बंदूक को दूरबीन बनाकर प्रधानमंत्री कश्मीर को देख-दिखा रहे, वक्त कश्मीरियों के साथ खड़े रहने का है

जनसंघ हो या बीजेपी- इनके पास देश की किसी भी समस्या के संदर्भ में कभी कोई चिंतन रहा ही नहीं है। इनके पास अपना एजेंडा रहा है जो कभी, किसी ने तैयार कर दिया था, इन्हें उसे ही पूरा करना है। इसलिए ये जब भी सत्ता में आते हैं, अपना एजेंडा पूरा करने दौड़ पड़ते हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
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कुमार प्रशांत

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अभी हाल में आधे घंटे से कुछ ज्यादा ही समय तक राष्ट्र को संबोधित किया। लेकिन देश यह समझने में असफल रहा कि वह किसे और क्यों संबोधित कर रहे थे। यदि उनके संबोधन का सार ही कहना हो तो कहा जा सकता है कि वह कश्मीरियों के बहाने देश को अपने उस कदम का औचित्य बता रहे थे, जिसे वह खुद भी जानते नहीं हैं। वह ऐसा सपना बेचने की कोशिश कर रहे थे जिसे वह देश में कहीं भी साकार नहीं कर पा रहे हैं। कश्मीर को जिस बंदूक के बल पर आज चुप कराया गया है, उसी बंदूक को दूरबीन बनाकर प्रधानमंत्री कश्मीर को देख और दिखा रहे थे।

ऐसा करना सरकार के लिए दुर्भाग्यपूर्ण और देश के लिए अपशकुन है। प्रधानमंत्री ने नहीं कहा कि ऐसा क्यों हुआ है कि दिन-दहाड़े एक पूरा राज्य ही देश के नक्शे से गायब हो गया- भारतीय संघ के 29 राज्य थे, अब 28 ही बचे। आपातकाल के दौरान भी लोकसभा का ऐसा अपमान सत्ता पक्ष ने नहीं किया था, और न तब के विपक्ष ने ऐसा अपमान होने दिया था, जैसा अंतिम दो दिनों में राज्यसभा और लोकसभा में हुआ और उन दो दिनों में हमने प्रधानमंत्री को कुछ भी कहते नहीं सुना। यह लोकतांत्रिक पतन की पराकाष्ठा है।

कहा जा रहा है कि लोकतंत्र बहुमत से ही चलता है, और बहुमत हमारे पास है। लेकिन ‘बहुमत’ शब्द में ही यह मतलब निहित है कि वहां बहु-मत होना चाहिए, विभिन्न मत, सबका विमर्श। राज्यसभा और लोकसभा में क्या उन दो दिनों में मतों का कोई आदान-प्रदान हुआ? बस, एक आदमी चीख रहा था, तीन सौ से ज्यादा लोग मेजें पीट रहे थे और बाकी पराजित, सिर झुकाए बैठे थे। यह बहुमत नहीं, बहुसंख्या है। आपके पास मत नहीं, गिनने वाले सर हैं।

पिछले सालों में हमसे कहा जा रहा था कि कश्मीर का सारा आतंकवाद सीमा पार से पोषित, संचालित और निर्यातित है। इसलिए तो हम बारंबार पाकिस्तान को कठघरे में खड़ा कर रहे थे, आप सर्जिकल स्ट्राइक कर रहे थे। अचानक गृहमंत्री और प्रधानमंत्री ने देश के पैरों तले से वह जमीन ही खिसका दी। अब पाकिस्तान कहीं नहीं है। प्रधानमंत्री ने कहा कि आतंकवाद का असली खलनायक अनुच्छेद 370 था और तीन परिवार थे। वे दोनों ध्वस्त हो गए हैं और अब आतंकवाद मुक्त कश्मीर डल झील की सुखद हवा में सांस लेने को आजाद है।

कहा जा रहा है कि कुछ मुट्ठी भर लोगों और तीन परिवारों ने कश्मीर में सारी लूट मचा रखी थी। मचा रखी होगी, तो उन्हें पकड़ कर जेल में डाल दें, यहां तो सारे राज्य को जेल बना दिया गया। क्या सरकार, राज्यपाल, प्रशासन, पुलिस- सब इतने कमजोर हैं कि तीन परिवारों का मुकाबला नहीं कर सकते थे? कल तक तो इन्हीं परिवारों के साथ मिलकर अटल बिहारी वाजपेयी के बाद आपने भी सरकारें चलाई थीं। तब क्या इस लूट में आपसी साझेदारी चल रही थी? और कौन कह सकता है कि अब यह पूरा राजनीतिक तंत्र बगैर लूट के चल सकता है? कौन-सी सरकारी परियोजना है जहां आवंटित पूरी रशि उसी में खर्च होती है? कोई यही बता दे कि राजनीतिक दलों की कमाई के जो आंकड़े अभी हाल ही आए हैं, उनमें ये अरबों रुपये शासक दल के पास कैसे आए?

बात कश्मीर की नहीं है, व्यवस्था की है। कश्मीर हमें सौंपा था इतिहास ने इस चुनौती के साथ कि हम इसे अपने भूगोल में समाहित करें। ऐसा दुनिया में कहीं और हुआ हो तो मुझे मालूम नहीं कि एक भरा-पूरा राज्य समझौता-पत्र पर दस्तखत कर के किसी देश में सशर्त शरीक हुआ हो। कश्मीर ऐसे ही हमारे पास आया और हमने उसे स्वीकार किया। अनुच्छेद 370 इसी संधि की व्यवहारिकता का नाम था, जिसे अस्थायी व्यवस्था तब ही माना गया था- लिखित में और जवाहरलाल नेहरू के कथन में भी।

बहुत कठिन चुनौती थी क्योंंकि इतिहास ने कश्मीर ही नहीं सौंपा था, हमें साथ ही सौंपी थी मूल्यविहीन सत्ता की बेईमानी, नीतिविहीन राजनीति की लोलुपता, सांप्रदायिकता की राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय कुचालें और पाकिस्तान के रास्ते साम्राज्यवादी ताकतों की दखलंदाजी। और तब हम भी क्या थे? अपना खंडित अस्तित्व संभालते हुए, एक ऐसे रक्त स्नान से गुजर रहे थे जैसा इतिहास ने पहले देखा नहीं था। एक गलत कदम, एक चूक या कि एक फिसलन हमारा अस्तित्व ही लील जाती।

इसलिए हम चाहते तो कश्मीर के लिए अपने दरवाजे बंद कर ही सकते थे। हमने वह नहीं किया। सैकड़ों रियासतों के लिए नहीं किया। जूनागढ़ और हैदराबाद के लिए नहीं किया, तो कश्मीर के लिए भी नहीं किया। वह साहस था, नया ही राजनीतिक प्रयोग था। आज इतिहास हमें इतनी दूर ले आया है कि हम यह जान-पहचान नहीं पाते हैं कि जवाहरलाल-सरदार पटेल-शेख अब्दुल्ला की तिकड़ी ने कैसे वह सारा संभाला, संतुलन बनाया और उसे एक आकार भी दिया। ऐसा करने में गलतियां भी हुईं, मतभेद भी हुए, राजनीतिक अनुमान गलत निकले और बेईमानियां भी हुईं। लेकिन ऐसा भी हुआ कि हम कह सके कि कश्मीर हमारा अभिन्न अंग है।

आज कश्मीर का मन मरघट बन गया है। हम कश्मीर को इसी तरह बंद तो रख नहीं सकेंगे। दरवाजे खुलेंगे, लोग बाहर निकलेंगे। उनका गुस्सा, क्षोभ- सब फूटेगा। बाहरी ताकतें पहले से ज्यादा जहरीले ढंग से उन्हें उकसाएंगी। और हमने संवाद के सारे पुल जला रखे हैं तो क्या होगा? तस्वीर खुशनुमा बनती नहीं है। प्रधानमंत्री ने ठीक कहा कि यह छाती फुलाने- जैसी बात नहीं है, नाजुक दौर को पार करने की बात है। लेकिन प्रधानमंत्री इसी बात के लिए तो जाने जाते हैं कि वे कहते कुछ हैं और उनका इशारा कुछ और होता है।

जनसंघ हो या बीजेपी- इनके पास देश की किसी भी समस्या के संदर्भ में कभी कोई चिंतन रहा ही नहीं है। रहा तो उनका अपना एजेंडा रहा है जो कभी, किसी ने, कहीं तैयार कर दिया था, इन्हें उसे पूरा करना है। इसलिए ये जब भी सत्ता में आते हैं, अपना एजेंडा पूरा करने दौड़ पड़ते हैं। उन्हें पता है कि संसदीय लोकतंत्र में सत्ता कभी भी हाथ से निकल सकती है। जनता पार्टी के वक्त या फिर अटल- दौर में, तीन-तीन बार सत्ता को हाथ से जाते देखा है इन्होंने। लोकतंत्र सत्ता दे तो भली, सत्ता ले ले, तो यह इनके दर्शन को पचता नहीं है, क्योंकि वह मूल में एकाधिकारी दर्शन है।

इसलिए 2012 से इस नई राजनीतिक शैली का जन्म हुआ है जो हरसंभव हथियार से लोकतंत्र को पंगु बनाने में लगी है। इसके रास्ते में आने वाले लोग, व्यवस्थाएं, संवैधानिक प्रक्रियाएं और लोकतांत्रिक नैतिकता की हर वर्जना को तोड़-फोड़ देने का सिलसिला चल रहा है। 2014 से हमारी संवैधानिक संस्थाओं के पतन के एक-पर-एक प्रतिमान बनते जा रहे हैं और हर नया, पहले वाले को पीछे छोड़ जाता है। कश्मीर का मामला पतन का अब तक का शिखर है।

भारत में विलय के साथ ही कश्मीर हमें कई स्तरों पर परेशान करता रहा है। आप इसे इस तरह समझें कि नेहरू प्रधानमंत्री हों और उनके आदेश से उनके खास दोस्त शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी हो, उनकी सरकार की बर्खास्तगी हो तो हालात कितने संगीन रहे होंगे। लेकिन तब कम-से-कम ऐसा तो था कि जयप्रकाश नारायण, विनोबा भावे, राममनोहर लोहिया- जैसे लोगों के पास सरकार और समाज को एक साथ कठघरे में खड़ा करने की स्थिति थी।

इस सरकार में इसकी इजाजत नहीं है। और इस ओर भी रेगिस्तान ही है। संसद में जो हुआ है, वह स्थायी नहीं है। कोई भी योग्य संसद उसे पलट सकती है। जो नहीं पलटा जा सकेगा, वह है मन पर लगा घाव, दिल में घर कर गया अविश्वास। इसलिए इस संकट में कश्मीरियों के साथ खड़े रहने की जरूरत है। जो बंदूक और फौज के बल पर घरों में असहाय बंद कर दिए गए हैं, उन्हें यह बताने की प्रबल जरूरत है कि देश का हृदय उनके लिए खुला हुआ है, उनके लिए धड़कता है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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