खरी-खरीः इंदिरा गांधी की राह पर चलकर प्रियंका ने कांग्रेस को दिखाई नई दिशा

साल 1977 से 1980 का इंदिरा गांधी का विपक्ष का दौर विपक्ष की राजनीति के लिए एक रोल मॉडल है। इस दौर में बतौर विपक्ष की नेता इंदिरा जी ने दिल्ली की राजनीति छोड़कर स्वयं को जनता की राजनीति में समर्पित कर दिया। नतीजा ये हुआ कि जनता ने उनको फिर से सत्ता सौंप दी।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया
user

ज़फ़र आग़ा

आप कांग्रेस मुक्त भारत की कल्पना कर सकते हैं? शायद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अतिरिक्त किसी और व्यक्ति के मन में यह विचार नहीं आ सकता है। क्योंकि पिछले डेढ़ सौ सालों का इतिहास मूल रूप से कांग्रेस का ही इतिहास है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम से लेकर देश के आधुनिक निर्माण तक कांग्रेस ही कांग्रेस दिखाई पड़ती है। प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में भारत की जीडीपी ग्रोथ भले ही घटकर छह प्रतिशत तक आ गई हो, परंतु भारत आज भी विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, जो कांग्रेस की ही देन है।

यहां कांग्रेस का इतिहास लिखना उद्देश्य नहीं है। बात केवल यह जतानी है कि भारत की कल्पना कांग्रेस के बिना हो ही नहीं सकती। पर मौजूदा परिस्थितियों में इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि इस समय कांग्रेस भारतीय राजनीतिक पटल पर जितनी सिमट गई है ऐसा उसके साथ पहले कभी नहीं हुआ। संसद में कुछ कांग्रेसी स्वर के अतिरिक्त इस महान पार्टी का प्रभाव और कहीं भी नहीं दिखाई पड़ रहा है। पार्टी एक संकट से जूझ रही है, यह अब जगजाहिर है। ऐसे में केवल कांग्रेस जनों के ही नहीं बल्कि संपूर्ण उदारवादी भारतीयों के मन में यह चिंता और पीड़ा है कि कांग्रेस का पुनर्निर्माण कैसे हो!

यह एक कठिन प्रश्न है, जिसका स्पष्ट उत्तर कदापि किसी के पास नहीं है। कांग्रेस के इस संकट के दौर में पार्टी महासचिव प्रियंका गांधी ने उत्तर प्रदेश के सोनभद्र में आदिवासियों की निर्मम हत्या की घटना के बाद वहां पीड़ितों से मिलने जाने के मुद्दे पर जिस प्रकार प्रदेश की योगी सरकार को झुकने पर मजबूर किया उससे कांग्रेस के पुनर्निर्माण की कुछ आशा दिखाई पड़ रही है। तो आखिर प्रियंका गांधी के चुनार धरने में ऐसी कौन सी विशेष बात थी जो पहले कभी किसी ने नहीं की थी?

दरअसल प्रियंका ने चुनार में जो किया वह स्वयं उनकी दादी इंदिरा गांधी 1978-80 के बीच कर चुकी थीं। प्रियंका चुनार में अपनी दादी का रचा इतिहास ही दोहरा रही थीं। इंदिरा गांधी के प्रशसंक और आलोचक दोनों ही साधारणतया उनके प्रधानमंत्री के दौर की ही आलोचना या सराहना करते हैं, परंतु इंदिरा गांधी के बारे में यह नहीं भूलना चाहिए कि वह इस देश की कदापि सबसे बड़ी विपक्ष की नेता भी थीं। अगर आज 1977-80 के बीच इंदिरा जी के विपक्षी दौर पर निगाह डालें, तो आपको उनकी विपक्ष की राजनीति का करिश्मा साफ दिखाई पड़ता है।


जरा याद कीजिए 1977 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी की हार। कांग्रेस उस समय चुनाव ही नहीं हारी थी बल्कि इमरजेंसी के कारण लगभग सारे देश में कांग्रेस का नाम ही पाप बन गया था। स्वयं इंदिरा गांधी की साख मिट्टी में मिल चुकी थी। उस समय स्वयं कांग्रेसियों को यह उम्मीद कम दिखाई पड़ती थी कि कांग्रेस अथवा इंदिरा गांधी जल्द अपने पैरों पर खड़े हो पाएंगे। लेकिन तीन साल के भीतर इंदिरा गांधी ने मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनी अत्यंत लोकप्रिय जनता पार्टी सरकार को ध्वस्त ही नहीं कर दिया बल्कि जनता पार्टी को तोड़कर उसकी साख हमेशा के लिए खत्म कर दी। फिर 1978 में नए सिरे से कांग्रेस का गठन कर वह स्वयं 1980 के अंत में पुनः भारत की प्रधानमंत्री बन गईं।

यह कोई आसान बात नहीं थी। इंदिरा गांधी ने 1980 में दोबारा प्रधानमंत्री बनकर विपक्ष की राजनीति का एक नया इतिहास रचा था। आखिर यह कमाल इंदिरा गांधी ने कैसे किया था कि इमरजेंसी की मार के पश्चात न वह स्वयं उठ खड़ी हुईं बल्कि उन्होंने अकेले अपने दम पर कांग्रेस पार्टी को भी पुनः जीवनदान दे दिया। आखिर यह करिश्माई काम उन्होंने किया कैसे!

अगर आप उनके जीवनकाल के उस दौर को देखें, तो यह साफ दिखाई पड़ता है कि वह 1977 का चुनाव हारकर कुछ दिन चुप बैठी रहीं। लेकिन 1978 में उत्तरी एवं पूर्वी भारत में भीषण बाढ़आ गई। आज के उत्तराखंड से लेकर संपूर्ण उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और असम तक सारे राज्य पानी में डूब गए। देश में हाहाकार मच गया। बस जनता की इस समस्या के बीच इंदिरा जी उठ खड़ी हुईं। और गांव-गांव, शहर-शहर जहां भी बाढ़ से पीड़ित लोग थे वहां इंदिरा गांधी उनके बीच उनका दुख-दर्द बांट रही थीं और बाढ़ राहत के लिए जनता सरकार को मजबूर कर रही थी।

स्वयं मुझको इंदिरा जी का विपक्ष के नेता का आंखों देखा स्वरूप अभी तक याद है। हम उस समय इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे थे। इलाहाबाद के आसपास के सारे देहात के गांव डूब चुके थे। शहर में भी गंगा और जमुना के तटीय मोहल्ले डूब रहे थे। ऐसे में हम और हमारी मित्रमंडली राहत के काम में जुट गई। एक रोज हम पास के गांव में राहत सामग्री लेकर पहुंचे। उस गांव में घुसना मुहाल था। पानी और कीचड़ के दलदल में डूबे उस गांव का रास्ता इतना गंदा था कि हम लोगों की भी हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि अंदर जाएं। लेकिन साहस जुटाकर किसी प्रकार उस गांव में घुस गए।


बाढ़ पीड़ितों को खाने-पीने की राहत पहुंचाकर जब हम लौटे तो हमारे कानों में यकायक ‘इंदिरा गांधी जिंदाबाद’ के नारों की आवाज सुनाई पड़ी। अब जो हमने गर्दन उठाकर देखा तो स्वयं इंदिरा गांधी कीचड़ में लथपथ हमारे सामने खड़ी थीं। उन्होंने तुरंत राहत का काम करने के लिए हम लोगों को शाबासी दी। फिर वह बाढ़ पीड़ितों में घुलमिल गईं। थोड़ी देर में सरकार की कोताही की चर्चा कर और जनता को संवेदना देकर वह वहां से चली गईं। परंतु इतनी देर में हम सब और वहां की जनता के मन में इमरजेंसी का जो गुबार था वह बिल्कुल छंट गया और इंदिरा जी फिर हमारी नायिका हो गईं।

और यही भाव दो वर्षों के बीच उनके प्रति सारे देश में उत्पन्न हो गया। बेलछी में दलितों की हत्या की घटना रही हो अथवा देश के किसी कोने में भी जनता के खिलाफ कोई भी अन्याय हो, इंदिरा जी हर जगह साक्षात उपस्थित रहती थीं। बड़ी बात यह है कि चिकमंगलुरू से जब वह चुनाव जीत कर आईं, तो शपथ लेने के पश्चात वह फिर संसद में पलट कर नहीं गईं। विपक्षी नेता के रूप में उनका अधिकतम समय जनता के बीच ही व्यतीत हुआ जिसका नतीजा यह हुआ कि1980 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी फिर सत्ता में थी और इंदिरा गांधी पुनः देश की प्रधानमंत्री।

क्या विपक्ष की नेता के रूप में यह इंदिराजी का कमाल नहीं था किवह 1977 में हारने के बाद 1980 में फिर जनता की सर्वप्रिय नेता बन चुकी थीं। साथ ही 1977 की हारी पार्टी कांग्रेस दोबारा देश की सर्वप्रिय पार्टी बन गई। दरअसल 1977 से 1980 का इंदिराजी का विपक्ष का दौर हर समय विपक्ष की राजनीति के लिए एक रोल मॉडल है। परंतु इस दौर में उन्होंने ऐसा क्या कमाल किया कि वह जनता के मन में फिर छा गईं। दरअसल विपक्ष की नेता के रूप में इंदिराजी ने संसदअथवा दिल्ली की राजनीति छोड़कर स्वयं को जनता की राजनीति में समर्पित कर दिया। कहीं भी अन्याय हो अथवा जनता पीड़ित हो, इंदिरा जी वहां पहुंच जाती थीं। अंततः जनता ने उनको फिर सत्ता में भेज दिया।

प्रियंका गांधी ने सोनभद्र प्रकरण में वही तरीका अपनाया जो विपक्ष में रहते समय इंदिरा गांधी का तरीका था। प्रियंका अन्याय के खिलाफ पीड़ितों के बीच स्वयं थीं और उनके इस सत्याग्रह के आगे योगी सरकार को झुकना ही पड़ा। प्रियंका की इस विजय से देश में यह आशा पैदा हो गई है कि कांग्रेस फिर अपने पैरों पर खड़ी हो सकती है। बस कांग्रेस के पुनर्निर्माण का यही एक तरीका है जिसका सबक इंदिरा जी पढ़ाकर गई हैं। कांग्रेस पार्टी प्रियंका गांधी की तरह इंदिराजी के उसी रास्ते पर चलकर पुनः देश का मुख्य स्वर बन सकती हैं।

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia