विष्णु नागर का व्यंग्यः राहुल गांधी ने डाकू को चोर बताकर जुल्म किया, डाकू भी खुश नहीं हैं और चोर भी!
जैसे-जैसे इनके रहस्य खुलते जाएंगे, ये और बेशर्म होते जाएंगे। ये शर्माने वाले, झिझकने वाले जीव नहीं हैं। इन्होंने संपूर्ण सत्ता के लिए लगभग 90 साल इंतजार किया है। इनके लिए जनता, चुनाव और लोकतंत्र एक बहाना है। सत्ता ही इनके लिए सत्यम, शिवम और सुंदरम है।

राहुल गांधी ने सप्रमाण इन्हें वोट-चोर बताया है लेकिन फिर भी बहुत कम बताया है। बहुत ही नरम, बहुत ही छोटा सा और बेहद ही शालीन सा आरोप लगाया है, जिससे इनका कुछ खास बिगड़ता नहीं। ये इससे बहुत ज्यादा के हकदार हैं। राहुल गांधी ने इनका यह हक छीना है। डाकू को चोर का दर्जा दिया है, जिससे डाकू भी खुश नहीं हैं और चोर भी। डाकू अपनी पदावनति चोर के रूप में नहीं चाहता और चोर तब खुश होता है, जब उसे डाकू माना जाए!
सच तो यह है कि राहुल जी, ये चोर और डाकू से भी बहुत आगे हैं। इनके लिए कोई नया ही शब्द गढ़ना पड़ेगा। ये न हिन्दू हैं, न सनातनी हैं। दरअसल सियारों ने शेर की खाल ओढ़ रखी है।ये जो दूसरों की नागरिकता पर सवाल उठाते हैं, खुद भी भारतीय हैं क्या? इनका भारत में जन्म लेना महज एक संयोग है, एक सुविधा है, एक तरह का वैध लाइसेंस है, ठगने का धंधा है। इससे अधिक कुछ नहीं!
सच कहें तो ये इंसान भी नहीं हैं। इनके मानव होने का एकमात्र आधार इनकी ये दो टांगें हैं, जिनसे ये चलते-फिरते हैं और इंसानों जैसी आवाज में बोलते हैं। जैसे चार टांग के सभी जीव शेर या हाथी या हिरण नहीं होते, कीड़े-मकोड़े होते हैं, उसी तरह सभी दो टांगिये भी मनुष्य नहीं होते। मनुष्य की आवाज में बोलना, मनुष्य होना नहीं है। मनुष्य की तरह कपड़े पहनना, मनुष्य होना नहीं है। कई बार तो कुछ मनुष्य रूपी ऐसे जीवों को देखकर लगता है कि मनुष्यता अगर जीव का स्वाभाविक गुण है तो कई बार तो कुत्ते आदि पालतू जानवर इनसे अधिक मनुष्य साबित होते हैं!
जो अपने देश, अपने प्रदेश के लोगों के खून से प्यास बुझाकर आगे बढ़ते हैं, वे उस देश के कैसे हो सकते हैं? वे सिर्फ सत्ता के लिए हैं और सत्ता के लिए ही रहेंगे। सत्ता के लिए ये कुछ भी हो सकते हैं। कल इन्हें धर्मनिरपेक्ष होना जरूरी लगे तो फट से ये चोला बदल लेंगे। कल समाजवादी होने की जरूरत पड़ जाए तो ये समाजवाद का झंडा उठाकर आगे-आगे चलने लगेंगे। ये बहुरूपिए हैं। इनका नेता बार-बार दिखाता भी है कि मैं ही नहीं, हम सब बहुरूपिये हैं। ये कुछ भी बनने के लिए कुछ भी बलिदान नहीं करते। ये दूसरों का बलिदान लेकर खुद बलिदानी बन जाते हैं।
सत्ता के लिए जो भी घपले-घोटाले इन्हें और करने होंगे, ये बेशर्मी से करेंगे। जैसे-जैसे इनके रहस्य खुलते जाएंगे, वैसे-वैसे ये और बेशर्म होते जाएंगे। ये शर्माने वाले, झिझकने वाले जीव नहीं हैं। इन्होंने संपूर्ण सत्ता के लिए लगभग 90 साल इंतजार किया है। इनके लिए जनता, चुनाव और लोकतंत्र एक बहाना है। सत्ता ही इनके लिए सत्यम, शिवम और सुंदरम है।
पोल खुलती है इनके किसी कृत्य की, तो उसे ये उस काम की वैधता का लाइसेंस मानने लगते हैं। ये लोकतंत्र, लोकतंत्र खेलना जानते हैं, इसका मतलब यह नहीं कि ये लोकतांत्रिक हैं। ये देशभक्ति, देशभक्ति खेलना जानते हैं, इसका अर्थ यह नहीं कि ये देशभक्त हैं। देशभक्ति और लोकतंत्र वह खाल है, जिसे ओढ़कर ये सनातनी-सनातनी खेल रहे हैं। इनका खेल वाशिंगटन से पटना तक बिगड़ता जा रहा है, इससे ये परेशान हैं, हताश हैं। चिड़चिड़े हो रहे हैं। नेहरू-नेहरू जप रहे हैं।
राहुल गांधी ने अच्छा किया कि बंगलूरू के एक विधानसभा क्षेत्र में इन्होंने किस-किस किस्म की बेईमानियां की हैं, इसे प्रमाण सहित उजागर कर दिया। ये साबित कर दिया कि चुनाव अब शत-प्रतिशत जनता के नाम पर किया जाने वाला एक फर्जीवाड़ा है, आपका वोट अब किसी काम का नहीं क्योंकि अपनी जीत कितने वोटों से और कहां और कब होनी है, यह इन्होंने आज ही दिल्ली में बैठकर तय कर लिया है।
लोकतंत्र-लोकतंत्र खेलने के लिए कभी-कभी ये कुछ जगह स्वेच्छा से हारते भी रहे हैं। कुछ ज्यादा ही सच उजागर हो गया तो संभव है, ये बिहार में पीछे हटकर पश्चिम बंगाल में जीतने का खेल, खेलें। ये अभी लोकतंत्र-लोकतंत्र और खेलेंगे। दुनिया में सब जगह यह खेल, खेला जा रहा है तो ये भी भरपूर खेलेंगे। जैसे ट्रंप खेल रहा है, उस तरह ये भी खेलेंगे। जिस तरह पुतिन खेल रहा है, उस तरह ये भी खेलेंगे। और नहीं खेलने दिया तो खेल बिगाड़ेंगे और अपने को जीता हुआ घोषित कर देंगे!
अब किसी के वोट की कोई कीमत नहीं रह गई। वोट देना अपने अहम को तुष्ट करना रह गया है। जो मर चुके हैं, उन्हें इन्होंने वोटर के रूप में जिंदा कर दिया है और जो जिंदा हैं, उनकी इन्होंने वोटर लिस्ट में अंत्येष्टि कर दी है। अगली कवायद मृतकों को चुनाव लड़वाने और उन्हें जितवाने की हो सकती है। मृतक विजेता को जीत का प्रमाणपत्र निर्वाचन आयोग नि: संकोच होकर देगा। आजादी के बाद पहली बार विजयी मृतक के जुलूस में देश के तीनों निर्वाचन आयुक्त भी शामिल होंगे और लोकतंत्र की विजय का नारा लगाते हुए सबसे आगे चलेंगे। एक दिन मृतक ही मुख्यमंत्री और मृतक ही प्रधानमंत्री होंगे। जीवितों का काम उनका पंखा झलना होगा!
उस दिन तक जीवित रहने की प्रार्थना अपने ईश्वर से कीजिए ताकि 'लोकतंत्र' का यह नज़ारा आपकी आंखों के सामने से गुजरे! आप जल्दी ही अपनी रवानगी ऊपर मत डालिएगा। यह दृश्य देखकर ही जाइएगा। कोशिश तो मेरी भी यही रहेगी।
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