन्हें तोडा जा रहा है। भारत, चीन और कुछ इसी तरह के दूसरे विकासशील देश ही आज तक बड़े बांध बना रहे हैं। बड़े बांधों से केवल नदियों का विनाश होता है। इसके किनारे रहने वाले लोग प्रभावित होते हैं, जिससे एक समाज और उसकी संस्कृति पूरी तरह नष्ट हो जाती है। वनस्पतियों और जन्तुओं की स्थानिक प्रजातियां नष्ट हो जाती हैं। सबसे बड़ी बात यह है की कोई भी पनबिजली परियोजना ऐसी नहीं है जिससे उतनी बिजली बन सकती हो जितने के लिए उसे डिजाईन किया जाता है।

तेलंगाना में स्थित अमराबाद टाइगर रिजर्व देश में सबसे अच्छे बाघ अभ्यारण्यों में से एक है, लेकिन अब भारत सरकार के कारण बाघों पर संकट आनेवाला है। पर्यावरण मंत्रालय के वन विभाग ने इस अभ्यारण्य के कोर क्षेत्र में युरेनियम खोजने की स्वीकृति दे दी है। युरेनियम की खोज का मतलब है, इसके कोर क्षेत्र में चौड़ी सड़कें बनेंगी जिसपर गाड़ियां चलेंगी, बड़े उपकरण भेजे जाएंगे, जगह-जगह ड्रिलिंग होगी और इन सबके बीच बाघ मरेंगे, परेशान होंगे या फिर आसपास की आबादी तक पहुंच जाएंगे। केवल बाघ ही नहीं, इस अभ्यारण्य में भारी संख्या में अनेकों विशेष किस्म की प्रजातियां हैं। आखेटक वन्य निवासी समुदाय, चेंचू, केवल इसी क्षेत्र में हैं और इसी परिवेश में वे सदियों से रहते आएं हैं।


सरकार विकास करना चाहती है, पर पर्यावरण के विनाश की कीमत उसे क्यों नहीं नजर आती? पानी का संकट, सूखी नदियां, मरती खेती, प्रदूषण से मरते लोग, सिकुड़ती जैव-विविविधता और सूखा- सब विकराल स्वरुप धारण कर चुके हैं। सरकार जिसे विकास मान कर चल रही है, उसी विकास के कारण लाखों लोग हरेक साल मर रहे हैं और लाखों विस्थापित हो रहे हैं। पर पूंजीपतियों की सरकार को केवल बड़ी परियोजनाएं नजर आती हैं, फिर लोग मरें या जैव विविधता ख़त्म होती रहे, क्या फर्क पड़ता है।

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia