राष्ट्रपति चुनाव: क्या द्रौपदी मुर्मू उठ पाएंगी अपनी पार्टी से ऊपर?

कहने वाले कहते हैं कि मुर्मू की जीत देश के आदिवासियों को सशक्त करेगी, स्त्री की हैसियत मजबूत करेगी। क्या ऐसा होता है? हमने अब तक सारे इंसानों को ही राष्ट्रपति बनाया है, तो क्या देश में इंसानों की हैसियत मजबूत हुई है?

फोटो: सोशल मीडिया
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कुमार प्रशांत

बीजेपी ने अपनी पार्टी की समर्पित कार्यकर्ता द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाना तय किया है। मुर्मू का चयन शालीनता और संयम से किया गया तथा उनके समर्थन में प्रधानमंत्री ने जो कुछ कहा, वह भी बताता है कि यह निर्णय कितने करीने से लिया गया। जब आपके पास भाजपा-जैसा बहुमत हो और यह निश्चिंतता भी हो कि आप जिसे चाहेंगे, उसे राष्ट्रपति बना लेंगे, तब संयम और शालीनता साधना आसान भी होता है लेकिन ऐसा कहकर पार्टी की राजनीतिक पटुता को कम नहीं किया जा सकता।

कहने वाले कहते हैं कि मुर्मू की जीत देश के आदिवासियों को सशक्त करेगी, स्त्री की हैसियत मजबूत करेगी। क्या ऐसा होता है? हमने अब तक सारे इंसानों को ही राष्ट्रपति बनाया है, तो क्या देश में इंसानों की हैसियत मजबूत हुई है? हमने मुसलमान, दलित, औरत को भी राष्ट्रपति बनाया है, तो क्या इन सबकी हैसियत मजबूत हुई? यह आत्मछल है जो राजनीति को पचता है, राष्ट्र को नहीं। यशवंत सिन्हा ने तो अपनी उम्मीदवारी से पहले अपनी पार्टी- तृणमूल कांग्रेस से इस्तीफा भी दे दिया, ताकि संविधान की मंशा की थोड़ी लाज रह जाए लेकिन बीजेपी और मुर्मू ने उसकी जरूरत भी नहीं समझी।


संविधान की कल्पना यह है कि संसदीय प्रणाली की राजनीतिक व्यवस्था का मुखिया एक ऐसा व्यक्ति हो जो संसद से बंधा न हो, सत्ता के खेल न खेलता हो। प्रधानमंत्री ऐसा व्यक्ति नहीं हो सकता क्योंकि वह तो दल और सत्ता के लिए सभी तरह के गर्हित खेल खेलता है और उसी बूते कुर्सी पर बैठा रहता है। महात्मा गांधी ने इसीलिए 'हिंद स्वराज्य' में लिखा है कि वह प्रधानमंत्री को देशभक्त मानने को भी तैयार नहीं हैं क्योंकि उसके किसी भी निर्णय का आधार देशहित नहीं होता, वह तो अपनी सत्ता को देशहित बताकर सारे धतकरम करता है।

हमारा संविधान एकदम सीधी-सी बात कहता है कि संसदीय राजनीति में अंपायर वही हो सकता है जो खुद किसी टीम की तरफ से न खेलने लगे। संविधान कहता है कि अंपायर का काम है, खिलाड़ियों को खेलने दे और इस पर कड़ी नजर रखे कि सभी नियम से खेलें। कोई नियम से बाहर गया नहीं कि अंपायर की सीटी बजी। क्या ऐसा तटस्थ व्यक्ति खोजना और उसका मिलना संभव है? बिल्कुल संभव है लेकिन तब ही जब आप अपने दलीय और सत्तागत स्वार्थ के दायरे के बाहर देखने-खोजने लगें, और ऐसा तभी कर सकेंगे जब संविधान को अपना मार्गदर्शक मानेंगे।


हमें आज ऐसा राष्ट्रपति चाहिए जिसमें राजेंद्र प्रसाद, सर्वपल्ली राधाकृष्णन, कोचेरिल रामन नारायणन तथा एपीजे अब्दुल कलाम- इन चारों का समन्वय हो। खास ध्यान देने की बात यह है कि ये चारों दलीय राजनीति से दूर और विशिष्ट हैसियत रखने वाले लोग थे। राजेंद्र प्रसाद आजादी की लड़ाई का नेतृत्व करने वालों में एक थे। उस दौर की शायद ही कोई ऐसी हस्ती हो जो आजादी की लड़ाई का सिपाही हो लेकिन कांग्रेस से जुड़ा न हो। भारतीय गणराज्य के प्रथम अभिभावक की भूमिका में राजेंद्र प्रसाद इसलिए अनोखे हैं कि राष्ट्रपति कैसा हो, क्या करे-क्या न करे, क्या बोले-क्या न बोले, इन सबका निर्धारण उनका ही किया है। जैसे जवाहरलाल आजादी के बाद के प्रारंभिक वर्षों में इस देश के प्रधानमंत्री मात्र नहीं थे, संसदीय लोकतंत्र के मानकों के शिल्पकार थे। कुछ वैसी ही भूमिका राजेंद्र प्रसाद ने भी निभाई। जवाहरलाल की सरकार से वह कई मामलों में असहमत रहे। वह असहमति उन्होंने कभी दबाई-छिपाई भी नहीं। भारतीय राष्ट्रपति की संविधान-सम्मत भूमिका की पहली गंभीर बहस उन्होंने अपने पहले कार्यकाल में ही खड़ी की थी और उससे काफी हलचल भी पैदा हुई थी। वह इसके प्रति सदा सचेत भी थे कि वह राजेंद्र प्रसाद की नहीं, भारत के राष्ट्रपति की संवैधानिक भूमिका के कील-कांटे बना रहे हैं जिस पर इस नवजात गणतंत्र को अपना ढांचा खड़ा करना है। भारत के हर राष्ट्रपति को यह उत्तरदायित्व राजेंद्र प्रसाद से विरासत में मिला है।

सर्वपल्ली राधाकृष्णन उन राष्ट्राध्यक्षों की श्रेणी में आते हैं जिसकी कल्पना दार्शनिक अरस्तू ने की थी। विद्वता में अपने उदाहरण आप राधाकृष्णन कभी मूक या 'रबरस्टांप' राष्ट्रपति नहीं रहे। उन्होंने राष्ट्रपति का संवैधानिक दबाव जवाहरलाल पर भी और बाद में इंदिरा गांधी पर भी बनाए रखा। केआर नारायणन राजनयिक, अध्येता तथा अर्थशास्त्री थे। वह देश के पहले दलित राष्ट्रपति थे और अत्यंत कुशल तथा पैनी निगाह रखते थे। कलाम साहब अटलबिहारी वाजपेयी की पसंद थे लेकिन उन्होंने हर चंद कोशिश की कि वह दल की नहीं, देश की पसंद बनें। उन्होंने राष्ट्रपति पद को और उसकी कार्यशैली को भी लोकतांत्रिक जामा पहनाया। जब वह विज्ञान की दुनिया से राजनीति की दुनिया में लाए गए, तब राजनीति का अपना गणित रहा ही होगा लेकिन कलाम साहब ने कभी 'उनका' या 'इनका' खेल नहीं खेला। उन्हें 'जनता का राष्ट्रपति' कहा गया तो इसलिए कि वह न आतंकित करते थे, न आतंकित होते थे।


इन चारों के गुणों का समन्वय आज के राष्ट्रपति में इसलिए चाहिए कि भारतीय संसदीय लोकतंत्र और राष्ट्र के रूप में भारत एक नाजुक दौर से गुजर रहा है। तब आजादी को एक अर्थपूर्ण स्वरूप देने की चुनौती थी। आज 75 साल पुराने संसदीय लोकतंत्र को पटरी पर बनाए रखने तथा उसके विकास की संभावनाओं को पुख्ता करने की चुनौती है। यह धीरज, कुशलता, विद्वता, संविधान की गहरी जानकारी और उसके प्रति प्रतिबद्धता की मांग करता है। आज राष्ट्र को ऐसे राष्ट्रपति की जरूरत है जो राष्ट्र और संविधान से आगे तथा उससे पीछे न देखे, न देखने दे।

क्या मौजूदा उम्मीदवारों में ऐसी संभावना दिखाई देती है? आप ही बताइए, इसमें राष्ट्र कहां है?

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