असमानता के खिलाफ भारत समेत दुनिया भर में आंदोलन, फिर कैसे आ रही है कट्टरपंथियों के हाथ में सत्ता!

भारत समेत दुनिया के कई देशों में पिछले कुछ सालों से कई बड़े आंदोलन चल रहे हैं। इनमें से अधिकतर आंदोलनों की जड़ में बढ़ती आर्थिक और सामाजिक असमानता है, जो पूंजीवाद की देन है। हालांकि इन आंदोलनों में से किसा का कोई बड़ा परिणाम निकलकर सामने नहीं आया है।

फोटोः सोशल मीडिया
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महेन्द्र पांडे

दुनिया में पिछले साल (2019) में शुरू हुए अधिकतर आंदोलन अभी तक चल रहे हैं- इसमें फ्रांस, स्पेन, हांगकांग, भारत, चिली, कोलंबिया, बोलीविया, लेबनान, इराक और ईरान के आंदोलन प्रमुख हैं। इन आंदोलनों का कोई एक कारण नहीं है और ना ही इनमें से किसी का कोई बहुत बड़ा परिणाम सामने आया है। पर, इनमें से अधिकतर आंदोलनों की जड़ में दुनिया भर में बढ़ती आर्थिक और सामाजिक असमानता जरूर है और यह पूंजीवाद की देन है।

अपने देश का उदाहरण ही ले लीजिये। नोटबंदी के समय से देश की आर्थिक हालत लगातार बिगड़ती जा रही है, पर सरकार ने इसे सुधारने के नाम पर आज तक जो निर्णय लिए उसका फायदा केवल अमीरों को मिला। अडाणी, अंबानी और टाटा की संपत्ति कई गुना बढ़ गयी पर दूसरी तरफ मध्यम और गरीब आबादी महंगाई, मंदी और बेरोजगारी के कुचक्र में फंसती रही। सरकार के अन्य फैसले सामाजिक विषमता बढाते रहे। फिर भी लोग सब्र करते रहे।

इस दौरान बड़े आंदोलन केवल किसानों ने किए और उसका भी मूल कारण आर्थिक असमानता ही था। पर, नागरिकता संशोधन कानून के बाद तो जनता के सब्र का बांध टूट गया और पूरे देश में आंदोलन शुरू हो गए। इसमें लैंगिक असमानता झेलती महिलाओं ने सामाजिक और कुछ हद तक आर्थिक विषमता के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। इस तरह के आंदोलन अभी तक उतने ही उत्साह और ऊर्जा से चल रहे हैं, जैसे शुरू किए गए थे।

दिल्ली का “शाहीन बाग” अब अपने आंदोलन के लिए देश में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में जाना जाने लगा है। इसे भले ही पत्रकार, सरकार और समाज का एक तबका केवल मुस्लिम महिलाओं का सीएए के खिलाफ प्रदर्शन मानता हो, पर इसे ध्यान से देखने पर पता चलता है की यह आंदोलन लैंगिक असमानता झेलती आबादी का बढ़ती सामाजिक और आर्थिक असमानता के विरुद्ध है। यहां किसी से भी बात कर देखिये, सीएए के साथ में ही महंगाई और बेरोजगारी पर भी चर्चा की जाती है।


लेबनान में अक्टूबर 2019 से सरकार की सोशल मीडिया पर टैक्स लगाने की योजना के विरोध में जन-आंदोलन शुरू किया गया था। पर जैसे-जैसे लोग बढ़ते गए, वैसे-वैसे बेरोजगारी, साम्प्रदायिकता, भ्रष्टाचार और बुनियादी सुविधाओं का अभाव जैसे मुद्दे आंदोलन में जुड़ते चले गए.

चिली में पिछले वर्ष जन-आंदोलनों का आरंभ सबवे का किराया बढाने को विरुद्ध था। पर बाद में महंगाई, कम वेतन, और नाममात्र की पेंशन जैसे मुद्दे इसमें जुड़ते चले गए। दुनिया के लिए चिली में बड़ा जन-आंदोलन एक आश्चर्य था, क्योंकि यहां की शासन-व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त माना जाता है और आर्थिक वृद्धि की दर भी अच्छी है। चिली में प्रतिव्यक्ति आय 15800 डॉलर से अधिक है और यह देश आर्गेनाईजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) का सदस्य भी है। पर एक तथ्य यह भी है की ओईसीडी के सभी 36 सदस्यों में से चिली में ही सबसे अधिक आर्थिक असमानता है।

हांगकांग में लंबे समय से चल रहे जन-आंदोलनों का आरंभ भले ही चीन की बढ़ती दखलअंदाजी के विरोध के लिए किया गया हो, पर इसमें भी असमानता की झलक जरूर है। हांगकांग दुनिया के सबसे महंगे शहरों में एक है और रहने के सन्दर्भ में इसे दुनिया का सबसे अनुपयुक्त शहर भी माना जाता है। यहां के अपार्टमेंट का किराया लंदन और न्यू यॉर्क की तुलना में दुगुने से अधिक है। यह दुनिया का सबसे अधिक आर्थिक असमानता वाला शहर भी है। यहां के 93 अरबपतियों के पास 300 अरब डॉलर से अधिक की संपत्ति है, पर शहर की 20 प्रतिशत आबादी गरीब है।

दुनिया भर में पूंजीवादी व्यवस्था ने असमानता को लगातार बढ़ाया है। ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में 26 सर्वाधिक अमीर व्यक्तियों के पास जो संपत्ति है, वह दुनिया के सबसे गरीब 3.8 अरब लोगों की संयुक्त संपत्ति से अधिक है। अमेरिका के 3 सबसे अमीर लोगों और दूसरी तरफ 16 करोड़ सर्वाधिक गरीब लोगों की संपत्ति लगभग बराबर है। लेबनान की सर्वाधिक अमीर एक प्रतिशत आबादी के पास देश की 25 प्रतिशत से अधिक संपत्ति है। कुल मिलाकर दुनिया के 21543 अरबपतियों की संपत्ति दुनिया की 60 प्रतिशत आबादी की संयुक्त संपत्ति से भी अधिक है।


हमारे देश में दुनिया भर की तुलना में आर्थिक विषमता अधिक है। यहां सर्वाधिक अमीर एक प्रतिशत आबादी के पास उतना धन है, जो सर्वाधिक गरीब 70 प्रतिशत आबादी से चार गुना अधिक है। यहां के 61 अरबपतियों की संपत्ति का मोल देश के कुल वार्षिक बजट से भी अधिक है। यहां के बड़े सीईओ को जितना वेतन एक वर्ष में मिलता है, उतना एक मजदूर 22277 वर्षों में कम पाएगा। देश की घरेलू महिलाएं हरेक दिन 3.26 अरब घंटे का काम करती हैं, पर उन्हें कोई वेतन नहीं मिलता। घरेलू महिलाओं के मुफ्त काम की कीमत प्रति वर्ष 19 लाख करोड़ रुपये से भी अधिक है।

संयुक्त राष्ट्र के इन्टरनेशनल लेबर आर्गेनाईजेशन ने साल 2017 में ही दुनिया को चेताया था कि दुनिया भर में बढ़ती असमानता और बेरोजगारी के विरुद्ध जन-आंदोलन और तेज होते जाएंगे। पर, पूंजीवादी सत्ता का परिणाम केवल असमानता और बेरोजगारी ही नहीं है, इसके व्यापक परिणाम अब दुनिया भर में कट्टरपंथियों, चरमपंथियों और राष्ट्रवादी सरकारों के सत्ता में काबिज होने के तौर पर भी सामने आ रहे हैं। साल 2008 की आर्थिक मंदी के बाद से अब तो ट्रम्प. मोदी, मोरिसन और जॉनसन जैसे शासकों की भरमार हो गयी है। इसके बाद से यह एक शोध का विषय हो सकता है कि वामपंथी और उदारवादी विचारधारा की अगुवाई में बड़े जन-आंदोलन करने के बाद भी कट्टरपंथी और दक्षिणपंथी एक के बाद एक चुनाव जीत कर सत्ता में क्यों आ रहे हैं?

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