बढ़ती आबादी के साथ और विकराल होंगी समस्याएं, लेकिन खतरे से बेपरवाह नजर आ रही मोदी सरकार

आज की तुलना में 2030 और उसके बाद का भारत एकदम अलग होगा। वह कहीं अधिक बुजुर्ग होगा और इसकी जरूरतें भी अलग होंगी। बुजुर्गों की अधिक होती आबादी के कारण हमें स्वास्थ्य सेवाओं पर ज्यादा खर्च करना होगा। सवाल उठता है कि क्या हम बदलती जरूरतों के लिए तैयार हैं?

फोटोः सोशल मीडिया
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राजेश रपरिया

बढ़ती आबादी से जुड़ी समस्याओं और चुनौतियों से वाकिफ कराने के लिए हर साल 11 जुलाई को विश्व जनसंख्या दिवस मनाया जाता है। बढ़ती आबादी मानव अस्तित्व के लिए गंभीर खतरा बन चुकी है। बढ़ती आबादी से प्राकृतिक संसाधनों, जलवायु परिवर्तन, खाद्यान्न उपलब्धता, आर्थिक विषमता, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार आदि से जुड़ी समस्याएं दिन-प्रतिदिन विकराल होती जा रही हैं।

आर्थिक-सामाजिक विकास में भारत की बढ़ती आबादी सबसे बड़ी बाधा बन गई है, जो विकास की उपलब्धियों को लील जाती है। यूएनडीपी की 2010 की एक रिपोर्ट के अनुसार 2025 तक देश की आबादी चीन से ज्यादा हो जाएगी। अभी चीन की आबादी विश्व में सबसे ज्यादा है। अनुमान है कि 2030 तक भारत की आबादी 150 करोड़ को पार कर जाएगी।

अत्यधिक आबादी कामकाजी संस्थाओं को अक्षमता की ओर ढकेल देती है और देश के बुनियादी ढांचे, चिकित्सा सहायता सुविधाओं और सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों को निस्तेज बना देती है। प्रदूषित वायु, जल, अत्यधिक गरीबी, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं में भारी कमी के कारण भूख, बीमारियों और आबादी पर नियंत्रण पाने की तमाम भारतीय कोशिशें नाकाम साबित हो रही हैं।

इसका नतीजा है कि देश में बेरोजगारी, कृषि संकट, कमजोर चिकित्सा ढांचा और शिक्षा की समस्याएं बेकाबू नजर आती हैं। वैसे भी इन समस्याओं पर मौजूदा मोदी सरकार का ध्यान कम है। पर शिक्षित और स्वस्थ आबादी के बिना सतत आर्थिक विकास लक्ष्य को हासिल करना बेहद मुश्किल काम है।

खतरों से निपटना है तो शिक्षा का दायरा बढ़ाना होगा

शिक्षा के स्तर को बढ़ाए बिना बढ़ती आबादी के खतरों से निपटना असंभव है। यह सही है कि शिक्षा का अधिकार कानून और शिक्षा उपकर लगाने के बाद प्राथमिक स्कूलों में नामांकनों में (दाखिलों) काबिले तारीफ वृद्धि हुई है। पर समय से पहले स्कूल छोड़ने वालों की संख्या अब भी बड़ी समस्या बनी हुई है, जो बढ़े दाखिलों की उपलब्धि पर पानी फेर देती है। 100 में से 42 छात्र हाई स्कूल पहुंचने से पहले ही पढ़ाई छोड़ देते है।

इससे भी ज्यादा दुखद यह है कि शिक्षा के स्तर में इन स्कूलों में कोई सुधार दर्ज नहीं हुआ है।प्राथमिक स्कूलों में शिक्षा स्तर की गिरावट में शिक्षकों की कमी और उनकी योग्यता भी एक बड़ा कारण है। सेंटर फॉर बजट ऐंड अकाउंटेबिलिटी संस्था के अनुसार प्राथमिक स्कूलों में पांच लाख शिक्षकों की कमी है। इनमें उत्तर प्रदेश समेत छह राज्यों में ही 4.2 लाख शिक्षकों के पद खाली हैं। माध्यमिक स्कूलों में शिक्षकों के 14 फीसदी पद खाली पड़े हैं और बिहार, पश्चिम बंगाल में क्रमशः औसत 36 और 27 फीसदी शिक्षक योग्यता के मानकों पर खरा नहीं उतरते हैं।

यूएनएचडी की एक रिपोर्ट के अनुसार 2030 तक 0-14 के उम्र की आबादी 30 करोड़ होगी। जब तक शिक्षा पर सरकारी खर्च नहीं बढ़ेगा, सुधार की उम्मीद बेमानी है। फंड की कमी के कारण सरकारी स्कूलों में संसाधनों की भारी किल्लत है। सरकारी स्कूलों में गिरते शिक्षा के स्तर के कारण अब ग्रामीण क्षेत्रों में भी निजी स्कूलों में छात्रों की संख्या में वृद्धि हो रही है।


सरकार तकरीबन जीडीपी का तीन फीसदी ही शिक्षा पर खर्च करती है, जबकि इसे छह फीसदी करने की सिफारिश काफी पुरानी है। आने वाले समय में प्राथमिक शिक्षा के स्तर में सुधार नहीं होता है, तो आर्थिक विषमता और गांव-शहरों की खाई और बढ़ जाएगी। उचित शिक्षा के अभाव में देश में परिवार नियोजन, लैंगिक समानता आदि प्रयास समुचित असर नहीं डाल पाएंगे जिससे आबादी पर अपेक्षित नियंत्रण पाना बेहद मुश्किल हो जाएगा।

स्वास्थ्य सुविधाएं बेहद लचर

देश में स्वास्थ्य सुविधाएं काफी लचर हैं। अधिसंख्य आबादी को इलाज के लिए कुल स्वास्थ्य व्यय का 62 फीसदी खर्च अपनी जेब से करना पड़ता है, जो वैश्विक औसत 18 फीसदी से कई गुना ज्यादा है। आने वाले समय में यह खर्च और ज्यादा हो सकता है, क्योंकि देश में गैर-संक्रामक रोग तेजी से बढ़ रहे हैं। अन्य देशों की तुलना में देश में गैर-संक्रामक रोगों के मरीज सबसे ज्यादा हैं। 90 फीसदी सरकारी अस्पतालों में इन रोगों के इलाज की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। इसलिए गैरसरकारी अस्पतालों में इलाज कराना उनकी बाध्यता है।

आज देश में 55 फीसदी मरीज गैर-संक्रामक रोगों से पीड़ित हैं। बढ़ती जनसंख्या के कारण पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। घनी आबादी के कारण क्षय रोग, मलेरिया, डेंगू आदि से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता कम हो रही है। इस समय सबसे ज्यादा बीमारियां वायु प्रदूषण से फैल रही हैं। आज देश में हर पांचवा व्यक्ति गैर-संक्रामक रोग से पीड़ित है। 10 में से 6 मौत गैर-संक्रामक रोगों से होती है। इनमें हृदय, श्वसन और कैंसर से होने वाली मौत की संख्या सबसे ज्यादा है। सबसे दुखद पहलू यह है कि 59 फीसदी ऐसे मरीज इलाज के अभाव में दिवंगत हो जाते हैं।

गैर संक्रामक रोगों का इलाज बहुत महंगा है। 80 फीसदी से ज्यादा आबादी इन रोगों के इलाज के लिए निजी अस्पतालों पर निर्भर है। हृदय संबंधी जैसे एंजियोप्लास्टी, कॉरोनरी आर्टरी बाईपास आदि में 4-6 लाख रुपये का खर्च मामूली बात है। घुटने या कुल्हे बदलवाने में 5-7 लाख रुपये का खर्च आता है। साधारण बीमारी में भी निजी अस्पताल में भर्ती होने पर तकरीबन 25 हजार रुपये रोजाना का खर्च आता है। सरकारी आंकड़ों में भी चिकित्सा महंगाई सामान्य महंगाई से ज्यादा है।

स्वास्थ्य बीमा कंपनियों के अनुसार मोतियाबंद, एंजियोग्राफी, बवासीर, प्रोस्टेट सर्जरी, एंजियोप्लास्टी आदि का इलाज खर्च पिछले दस सालों में 100 फीसदी से अधिक बढ़ चुका है। इन बीमा कंपनियों के अनुसार जिस बीमारी पर आज दो लाख रुपये का खर्च आता है, उस पर पांच साल बाद 3.22 लाख, दस साल बाद 5.18 लाख और 15 साल बाद 8.35 लाख रुपये का खर्च आएगा।

देश में इलाज खर्च के कारण तकरीबन 5.5 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं। इलाज के लिए हर चौथा शख्स अपनी संपदा बेचने को मजबूर है। संदेश साफ है कि आप बीमार होंगे, और डॉक्टर मलाई काटेंगे। जाहिर है कि भविष्य में आयुष्मान भारत योजना 10 करोड़ परिवारों को मुफ्त इलाज कैसे उपलब्ध कराएगी, इसपर सबकी नजर रहेगी।


कृषि की स्थिति सुधारने की बड़ी चुनौती

देश के मशहूर कृषि विशेषज्ञ डॉक्टर एम. एस. स्वामीनाथन का कहना है कि यदि खेती उत्तम नहीं है, तो देश में कुछ भी ठीक नहीं होगा। मौजूदा आर्थिक मंदी पर स्वामीनाथन का कथन 100 फीसदी सच है। कृषि संकट के कारण ही आज चौतरफा मंदी है और विकास का पहिया जाम सा है। कृषि के लगातार अलाभप्रद होने के कारण भारी तादाद में किसानों की संख्या में कमी हुई है जो अब खेतिहर मजदूर बन गए हैं।

इसका मुख्य कारण है कि कृषि लागत की महंगाई, कृषि उत्पादों की महंगाई से बहुत ज्यादा है। सीमांत और छोटे किसानों की आय तकरीबन 80 हजार रुपये सालाना है। इन किसानों की कृषि लागत भी ज्यादा है और उत्पादकता कम है। कृषि के अलाभप्रद होने से आज 43 फीसदी किसान कर्ज के बोझ से दबे हुए हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने किसानों की आय 2022 तक दोगुनी करने का वादा किया है। पर नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले सालों में किसानों की वास्तविकआय महज 3.8 फीसदी सालाना बढ़ी है। कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि इस हिसाब से कृषि आय को दोगुनी करने में तो 25 साल लग जाएंगे।

व्यापारिक संगठन फिक्की की एक रिपोर्ट के अनुसार कुल खाद्य उत्पादन का 35-40 फीसदी हर साल नष्ट हो जाता है। इससे तकरीबन एक लाख करोड़ का नुकसान किसानों को होता है जो प्रधानमंत्री कृषि सम्मान निधि के कुल अनुमानित खर्च 90 हजार करोड़ से ज्यादा है। अगर इस बर्बादी को रोकने के लिए मोदी सरकार माकूल व्यवस्था कर दे, तो किसानों को काफी मदद मिल सकती है, वैसे भी कृषि में मोदी सरकार ने 2025 तक 25 लाख करोड़ रुपये निवेश का वादा किया है।

पहले मानिए तो कि बेरोजगारी बढ़ी है

पिछले कुछ सालों में रोजगार के साथ जो अंधेर हुआ है, उसकी मिसाल पिछले 70 साल से ढूंढे नहीं मिलेगी। बेरोजगारी और अल्प रोजगार की समस्या कोई नई नहीं है लेकिन इसे नकारने की मोदी सरकार की हठधर्मिता से समस्या उलझ गई है। मोदी सरकार की नीतियों और निर्णयों से मई, 2019 में बेरोजगारी दर पिछले 45 सालों के सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गई। एक अध्ययन के अनुसार अशिक्षितों से ज्यादा शिक्षितों में बेरोजगारी दर है। पिछले छह सालों में 1.30 करोड़ महिलाएं श्रम बाजार से विमुख हो चुकी हैं जो बहुत अशुभ संकेत है।

फिक्की की रिपोर्ट के अनुसार अभी 50-55 लाख नए रोजगार अवसर सृजित होते हैं यानी तकरीबन 10 लाख लोग रोजगार से वंचित रह जाते हैं। इस रिपोर्ट का आकलन है कि बढ़ती आबादी के कारण 2030 तक हर साल 85-90 लाख नए रोजगार अवसर सृजित करने होंगे। पर मौजूदा 7 फीसदी विकास दर से यह लक्ष्य पाना बहुत मुश्किल है। इस लक्ष्य को पाने के लिए लगातार 9-10 फीसदी की विकास दर की जरूरत है।


इन्फ्रास्ट्रक्चर तो दुरुस्त करना ही होगा

इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास को ले कर मोदी सरकार का दावा है कि जितना काम इस क्षेत्र में उसके कार्यकाल में हुआ, उतना काम पिछले 70 सालों में नहीं हुआ। मोदी सरकार का कहना है कि मई 14 में हाईवे का निर्माण 8.7 किलोमीटर रोजाना था लेकिन आज रोजाना 35 किलोमीटर हाईवे का निर्माण हो रहा है। विडंबना है कि इन्फ्रास्ट्रक्चर के सुनहरे दावों की मोदी सरकार की कहानी यहीं समाप्त हो जाती है। पोर्ट्स, एयरपोर्टस, सिंचाई आदि को लेकर कुछ खास बताने को मोदी सरकार के पास नहीं है।

अनेक देसी-विदेशी अर्थ विशेषज्ञों का साफ मानना है कि मजबूत इन्फ्रास्ट्रक्चर के बिना जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर का योगदान 2022 तक 25 फीसदी ले जाना नामुमकिन है। मोदी सरकार ने वादा किया था कि 2022 तक जीडीपी में मैन्यूफैक्चरिंग का योगदान 25 फीसदी हो जाएगा और 10 करोड़ रोजगार सृजित होंगे। इनमें कुछ भी पूरा नहीं हुआ बल्कि रोजगार का स्तर और घट गया। अब मोदी सरकार ने यह समय सीमा खुद ही 2025 कर ली है।

अब मोदी सरकार ने 2025 तक इन्फ्रास्ट्रक्चर में 100 लाख करोड़ निवेश का वायदा किया है, पर इसका कोई खाका सरकार ने पेश नहीं किया है कि कब, कहां और कितना निवेश करेगी और इतनी पूंजी कहां से, कैसे जुटाएगी। पर यह सच है कि कृषि, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार को बेहतर किए बिना अर्थव्यवस्था का दौड़ना मुश्किल है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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