राम पुनियानी का लेख: जुर्म और सज़ा; क्या भारतीय न्याय व्यवस्था निष्पक्ष है?

हमारे देश में आपराधिक न्याय व्यवस्था के काम करने का तरीका हमारे संविधान के मूल्यों से मेल खाता नहीं दिखता। दोषियों को सज़ा न मिलने के अलावा हिंसा पीड़ितों को राहत पहुंचाने और उनके पुनर्वास के लिए शायद ही कुछ किया जाता है।

फोटो: सोशल मीडिया
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राम पुनियानी

भारतीय समाज कई तरह की हिंसा का शिकार रहा है। इनमें से दो प्रकार की हिंसा मानवता को शर्मसार करने वाली हैं। वे हैं सांप्रदायिक दंगे और आतंकी हमले। सांप्रदायिक हिंसा, जिसकी शुरुआत औपनिवेशिक काल में हुई थी, ने अब धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरुद्ध बहुसंख्यकवादी हिंसा का रूप ले लिया है। ब्रिटिश काल में सांप्रदायिक सोच की दोनों धाराओं की इस पागलपन में हिस्सेदारी थी। स्वतंत्रता के बाद से इसने बहुसंख्यकवादी हिंसा का स्वरूप ग्रहण कर लिया है, जिसका शिकार धार्मिक अल्पसंख्यक हो रहे हैं। हमारी न्याय प्रणाली कुछ इस प्रकार की है कि बहुसंख्यक समुदाय के दोषियों को अक्सर सज़ा नहीं मिल पाती है।

देश में आतंकी हमलों की शुरुआत मार्च 1993 के बम्बई बम धमाकों से हुई। कुछ अन्तराल के बाद, 2006 से 2008 के बीच आतंकी हमलों का एक और दौर चला। संकटमोचन आतंकी हमले के बाद मालेगांव, मक्का मस्जिद, अजमेर दरगाह और समझौता एक्सप्रेस में बम धमाके हुए। अहमदाबाद में 2008 में हुए श्रृंखलाबद्ध बम धमाकों में 56 लोग मारे गए और करीब 100 घायल हुए।

भारतीय न्याय तंत्र ने इन भयावह अपराधों के मामलों में क्या किया? हाल में (फरवरी 2022), अहमदाबाद के एक विशेष न्यायालय ने अहमदाबाद धमाकों के मामले में 38 मुसलमानों को मौत की सज़ा सुनायी और 11 को आजीवन कारावास की। जिनके खिलाफ सुबूत मिले, उन्हें सज़ा दी गई। यह न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप है।

परन्तु मालेगांव से लेकर अजमेर तक हुए बम धमाकों का क्या? क्या इन मामलों में न्याय हुआ है? ये सभी धमाके मुस्लिम आराधना स्थलों के आसपास हुए थे और वह भी ऐसे समय पर जब वहां मुसलमान आराधना के लिए एकत्रित होते हैं। इनमें मारे जाने वालों की संख्या 100 से अधिक थी। किसी भी अपराध के मामले में सजा देने की प्रक्रिया पुलिस की जांच से शुरू होती है। इन धमाकों की जांच की शुरूआत से ही यह मानकर चला गया कि सभी आतंकी मुसलमान होते हैं। इन सभी मामलों में मारे गए और घायल हुए लोग मुसलमान थे फिर भी इनमें कुछ मुसलमान युवकों को दोषी बताकर गिरफ्तार कर लिया गया। उनकी गिरफ्तारी की खबरें अखबारों की सुर्खियां बनीं। अधिकांश मामलों में गिरफ्तार युवकों को सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा और उनके करियर बर्बाद हो गए। कुछ समय बाद इनमें से अधिकांश को सुबूतों की कमी के चलते छोड़ दिया गया। परंतु उनकी रिहाई की खबरें अखबारों के अंदर के पन्नों पर छपीं।


लगभग इसी समय हेमंत करकरे ने महाराष्ट्र पुलिस के आतंकवाद निरोधक दस्ते के प्रमुख के रूप में कार्यभार संभाला। उन्होंने इन घटनाओं की गहराई से जांच शुरू की और यह पाया कि मालेगांव धमाकों के लिए इस्तेमाल की गई मोटरसाईकिल प्रज्ञा सिंह ठाकुर की थी। प्रज्ञा, एबीव्हीपी की पूर्व सदस्य हैं और इस समय वे भोपाल से सांसद हैं। काफी लंबे समय से वे स्वास्थ्य कारणों से जमानत पर हैं। इस दौरान उनके कई ऐसे वीडियो सामने आए हैं जिनमें वे क्रिकेट और बास्केटबाल खेल रही हैं।

करकरे द्वारा की गई सूक्ष्म जांच से यह पता चला कि इन धमाकों के पीछे विहिप के स्वामी असीमानंद, लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित, मेजर उपाध्याय और कई ऐसे व्यक्ति थे जो या तो आरएसएस से जुड़े संगठनों के सक्रिय सदस्य थे या कभी न कभी इन संगठनों से संबद्ध रहे थे। स्वामी असीमानंद ने न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष अपने इकबालिया बयान में यह स्वीकार किया कि उन्होंने अन्य आरोपियों के साथ मिलकर हिन्दुओं के आत्मघाती दस्ते बनाए थे। इस बीच नांदेड़ में राजकोंडवार के घर में एक बम धमाका हुआ जिसमें बजरंग दल के दो कार्यकर्ता मारे गए।

जैसे-जैसे जांच आगे बढ़ती गई असीमानंद और प्रज्ञा ठाकुर से जुड़े कई व्यक्ति उसके घेरे में आते गए और उन्हें गिरफ्तार किया गया। बाद में 26/11 के आतंकी हमले में हेमंत करकरे मारे गए। इन मामलों में सरकारी वकील रोहिणी साल्यान को यह निर्देश दिए गए कि वे ज्यादा मेहनत न करें। स्वामी असीमानंद के इस दावे को स्वीकार कर लिया गया कि उन्हें जोर-जबरदस्ती से मजिस्ट्रेट के सामने इकबालिया बयान देने के लिए मजबूर किया गया था और वे बरी हो गए। अधिकांश मामलों में आरोपियों को जमानत मिल गई और कई मामलों को बंद कर दिया गया। अब इन सभी मामलों में से केवल अजमेर धमाकों के मामले में आरएसएस के दो पूर्व प्रचारक देवेन्द्र गुप्ता और भावेश पटेल जेल में हैं।

यह जताने का प्रयास किया गया कि यूपीए सरकार हिन्दू राष्ट्रवादियों को फंसाना चाहती है। अहमदाबाद बम धमाकों में अदालत के हालिया निर्णय और मालेगांव और ऐसे ही अन्य धमाकों के मामलों में अदालतों के रुख में अंतर स्पष्ट देखा जा सकता है। अदालतों में तथ्यों को किस तरह तोड़-मरोड़कर पेश किया गया यह इससे जाहिर है कि स्वामी असीमानंद को बरी करते समय न्यायाधीश जगदीप सिंह ने लिखा ‘‘...अंत में मैं इस बात पर गहन दुःख और पीड़ा व्यक्त करता हूं कि कायरतापूर्ण हिंसा की इस वारदात के दोषियों को विश्वसनीय और स्वीकार्य प्रमाणों की अनुपलब्धता के कारण सजा नहीं मिल सकी। अभियोजन द्वारा प्रस्तुत सुबूतों में भारी कमियां हैं जिसके कारण आतंकी हमले का यह मामला सुलझ नहीं सका"। इसके अलावा अन्य कई मामलों में आरोपियों को निर्दोष करार देने के पीछे यह मानसिकता भी हो सकती है कि सभी आतंकी मुसलमान होते हैं।


साम्प्रदायिक हिंसा के मामलों में भी स्थिति लगभग यही है। मुंबई में हुए दंगों में एक हजार लोग मारे गए थे जिनमें से 80 प्रतिशत मुसलमान थे। श्रीकृष्ण आयोग ने इन दंगों की सूक्ष्म जांच की और दोषियों की स्पष्ट पहचान की। इसके बाद भी इस मामले में एक भी व्यक्ति को मौत या आजीवन कारावास की सजा नहीं हुई। हां, इसके बाद 1993 में मुंबई में हुए बम धमाकों के मामले में दो लोगों को मौत की सजा सुनाई गई और दो को आजीवन कारावास से दंडित किया गया।

गुजरात के 2002 के कत्लेआम में दो हजार लोगों ने अपनी जान गंवाई। एहसान जाफरी उनमें से एक थे। उनका मामला अभी भी अदालतों में घिसट रहा है। इसी मामले में बाबू बजरंगी ने 'तहलका' द्वारा किए गए एक स्टिंग आपरेशन में यह दावा किया कि उन्हें जो तीन दिन दिए गए थे उनमें से एक दिन में अधिक से अधिक मुसलमानों को मारने का वनडे मैच खेलते हुए वह महाराणा प्रताप की तरह महसूस कर रहा था। उसे आजीवन कारावास की सजा दी गई। माया कोडनानी को हिंसा भड़काने के आरोप में आजीवन कारावास की सजा मिली परंतु बाद में उसे रिहा कर दिया गया।

हमारे देश में आपराधिक न्याय व्यवस्था के काम करने का तरीका हमारे संविधान के मूल्यों से मेल खाता नहीं दिखता। दोषियों को सज़ा न मिलने के अलावा हिंसा पीड़ितों को राहत पहुंचाने और उनके पुनर्वास के लिए शायद ही कुछ किया जाता है। अल्पसंख्यकों के बारे में पूर्वाग्रहों और उनके प्रति नफरत के भाव के चलते उनके साथ न्याय नहीं हो रहा है।

अहमदाबाद मामले में 38 मुसलमानों को फांसी की सजा मिलने के बाद भाजपा की गुजरात इकाई ने अपने ट्विटर एकाउंट पर एक कार्टून पोस्ट किया जिसमें टोपी और दाढ़ी वाले मुसलमानों को फांसी पर लटके दिखाया गया था। यह तो बहुत अच्छा है कि ट्विटर ने इस कार्टून को हटा दिया।

क्या हम यह अपेक्षा कर सकते हैं कि भारतीय न्याय व्यवस्था सभी लोगों के साथ न्याय करेगी फिर चाहे वे किसी भी धर्म के क्यों न हों?

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

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