मृणाल पाण्डे का लेखः कोरोना महामारी के बाद की दुनिया, राज-समाज में दिखेगा आमूलचूल बदलाव

महामारी उतर भी गई तो यह देश और दुनिया के राज-समाज को आमूलचूल बदलेगा। भारत में पहला बदलाव यह होगा कि कोरोना के दूध से जले हमारे राज्य अब अपने कुदरती और आर्थिक संसाधनों तथा संस्थानों के हद से अधिक केंद्रीकरण की छाछ को फूंक-फूंक कर ही पिएंगे।

रेखाचित्रः अतुल वर्धन
रेखाचित्रः अतुल वर्धन
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मृणाल पाण्डे

शायद किसी ने न सोचा होगा कि एक विश्व महामारी के सैलाब के कारण 2020 में सारी दुनिया में स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के सितारे जो विश्वयुद्ध की समाप्ति ने जगाए थे, बुझने लगेंगे। उत्पादन और उपभोग को लक्ष्य बना कर बनाया गया समृद्धि का सागर कुल दो महीनों के इस दैवी प्रकोप ने सुखा डाला। जिस साझा विश्व बाजार के जन्म पर इतने सोहर गाए गए थे, मरणशील है और शेयर मार्केट किसी मृत नक्षत्र के पिंड की तरह तेजी से नीचे को जा रहे हैं।

दरअसल ध्वंस की भनक तो इसी सदी की शुरुआत में 9/11 के साथ हुई थी। 2008 में बैंकिंग क्षेत्र के सतरंगे बुलबुले ने अचानक फटकर बताया कि अमीरों को अधिक अमीर और गरीबों को और गरीब बनाने के ये फार्मूले किसी संकट की घड़ी में कहर ढाएंगे। पर ना, जमाना सांप का काटा!

भारत सहित दुनिया के सभी बड़े देशों- चीन, ब्रिटेन, रूस, ब्राजील, सऊदी अरब, यूरोप, अमेरिका, में एकचालकानुवर्ती नेतृत्व ताकतवर बन कर उभरा। शिक्षा, स्वास्थ्य और निर्माण- हर क्षेत्र में सार्वजनिक क्षेत्र कमजोर हुआ और पूंजी की विराटधारा शहरी अमीरों की बिरादरी हथियाती गई। अभूतपूर्व मुनाफे उगल रहे सारे बाजार ध्वस्त हैं, और कल के जोखिम परस्त, बड़बोले महाबली मुंह को मास्क से ढंक कर जनता से कह रहे हैं, महामारी का टीका खोजने में समय लगेगा। तब तक बाहर मत निकलो, जान है तो जहान है।

सारी सत्ता एकाध हाथों में लेकर ताबड़तोड़ नीतियां बनाकर थोपने का नतीजा यह कि सर पर महामारी नाच रही है और संकट की घड़ी में वे ही सरकारी संस्थान, चिकित्सक और सरकारी स्कूलों के परिसर बीमारों, बेरोजगार प्रवासियों की शरण बन कर उभरे हैं जिनके बजटों में निर्मम कटौतियां होती रहीं। आर्थिक जीवन बचाना है, तो अभिमन्यु की तरह यकायक कर्फ्यू के चक्रव्यूह में भेजे गए देशों को अपने शहरी और उससे कहीं बड़े ग़्रामीण इलाकों के नागरिकों को बेरोजगारी, मुद्रास्फीति और मंहगाई के प्रहारों से बचाते हुए सुरक्षित बाहर निकालना होगा।

भारत भी अपवाद नहीं। उसको भी अब जमीन पर सार्वजनिक चिकित्सा, शिक्षा और ताजा फसल की सरकारी खरीद से जुड़े हजारों ठोस संगठन चाहिए जिनकी अधिक पूंजी न्योतने की होड़ में भारी उपेक्षा हुई है। महामारी उतर भी गई तो यह देश और दुनिया के राज-समाज को आमूलचूल बदलेगा। भारत में पहला बदलाव यह कि कोरोना के दूध से जले हमारे राज्य अब अपने कुदरती और आर्थिक संसाधनों तथा संस्थानों के हद से अधिक केंद्रीकरण की छाछ को फूंक कर ही पिएंगे। विकेंद्रीकरण का नारा उभरेगा और क्षेत्रीय हित स्वार्थों को राष्ट्रीयता के ऊपर तवज्जो देना चालू होगा। दक्षिण भारत के राज्य इसकी तरफ इशारा कर भी चुके हैं कि वे उत्तर के नेताओं के निकम्मेपन की कीमत बहुत दिन नहीं चुकाएंगे।

हर जगह अनचुके लोन बढ़ेंगे तो बीमार बैंकों के लिए पहले की तरह आसान किस्तों पर पुराने या नए उपक्रमों के लिए उदारता से उधार देना, और राज्यों को अन्न या दवाएं, साझा करना अमान्य होगा। अगला चुनाव सबको जीतना है। इसलिए केंद्रीय दल शासित राज्य भी महामारी के बाद केंद्र से ग्रामीण विकास, स्वास्थ्य, शिक्षा और खरीद मूल्यों में अधिक छूटें और केंद्रीय बजट से ज्यादा आवंटन मांगेंगे। केंद्र द्वारा जनवरी से अनचुकाई 30,000 करोड़ की जीएसटी से अपने लिए वाजिब हिस्से पर भी राज्य तकरार करेंगे।

निजी मीडिया संस्थान भी बदलेंगे। वे भारी छंटनियां करते हुए अखबारों के रूपाकार से वितरण और विज्ञापनी आमदनी तक के लिए नए नमूने खोजने पर मजबूर होंगे। प्रिंट के दिन तेजी से डूब चले हैं और ऑनलाइन डिजिटल मीडिया का पलड़ा भारी हो गया है। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी के प्रतीक मीडिया की बदहाली अधिक दुखद इसलिए भी है कि संकट के बीच जोखिम मोल लेकर ईमानदारी से जनता तक खबरें पहुंचाने वाले अनुभवी लोग पिछले छह सालों में मीडिया से तेजी से गायब हो रहे हैं और उनकी जगह गोदी मीडिया लेता गया है।

उधर राजनीतिक दलों की समझदारी और अपनी नासमझी से सोशल मीडिया के पाठक भी फेक न्यूज और असली खबरों का फर्क नहीं समझ पा रहे। जब तक मुख्यधारा मीडिया संभले, तब तक तरह-तरह के मानसिक रोग फैलाने को ट्रोल्स की स्लम बस्तियां बढ़ सकती हैं।

नेतृत्व की दबंग मर्दानगी वाली छवि को भी इस महामारी ने हिलाया है। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉन्सन जो अपनी दबंगई और धुर पूंजीवादी पक्षधरता के कारण इस मुगालते में थे कि कोविड फ्लू ही तो है, निबट लेंगे इससे भी, खुद ऐसे बीमार पड़े कि हफ्ते भर तक गहन चिकित्सा के बाद थके-हारे-पस्त होकर घर लौटे हैं। महामारी से निबटने की अकुशलता ने ईरान और सऊदी के पितृसत्तात्मक, एकाधिकारवादी धार्मिक नेतृत्व ही नहीं, विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों में भी जनता की आस्था भंग कर डाली है।

जब चीन खुद वुहान में फैल रही महामारी के खतरे को आगाह करने वाले डॉक्टर को भीतर खाने खामोश कर रहा था, उसका पिठठू बना विश्व स्वास्थ्य संगठन कहता रहा कि चीन से बाहर महामारी के फैलने का कोई खतरा नहीं। जब रोग ने ईमानदार डॉक्टर की जान ले ली, तब तक यह महारोग दुनिया पर फूट पड़ा था।

लालची दलबदल पर भी इस महामारी ने कई और भी बदनुमा सवाल खड़े किए हैं। मध्य प्रदेश में ऐन महामारी के पहले दलबदलुओं की मदद से जब चयनित सरकार गिरवाई गई तो पद की बाबत भाव-ताव से काबीना बनने में देरी हुई। अब कठिन वक्त में एक कुशल स्वास्थ्य मंत्री की गैर मौजूदगी का बहुत बड़ा मोल प्रदेश को देना पड़ रहा है। उत्तर प्रदेश का दबंग नेतृत्व भी अल्पसंख्यकों को भयातुर और बहुसंख्यकों को उजड्ड बनने से नहीं रोक पाया। न ही वहां का प्रशासन गरीबों की तकलीफ मिटा पा रहा है। हालत यह है कि एजेंसी की खबर के अनुसार भदोही के एक गांव में एक मां ने अपने पांच भूखे बच्चों को नदी में फेंक दिया।

स्वास्थ्य की ही तरह शिक्षा के क्षेत्र में भी सरकारी स्कूलों की उपेक्षा और निजीकरण को ताबड़तोड़ बढावा देने ने शिक्षण संस्थानों में अमीरों और गरीबों के बच्चों को शिक्षा पाने के तरीकों में भारी खाई बनाई है। स्कूल बंद हों तो भी अमीरों के बच्चे तो लैपटॉप पर हर तरह के एप्स से शिक्षकों और कोचिंग कक्षाओं से फटाफट संपर्क बना सकते हैं लेकिन गरीब खासकर प्रवासी परिवारों के बच्चे असहाय हैं। लैपटॉप तो दूर, मिड-डे मील में उनको एक टाइम का खाना भी मिलना बंद हो गया है।

जान है तो जहान है। अत: विश्व राजनय में भी अब स्वार्थी मानसिकता गहराएगी। अमेरिका ने धमका-डराकर दूसरे देशों के हिस्से की दवाओं की बेशर्म छीना-झपटी की ही है। ईयू के अमीर सदस्य देशों- जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस और इटली, ने भी यूरोपीय यूनियन के गरीब बिरादरों- पुर्तगाल और ग्रीस, को साझा कोष से कर्ज या अपने हिस्से के माल का कोई अंश देने से साफ मना किया है। लिहाजा यूरोपीय महासंघ टूट सकता है। यह होता है तो यूरोपीय देशों की निर्भरता दो बलवान बन कर उभरे देशों- रूस और चीन, पर बढ़ने लगेगी। ताइवान, दक्षिण कोरिया और सिंगापुर छोटे होते हुए भी कठोर ताकत के बल पर इस बीमारी से सक्षमता से निबट कर तरक्की करेंगे जबकि अमरीका छीजेगा।

इसी बीच चीन ने चुपचाप वुहान में अपने कल-कारखाने फिर चालू कर दिए हैं। और अब वह राजनय में तेजी से साख बढ़ाकर अमेरिका का विकल्प बन रहा है। अपने चिकित्सा उपकरण और विशेषज्ञ मुहैया कराकर उसने त्रस्त यूरोप तथा अरब देशों की सद्भावना हासिल की ही है। उधर, रूस भी खड़ा है, जिसकी धरती भी शेष यूरोप को गैस पाइपलाइनों के जाल से जोड़े हुए है।

खपत और दामों में भारी गिरावट से यूरोप के रिश्ते अब सऊदी अरब और ईरान के शासकों के लिए पहले जैसे नहीं बने रहेंगे। ऐसे में वहां भी कट्टरपंथी धार्मिक शासन की पकड़ कमजोर पड़ सकती है। और मौजूदा कट्टरपंथी नेतृत्व की जगह वहां किसी नासिर या कमाल अतातुर्क जैसे व्यावहारिक नेतृत्व को मौका मिले तो अचंभा नहीं।

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