मंदिर का उल्लास: भारत के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के लिए अब तक की सबसे गंभीर चुनौती!

इस आयोजन की तैयारी के बीच भारत एक चौराहे पर खड़ा होकर अपनी नियति, अपनी पहचान, बहुलवाद के प्रति अपनी प्रतिबद्धता और अपने धर्मनिरपेक्ष संविधान के भविष्य के बारे में बुनियादी सवालों का सामना कर रहा है।

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अशोक स्वैन

अयोध्या में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 22 जनवरी को मंदिर का उद्घाटन भारत के इतिहास का एक अहम क्षण है, ऐसा क्षण जो देश की धर्मनिरपेक्षता और हिंदू राष्ट्रवाद के लंबे समय से जारी संघर्ष से गहराई से जुड़ा है। धर्म और राजनीति के मिश्रण का यह आयोजन महज धार्मक अनुष्ठान नहीं बल्कि हिंदू बहुसंख्यकवाद के राजनीतिक प्रोजेक्ट का ऐसा प्रोजेक्ट है जिसने धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद पर निर्मित भारत के संविधान को चुनौती दी है।

राम मंदिर मुद्दा बीजेपी के राजनीतिक विमर्श में और खासतौर से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में के एक महत्वपूर्ण तत्व के रूप में उभरा है। हिंदुत्व की लहरों पर सवार होकर मिथ्या विकास का नारा लगाते हुए सत्ता तक पहुंचने वाली बीजेपी धीरे-धीरे हिंदू राष्ट्रवादी विचारधाराओं का खुलकर प्रदर्शन करने लगी। बीजेपी के इस बदलाव के स भारत के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों और विशेष रूप से देश की अल्पसंख्यक आबादी के अधिकारों और भावनाओं की साफ तौर पर अनदेखी करता है। और इस आख्यान का सबसे विवादास्पद पहलू अयोध्या भूमि विवाद है। विवाद उस जगह पर केंद्रित है जहां 16वीं शताब्दी की बाबरी मस्जिद को 1992 में एक बहुसंख्यकवादी भीड़ ने हिंसक रूप से ध्वस्त कर दिया था, और जो देश में धार्मिक और सांस्कृतिक तनाव का प्रतीक बन गया।

संवैधानिक तौर पर धर्मनिरपेक्ष का प्रधानमंत्री होने के बावजूद राम मंदिर उद्घाटन में नरेंद्र मोदी की भूमिक सिर्फ एक धार्मिक आयोजन नहीं बल्कि देश में विभाजन की राजनीति का खुला ऐलान है। इस आयोजन की यदा-कदा देश के स्वतंत्रतता दिवस से तुलना कर नरेंद्र मोदी इसे भारत के औपनिवेशिक दासता से मुक्ति के बाद का सबसे बड़ा मील का पत्थर साबित करने की कोशिश करते रहे हैं। यह तुलना ही देश को धर्मनिरपेक्षता की लोकतांत्रिक बुनियाद से हटाकर हिंदू धर्मशासित राष्ट्र की तरफ ले जाना है।

सुप्रीम कोर्ट का 2019 में आए बेहद विवादास्पद फैसले में बाबरी मस्जिद वाली जगह को राम मंदिर निर्माण के लिए दिया जाना साबित करता है कि किस तरह हिंदू बहुसंख्या की भावनाओं को कानूनी और ऐतिहासिक तथ्यों और सबूतों से ऊपर माना गया। कोर्ट का यह फैसला और उसके बाद मोदी सरकार के कृत्यों ने देश की न्यायापालिका की स्वतंत्रता और स्वायत्ता की उस भूमिका पर सवालिया निशान लगा दिया है जिसके जिम्मे भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान की रक्षा का जिम्मा है।


कोई 74 साल पहले जब भारत ने संविधान को अंगीकार किया था, तो इस बात पर गहरी और गंभीर बहसें हुई थी कि सरकारी नीतियों में धर्म की क्या भूमिका होनी चाहिए। यहीं से धर्मनिरपेक्षता का अनूठा विचार सामने आया था जिसमें सभी धर्मों को समान आदर देते हुए निजी स्तर पर अपनी पसंद की धार्मिक प्रथाएं अपनाने की स्वतंत्रता दी गई थी। इस विशेष धर्मनिपेक्षता ने ही भारत की एक समावेशी राष्ट्रीय पहचान स्थापित की थी और उसे उन पड़ोसियों से अलग खड़ा किया था जो बेहद संकीर्ण सामुदायिक और धार्मिक संघर्षों से जूझ रहे थे।

लेकिन, प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में सरकार का रुख निश्चित रूप से हिंदू धार्मिक पहचान की तरफ मुड़ गया। सरकार की नीतियों और रुख में यह बदलाव मुस्लिमों के लिए हज सब्सिडी खत् करने, हिंदू तीर्थों को खुलकर मदद देने वाली योजनाएं बनाने और राजनीतिक क्षेत्र में मुस्लिमों के लगातार कम होते प्रतिनिधित्व के तौर पर स्पष्ट रूप से सामने आया है। और, अयोध्या में मंदिर उद्घाटन इसी बदलाव का एक मील का पत्थर है। यह भारत के धर्मनिरपेक्ष क्षेप पथ से भटकने का प्रतीक है, जो देश को व्यावहारिक रूप से एक हिंदू राष्ट्र की ओर ले जा रहा है।

मोदी की हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा उन सिद्धांतों को त्यागने का भी प्रतीक है जो देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने स्थापित किए थे, जो एक धर्मनिरपेक्ष और समावेशी भारत की बुनियाद थे। मोदी के नेतृत्व में सरकारी योजनाओं से अल्पसंख्यकों, खासतौर से मुसलमानों को अलग कर दिया गया है। भारत के करीब 20 करोड़ मुसलमानों की इबादत की जगह पर राम मंदिर का निर्माण केवल हिंदू राष्ट्रवाद की जीत नहीं है; बल्कि इस बात का ऐलान है कि भारत में अल्पसंख्यक अधिकारों और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के लिए शायद कोई जगह ही नहीं बची है।

आर्थिक चुनौतियों के बीच और लोकसभा चुनावों से ठीक पहले मंदिर के उद्घाटन का करना इस बात का भी सबूत है कि हिंदू राष्ट्रवादी एजेंडे को किस तरह राष्ट्रीय चिंताओं पर प्राथमिकता दी जा रही है। जिस समय देश आर्थिक, कृषि और रोजगार के संकट से जूझ रहा है, उस दौरान धार्मिक आयोजन करना हिंदू राष्ट्रवादी सरकार की प्राथमिकताओं का खुला दस्तावेज है।

इतना ही नहीं, पूरा संभावना है कि आने वाले लोकसभा चुनावों के दौरान राम मंदिर को नरेंद्र मोदी अपने प्रचार का केंद्र बिंदु बनाएगे। धार्मिक राष्ट्रवाद के इस प्रतीक को आधार बनाकर वे चुनावी लाभ के लिए धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल करेंगे, लेकिन इससे समाज में विभाजन का खतरा और कितना गहरा हो जाएगा, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है।


राम मंदिर निर्माण पर मुसलमानों की प्रतिक्रिया दर्द और खौफ का मिश्रण है। बहुत से लोगों के लिए बाबरी मस्जिद गिराया जाना आज भी एक जख्म की तरह है, और एक ऐसा दस्तावेज है जिसने देश की विविधता वाली धर्मनिरपेक्ष पहचान को तहस-नहस कर दिया। राम मंदिर निर्माण ने देश में उनके अस्तित्व और इतिहास का अपमान किया है।

जहां मंदिर का अभिषेक समारोह बहुत से बहुसंख्यक हिंदुओं के लिए अभिमान और उत्सव का क्षण है, वहीं दूसरों के लिए गंभीर आशंका का क्षण भी है। असली खतरा इस बात का है कि मंदिर स्थान के विवादास्पद इतिहास और मौजूदा राजनीतिक माहौल को देखते हुए यह उत्सव भारत के तेजी से खंडित हुए समाज को और विभाजित कर सकता है। सरकार ने इसे बहुसंख्यकवादी राजनीति का जश्न मनाने का कार्यक्रम बना दिया है, जबकि प्रमुख विपक्षी दल इसका बहिष्कार कर रहा है, इससे साबित होता है कि स घटना को लेकर देश में किस हद तक टकराव और तनाव की स्थिति है।

अयोध्या में राम मंदिर का उद्घाटन एक ऐसा क्षण भी है जो मोदी के नेतृत्व में भारतीय राजनीति के भावी रास्ते को भी सामने रखता है। यह भारत में हिंदू राष्ट्रवादी विचारधाराओं के बढ़ते प्रभाव और धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों की अनदेखी का एक स्पष्ट उदाहरण है। इस आयोजन की तैयारी के बीच भारत एक चौराहे पर खड़ा होकर अपनी नियति, अपनी पहचान, बहुलवाद के प्रति अपनी प्रतिबद्धता और अपने धर्मनिरपेक्ष संविधान के भविष्य के बारे में बुनियादी सवालों का सामना कर रहा है। इस घटना के परिणाम मंदिर की दीवारों से कहीं दूर तक गूंजेंगे और आने वाले वर्षों में भारतीय समाज और राजनीति के ताने-बाने की बुनियाद बनेंगे।

(अशोक स्वैन स्वीडन की उपासला यूनिवर्सिटी में पीस एंड कन्फ्लिक्ट रिसर्च के प्रोफेसर हैं)

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