डॉ अरविंद मायाराम का लेख: सरकारी कंपनियों का निजीकरण: एक सोची-समझी रणनीति या फिर सिर्फ पैसा उगाहने की मंशा!

जरूरत है कि सरकार निजीकरण पर फिलहाल विराम लगाए और इस पर विस्तार से सोचे। इस बारे में सार्वजनिक बहस के लिए अपनी रणनीतिक सोच सामने रखे। इससे सरकार को सार्वजनिक उपक्रमों से बाहर निकलने के लिए एक बौद्धिक सलाह-मशविरा मिल सकता है, जिसकी उसे सख्त जरूरत है।

फोटो : सोशल मीडिया
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डॉ. अरविंद मायाराम

इस साल के आम बजट में सरकार ने वर्ष 2020-21 के लिए जीडीपी के 9.5 फीसदी और वर्ष 2021-22 के लिए जीडीपी के 6.8 फीसदी केंद्रीय वित्तीय घाटे का अनुमान जताया था। इसके साथ ही सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों और वित्तीय संस्थानों में अपनी हिस्सेदारी बेचकर 1.75 लाख करोड़ रुपए जुटाने का भी लक्ष्य रखा था। जिन सरकारी कंपनियों को बेचने की बात की गई उनमें सरकारी बैंक और एक बीमा कंपनी में हिस्सेदारी बेचना भी शामिल था।

जिस तरह सरकार के 2019-20 में 1.05 लाख करोड़ के विनिवेश लक्ष्य में सिर्फ 50,298 करोड़ ही हासिल हो पाए थे, उसे देखते हुए यह एक बहुत ही महत्वाकांक्षी लश्र्य था। 2020-21 में भी सरकार ने 1.20 लाख करोड़ का लक्ष्य रखा था, लेकिन इसमें भी 21302.92 करोड़ की कमी रह गई।

जो भी हो, लेकिन इस बात पर गहरी बहस छिड़ गई है कि क्या सरकार को अपने प्राथमिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए क्या सरकारी कंपनियां बेचना चाहिए। हालांकि वित्त मंत्री ने हाल ही में मुंबई में एक कार्यक्रम में कहा था कि, “घर के गहनों की हिफाजत करनी चाहिए, यह हमारी ताकत होती है...क्योंकि इसे इस तरीके से फैलाया गया है कि कई (कंपनियां) खुद को ही नहीं बचा पा रही हैं, और जो कुछ सुधर सरकी हैं उनकी तरफ ध्यान नहीं जा पा रहा है।” जहां तक ओएनजीसी और कई सरकारी बैंकों को बेचने का सवाल है जिन्हें सरकार बेचना चाहती हैं, उसे लेकर सरकार की मंशा पर गंभीर सवाल उठते हैं।

मैं इस बात को रिकॉर्ड पर कह रहा हूं कि मैं कोई सांख्यिकीविद नहीं हूं और मैं अर्थव्यवस्था में सरकारी दखल को कम से कम करने की वकालत करता रहा हूं। लाभकारी कंपनियों में हिस्सेदारी ऐसा ही दखल है जिसे कम करना चाहिए। लेकिन साथ ही मेरा यह भी दृढ़ता से मानना है कि ऐसा करने के लिए बुनियादी नीति बदलाव होना चाहिए और इसके लिए सोच समझकर सभी हितधारकों से सलाह-मशविरा के बाद फैसला लेना चाहिए।

सरकारी उपक्रमों ने अर्थव्यवस्था में पूंजी निर्माण और 1950 और 1960 के दशक में देश में आर्थिक बुनियादी ढांचे में महत्वपूर्ण मौकों पर मदद देने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वह भी ऐसे वक्त जब निजी क्षेत्र मदद करने की स्थिति में नहीं था और अर्थव्यवस्था का बोझ नहीं उठा सकता था। रेलवे, बिजली क्षेत्र, सड़कों, बंदरगाहों आदि में निवेश ने पिछड़े और आगे के संपर्क को स्थापित किया, जो केवल सरकारी उपक्रमों की स्थापना से ही संभव हो पाया।


भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (भेल) ने बिजली उत्पादन और भारी उपकरण निर्माण, चितरंजन रेलवे ने रेल इंजिन उत्पादन कार्यशाला, शिपिंग कार्पोरेशन ऑफ इंडिया ने समुद्री व्यापार में पैर रखने आदि औद्योगिक बुनियाद तैयार की जो कि नेहरूवादी दृष्टिकोण का नतीजा था और जो 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद से 2016 तक भारत की तेज गति से आर्थिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त करती रही।

इन कंपनियों ने एक और बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई – वह थी बाजार बनाने की। जैसे-जैसे निजी क्षेत्र की ताकत बढ़ती गई, उससे उच्च और तेजी से बढ़ते मध्यम वर्ग में भी इजाफा हुआ, लेकिन इस क्रम में ज्यादातर गरीब और दूरदराज के क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की अनदेखी होती गई। सार्वजनिक उपक्रमों ने इस दौरान राहों पर महत्वपूर्ण तरीकों कदम रखा: (एक) उन क्षेत्रों में लगातार औद्योगिक क्षमता का विस्तार किया, जो निजी क्षेत्र के लिए कदम बढ़ाने के लिए अभी तक लाभदायक नहीं थे, (दो) औद्योगिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों में इकाइयां स्थापित कर एक बहुत ही आवश्यक कार्य करते हुए इन इलाकों में आर्थिक गतिविधियों की पूर्ति और प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रोजगार पैदा किए, और (तीन) गरीबों के लिए वस्तुओं और सेवाओं को सस्ता रखने के लिए निजी क्षेत्र के साथ मूल्य प्रतिस्पर्धा पैदा की।

इसलिए सवाल यह है कि क्या सरकार के इन कंपनियों से बाहर निकलने के लिए ये सभी स्थितियां खत्म हो गई हैं या फिर यह सरकार द्वारा देश की संपत्तियां बेचकर गिरत अर्थव्यवस्था और घटते राजस्व को संभालने भर की इच्छा मात्र है?

कोई भी इस दृष्टिकोण से असहमत नहीं हो सकता कि "कारोबार करना सरकार का काम नहीं है"। लेकिन निजीकरण के लिए सरकार जो तरीका अपना रही है वह बहुत अच्छी तरह से सोची समझी रणनीति से अपनाया हुआ प्रतीत नहीं होता है।

ओएनजीसी, आईओसी, गेल और एनटीपीसी सहित कई 'महारत्न’ और ‘नवरत्न’ कंपनियों के “निजी” कंपनियां बनने की संभावना है, क्योंकि सरकार की हिस्सेदारी 51 प्रतिशत से नीचे जाने वाली है। ये रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण सार्वजनिक उपक्रम हैं और भारतीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं।


ओएनजीसी भारत में कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस उत्पादन की सबसे बड़ी कंपनी है, भारतीय घरेलू उत्पादन में इसका हिस्सा लगभग 75 प्रतिशत है। इसने अपनी सहायक कंपनी ओएनजीसी विदेश के माध्यम से, भारत की ऊर्जा सुरक्षा को मजबूत करने के लिए वैश्विक तेल भंडार में प्रमुख हिस्सेदारी हासिल की है। एक सरकारी उपक्रम के नाते यह विशुद्ध रूप से लाभ के बजाए राष्ट्रीय हित को प्राथमिकता देती है।

दूसरी ओर, 2014 में एक डरावनी रिपोर्ट में, सीएजी ने कहा कि रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड (आरआईएल) पूरी तरह से कृष्णा-गोदावरी में अपनी क्षमता का पूर्ण उपयोग नहीं कर रही थी, जबकि अपनी सभी लागतों को आगे बढ़ा रही थी, ऐसे में सरकार को गैस और तेल की बिक्री से मिलने वाला राजस्व नहीं मिल सका। रिलायंस अपनी अनुमानित क्षमता को हासिल ही नहीं कर सका। एक तरफ एक निजी कंपनी अपनी पूरी क्षमता से काम नहीं कर रही थी और दूसरी तरफ सरकार गैस और तेल के आयात पर विदेशी मुद्दा में सर्वाधिक उच्च दाम चुका रही थी।

यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि कई रणनीतिक क्षेत्रों में जहां हम आयात पर निर्भर हैं या जिनमें भुगतान करने की क्षमता के मुद्दों के कारण मूल्य संवेदनशीलता मौजूद है, सरकारी उपक्रम को बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभानी जारी रखनी होगी।

इसलिए, यह महत्वपूर्ण है कि भारत सरकार निजीकरण के मुद्दे पर विराम लगाए और निजीकरण के मुद्दे पर विस्तार से सोचे। शुरुआती बिंदु इस मुद्दे पर सार्वजनिक बहस के लिए अपनी रणनीतिक सोच को सामने रखना हो सकता है। इससे सरकार को सरकारी उपक्रमों से बाहर निकलने के लिए एक बौद्धिक सलाह-मशविरा मिल सकता है, जिसकी उसे सख्त जरूरत है।

(डॉ अरविंद मायाराम भारत सरकार के पूर्व वित्त सचिव हैं। इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके व्यक्तिगत विचार हैं)

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