कर्नाटक में तैयार होने वाले 'राष्ट्रीय ध्वज’ को चीन से आयात कराने की तैयारी, रोजगार तो छिनेगा ही खादी को भी भूल जाएंगे लोग!

ज्यादातर लोगों को शायद ही पता हो किये झंडे उत्तरी कर्नाटक में तैयार होते हैं। झंडा बनाने का काम मोटे तौर पर महिलाएं ही करती हैं। वे दशकों से देश के लिए झंडे बना रही हैं लेकिन उनकी कमाई आम तौर पर एक महीने में तीन हजार से भी कम है। न कोई सालाना वेतन वृद्धि, न कोई पेंशन।

फोटो: Getty Images
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गणेश एन देवी

राष्ट्रीय ध्वज एक प्रतीक भर नहीं होता। यह एक देश की संप्रभुता और उसके अस्तित्व की पहचान होता है। यह कहना वाकई मुश्किल है कि इतिहास में कब से कपड़े के एक टुकड़े को लोगों के सम्मान के सबसे महत्वपूर्ण प्रतीक चिह्न के रूप में देखा जाने लगा। मनुष्य इस पृथ्वी पर लाखों साल से हैं और वे पत्तियों या जानवरों के चमड़े से बने कपड़ों का इस्तेमाल करते रहे हैं। उन्होंने तमाम युद्ध लड़े और प्रागैतिहासिक काल में भी वे विभिन्न रंगीन वस्तुओं का ‘युद्ध चिह्नों’ के तौर पर इस्तेमाल किया करते थे। प्राचीन भारतीय शब्द ‘ध्वज’ और स्कैडेवियन लोगों द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाले शब्द ‘फ्लैक’ (मतलब झिलमिलाना या लहराना) लंबे समय से प्रचलन में है। लेकिन पिछली दो शताब्दियों के दौरान जब एक के बाद एक आधुनिक देशों का जन्म हुआ, हर देश ने अपने अस्ततित्व के प्रतीक के तौर पर अलग-अलग कपड़ों के टुकड़ों, यानी झंडे को अपना लिया।

भारतीय तिरंगा आजादी की लड़ाई के दौरान विकसित हुआ और औपचारिक रूप से इसे 22 जुलाई, 1947 को संविधान सभा ने अपनाया। भारतीय तिरंगे के बीच में चरखा था। वह समय था जब चरखा और खादी हमारी आजादी की लड़़ाई के दो बुनियादी सिद्धांत हुआ करते थे। तिरंगे के इस ऐतिहासिक मूल को देखते हुए हाल-हाल तक आधिकारिक झंडे खादी के ही बनते रहे। झंडे के आकार-प्रकार, कताई- सिलाई सबकुछ भारतीय मानक ब्यूरो तय करता है।

ज्यादातर लोगों को शायद ही पता हो किये झंडे उत्तरी कर्नाटक में तैयार होते हैं। बगलकोट के तुलसीगेरी गांव में हाथ से चलने वाले हजारों चरखे पर खादी काती जाती है और इसी का इस्तेमाल हुबली का खादी ग्रामोद्योग संयुक्त संघ (केकेजीएसएस) तिरंगा बनाने में करता है। यह ध्वज उत्पादन केन्द्र विभिन्न आकारों में झंडे की आपूर्ति करता है जो सबसे बड़े 21 x 14 फुट से लेकर सबसे छोटे6 x 4 इंच तक के होते हैं। केकेजीएसएस की स्थापना नवंबर, 1957 में हुई और राष्ट्रीय ध्वज निर्माण इकाई 2004 में स्थापित की गई। तभी से आधिकारिक तौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले झंडे बीआईएस मानकों के आधार पर बनाए जाते हैं।


झंडा निर्माण केन्द्र कई मायनों में स्वतंत्र भारत की भावना को परिलक्षित करता है। इसके संस्थापक वेंकटेश मडागी का जन्म भारत के गणतंत्र बनने से 47 साल पहले 26 जनवरी, 1903 को हुआ था। यहां काम करने वालों में सबसे बुजुर्ग नूरन्ना का जन्म 1947 में हुआ था। वह उन गिनती के पुरुषों में हैं जो केएचएसएस में काम करते हैं। झंडा बनाने का काम मोटे तौर पर महिलाएं ही करती हैं। जिन्हें भारत की सतरंगी सामाजिक बुनावट पर गर्व है, उन्हें जानकर खुशी होगी किये महिलाएं सभी समुदायों से आती हैं मुस्लिम, जैन, ईसाई, दलित, आदिवासी, लिंगायत, बौद्ध और हिन्दू।

इन महिलाओं से बातचीत करते हुए मुझे डब्ल्ययू. बी. यीट्स की कविता की वह प्रसिद्ध पंक्तिका ध्यान आया- ‘हाऊ कैन यू टेल द डांसर फ्रॉम द डांस?’ मैंने उनसे कहा, ‘हम सब राष्ट्रीय झंडे को सलाम करते हैं, वह सलाम आपके लिए भी है।’ लेकिन मुझे यह मानने में जरा भी गुरेज नहीं कि उनसे ऐसा कहते हुए मैं अपना सिर ऊंचा नहीं रख सका क्योंकि झंडा बनाने वाले इन लोगों की हालत देश के सबसे पीड़ित, सबसे वंचितों से भी बदतर है। उन्होंने बताया कि रोजाना आठ से दस घंटे काम करके वे लगभग डेढ़ सौ रुपये कमा पाती हैं। वे दशकों से देश के लिए झंडे बना रही हैं लेकिन उनकी कमाई आम तौर पर एक महीने में तीन हजार से भी कम है। न कोई सालाना वेतन वृद्धि, न कोई पेंशन। पेड मैटरनिटी लीव और एलटीए तो दूर की कौड़ी है।

इस केन्द्र में आम तौर पर साल में 3-4 करोड़ रुपये के झंडे बनते हैं। कोविड की वजह से इस साल बिक्री 30 प्रतिशत तक घट गई जिससे इन महिलाओं के पास काम घट गया और जो कुछ भी वे किसी तरह बचा पाई थीं वह भी जाती रही। मैंने उन महिलाओं से पूछा कि वे कोई और काम क्यों नहीं कर लेतीं? उनका जवाब था, ‘हम भारत से प्यार करते हैं। यह हमारी राष्ट्र सेवा है। गांधी जी ने अन्याय के खिलाफ इसे बतौर हथियार इस्तेमाल किया था। हम इसे जिंदा रख रहे हैं। इसके अलावा, बताएं कि हमारे लिए नौकरियां हैं कहां?’ झंडा बनाने वाली इन महिलाओं को उम्मीद थी कि आजादी का 75वां साल उनके लिए ज्यादा काम, बेहतर कमाई और उनके बच्चों के बेहतर भविष्य की उम्मीद लेकर आएगा। लेकिन मानक ब्यूरो ने सरकारी कार्यालयों में फहराए जाने वाले झंडों के लिए गैर-खादी झंडों की इजाजत दे दी है। अब पॉलिएस्टर के भी झंडे बन सकेंगे और यह भी जरूरी नहीं किये लाइसेंस प्राप्त झंडा बनाने वाले केन्द्र में ही बनें। मीडिया में तो ऐसी खबरें आई हैं कि चीन से भी झंडे मंगाने की योजना है।

ज्यादा समय नहीं हुआ है जब केन्द्र सरकार ने कुछ चीनी ऐप पर रोक लगाई थी। तब इसकी वजह भारत की जमीन में चीनी घुसपैठ थी। अब वहीं से झंडों का आयात बेतुका है। हमारा राष्ट्रीय ध्वज कोई साधारण झंडा नहीं है। यह आजादी के ऐतिहासिक संघर्ष का प्रतीक है। इस पृष्ठभूमि में देखें तो राष्ट्रवाद की बड़ी-बड़ी बातें खोखली नहीं लगतीं जब भारत को एक राष्ट्र बनाने वाले मजदूरों की हालत ऐसी हो? जो लोग राष्ट्रवाद-राष्ट्रवाद की रट लगाते हैं, उन्हें यह जानने की जरूरत है कि यहां के लोग, यहां का समाज ही राष्ट्र है। यहां की वह विशाल जनसंख्या ही राष्ट्र है जो प्रेम, सौहार्द्र और बलिदान में पूरी तरह सक्षम है न कि कुछ अति-संपन्न लोग या सुदूर अतीत में कपोल कल्पित महिमामंडन के जरिये झूठा गौरव फैलाने वाले।


तिरंगा हमारा सबसे पवित्र प्रतीक है। जब भी मैं इसे सलाम करता हूं, मेरे दिल में भारत के लिए गर्व की लहर दौड़ जाती है। फिर भी, क्या वह गर्व उन लोगों की पीड़ा, उनकी भूख, उनके दर्द को मिटाने के लिए पर्याप्त है जो पूरे देश के राष्ट्रीय प्रतीकवाद को जीवित रखने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं? बड़े पैमाने पर बांटने के लिए झंडे आयात करने के सरकार के फैसले ने देश के भीतर खादी के झंडे बनाने वालों के लिए मौत की घंटी बजा दी है। वाकई कहना मुश्किल है कि सरकार चाहती क्या है। क्या वह यह चाहती है कि भारत के लोग खादी को भूल जाएं या यह भी भूल जाएं कि झंडा आजादी के आंदोलन से पैदा हुआ है? ऐसा अजीब फैसला वही ले सकते हैं जिनके मूल संगठन ने अपने परिसर में तिरंगा फहराने से लगातार इनकार किया हो।

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