धर्म जैसा ही है सत्ता का दलाल मीडिया, समाज में अफीम नहीं बल्कि जहर परोसता है

अमेरिका में मीडिया पर किए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि सत्ता के चाटुकारिता को ही मीडिया समझने वाले दक्षिणपंथी मीडिया घरानों के समाचारपत्र और समाचार चैनल स्वयं एक धर्म का काम करते हैं और अपने पाठकों और दर्शकों को अफीम जैसे नशे में रखते हैं।

धर्म जैसा ही है सत्ता का दलाल मीडिया, समाज में अफीम नहीं बल्कि जहर परोसता है
धर्म जैसा ही है सत्ता का दलाल मीडिया, समाज में अफीम नहीं बल्कि जहर परोसता है
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महेन्द्र पांडे

अमेरिका में मीडिया पर किए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि सत्ता के चाटुकारिता को ही मीडिया समझने वाले दक्षिणपंथी मीडिया घरानों के समाचारपत्र और समाचार चैनल स्वयं एक धर्म का काम करते हैं और अपने पाठकों और दर्शकों को अफीम जैसे नशे में रखते हैं। “बियोंड  पोलराइजेशन: राइट विंग न्यूज ऐज अ कासी-रीलिजियस फेनोमेना” नामक यह अध्ययन सोशियोलाजिकल न्यूज नामक जर्नल के जून 2025 अंक में प्रकाशित किया गया है और इस अध्ययन को अमेरिका के परड्यू यूनिवर्सिटी के समाज वैज्ञानिकों ने किया है।

इस अध्ययन के अनुसार यह बिल्कुल गलत धारणा है कि निष्पक्ष समाचार माध्यमों और सत्ता के चाटुकार दक्षिणपंथी विचारधारा के सामाचार माध्यमों में केवल विचारधारा का ही अंतर रहता है। समाचार माध्यमों में राजनैतिक और सामाजिक ध्रुवीकरण वाले समाचारों के अलावा भी बहुत अंतर है- निष्पक्ष और सत्ता के चाटुकार मीडिया के समाचार माध्यम बुनियादी तौर पर बिल्कुल अलग माध्यम हैं।

निष्पक्ष समाचार माध्यमों में तथ्यों पर आधारित तमाम विषयों पर समाचार और उनका आकलन किया जाता है, जबकि दक्षिणपंथी समाचार माध्यमों में समाचारों की विविधता बहुत संकीर्ण होती है और इसका उद्देश्य जनता के बीच समाचार पहुचाने से अधिक एक समाज के विशेष विचारधारा वाले वर्ग को भड़काना और विचारधारा को आगे बढ़ाना रहता है। इस अध्ययन के मुख्य लेखक मार्कस मान के अनुसार धर्म जो काम करता है बिल्कुल वही असर दक्षिणपथी समाचार माध्यम भी छोड़ते हैं।

दक्षिणपंथी समाचार माध्यमों में तथ्यों से अधिक एक वर्ग-विशेष की विचारधारा को आगे बढ़ाने पर ध्यान दिया जाता है, इससे ऐसे समाचार माध्यम एक वर्ग-विशेष में ही लोकप्रिय रहते हैं। ऐसे समाचार माध्यम पाठकों को मौलिक और निष्पक्ष चिंतन से वंचित रखते हैं। दक्षिणपंथी समाचार माध्यमों के प्रसार और रुझान व्यापार जैसा नहीं बल्कि ठीक वैसा ही होता है, जैसा धर्म का होता है। इसीलिए ऐसे समाचार माध्यम सत्ता के चहेते और समाज के बीच प्रभावी भी रहते हैं। चर्च और मंदिरों की तरह इन समाचार माध्यमों के अनुयायी भी अपना अस्तित्व इसी से जोड़ते हैं।


भले ही इस अध्ययन को अमेरिकी समाचार माध्यमों पर किया गया हो पर अपने देश के सामाजिक ध्रुवीकरण फैलाते और लगातार झूठ फैलाते सत्ता के चाटुकारिता को ही पत्रकारिता समझने वाले मीडिया पर यह अध्ययन बिल्कुल सटीक बैठता है। हमारे देश का मीडिया अब समाज में अफीम नहीं बल्कि जहर परोसता है। विशेष तौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में वही घिसे-पिटे “जाली” समाचार दिनभर चलाए जाते हैं। अब तक बाजार ही जाली या नकली उत्पादों का गढ़ माना जाता था, पर भारतीय मीडिया ने साबित कर दिया कि खबरें भी जाली या नकली परोसी जा सकती हैं।

बंदरों जैसे उछलते-कूदते, बदहवास चीखते चिल्लाते और सत्ता-चालीसा का पाठ करते जो ऐंकर कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं या करती हैं उन्हें तो पत्रकारिता का मौलिक ज्ञान भी नहीं है, उन्हें बस इतना पता है कि सत्ता के पक्ष में बिलकुल निर्लज्ज भाव से खबरें कैसे रखते हैं। भारतीय मीडिया इतना बेशर्म है कि दुनिया भर के मीडिया द्वारा इसका मजाक उड़ाया जाता है, पर कहीं कोई अंतर नहीं आता। बाद में जब कभी देश की बर्बादी का इतिहास निष्पक्ष कलम से लिखा जाएगा, तब इस बर्बादी के लिए निश्चित तौर पर सत्ता से अधिक मीडिया को दोषी ठहराया जाएगा।

अब एक बड़ी संख्या उन लोगों की है जिनके लिए सोशल मीडिया ही समाचारों का प्रमुख स्त्रोत है। सोशल मीडिया, जैसे फेसबुक और एक्स जैसे प्लेटफॉर्म तो केवल झूठ फैलाने के लिए ही बने हैं। आश्चर्य यह है कि इनकी कोई सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारी ही नहीं है। यही कारण है कि ऐसे प्लेटफॉर्म झूठ और अफवाह फैलाने का पसंदीदा माध्यम बन गए हैं, और इसी झूठ के सहारे कट्टर दक्षिणपंथी राजनैतिक दल पूरी दुनिया पर राज कर रहे हैं। वर्ष 2021 में प्यु रिसर्च सेंटर ने एक अध्ययन में बताया था कि सोशल मीडिया का लगातार इस्तेमाल करने वाले लोग झूठ और अफवाहों पर ज्यादा भरोसा करते हैं। ऐसे लोगों के लिए समाचारों में तथ्य का कोई मतलब नहीं रहता।

परंपरागत तौर पर माना जाता था कि समाचारों को पढ़ने वाले अधिकतर लोगों के लिए समाचार का सही और प्रामाणिक होना महत्वपूर्ण है और केवल एक विचारधारा के प्रति कट्टर झुकाव वाले या फिर कम शिक्षित व्यक्ति ही समाचारों की प्रामाणिकता से अधिक तथ्यविहीन पक्षपातपूर्ण समाचारों पर भरोसा करते हैं। पिछले कुछ वर्षों के दौरान इस विषय पर अनेक अनुसंधान किए गए हैं और लगभग हरेक अध्ययन का एक जैसा ही नतीजा रहा- समाचारों को पढ़ने वाले सभी पृष्ठभूमि के लोग प्रामाणिक समाचारों को पक्षपातपूर्ण समाचारों की तुलना में अधिक प्राथमिकता देते हैं। वर्ष 2021 में इस विषय पर किए गए एक विस्तृत अध्ययन का निष्कर्ष था कि समाचारों के पाठक पक्षपातपूर्ण समाचारों की तुलना में प्रामाणिक समाचारों पर चार-गुना अधिक भरोसा करते हैं।


पर, जर्नल ऑफ एक्सपेरिमेंटल साइकलॉजी में प्रकाशित एक अध्ययन का निष्कर्ष परंपरागत मान्यताओं के ठीक विपरीत है। स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी के मनोविज्ञान विभाग के विशेषज्ञों द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार अधिकतर लोग अपनी विचारधारा के अनुरूप तथ्यहीन पक्षपातपूर्ण समाचारों पर, जो केवल एक विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए गढ़े जाते हैं, भले ही वह फेकन्यूज हो, प्रामाणिक समाचारों की तुलना में अधिक भरोसा करते हैं। अपनी विचारधारा के अनुरूप सही-गलत हरेक समाचार पर भरोसा करने की प्रवृत्ति हरेक राजनैतिक विचारधारा, हरेक शैक्षिक स्तर और हरेक बौद्धिक क्षमता वाले लोगों और समाज के हर वर्ग में व्याप्त है।

इस अध्ययन के मुख्य लेखक माइकल श्चवलबे के अनुसार अध्ययन से स्पष्ट है कि लोगों  के लिए उनकी राजनैतिक पसंद तथ्यों से अधिक महत्वपूर्ण है। उनके अनुसार इस अध्ययन के नतीजों से जितना आम लोग या दूसरे विशेषज्ञ चौंकते हैं, उतना ही आश्चर्य अध्ययन करने वाले दल को भी है। पर, पहले के इसी विषय पर किए गए दूसरे अध्ययनों की तुलना में यह अध्ययन अधिक विस्तृत है, और इसके लिए कुछ अलग किया गया है जो अन्य अध्ययनों में नहीं था।

इस अध्ययन में राजनैतिक विचारधारा के बारे में लोगों से प्राथमिक सर्वेक्षण में पूछा गया, पर बाद के विस्तृत अध्ययन में इसकी प्रश्नपत्र के माध्यम से जांच भी की गई। इसका फायदा यह हुआ कि सर्वेक्षण में शामिल बहुत सारे लोग जो अपने को किसी राजनैतिक दल का सामान्य समर्थक बता रहे थे, वे जांच में कट्टर समर्थक पाए गए तो दूसरी तरफ बहुत सारे कट्टर समर्थक सामान्य की श्रेणी में आ गए।

इन अध्ययनों से इतना स्पष्ट है कि गलत, भ्रामक सूचनाओं और फेकन्यूज को रोकने के प्रयास से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला है, समस्या हमारे मस्तिष्क में है- हम ही पक्षपातपूर्ण और एक ही विचारधारा के समाचारों को पढ़ना चाहते हैं। समाचार अब पूंजीवाद के उत्पाद हैं, जाहिर है जिन उत्पादों से पूंजीपतियों को फायदा पहुंचेगा उन्हीं उत्पादों का व्यापक स्तर पर उत्पादन किया जाएगा और उन्हीं से बाजार को भरा जाएगा। यह बड़े फायदे वाला सौदा है तभी तो दुनिया भर में मीडिया घरानों पर पूंजीवाद का शिकंजा कसता जा रहा है।

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