आम्बेडकर जयंती विशेष: राजनीतिक सुधार के लिए क्यों जरूरी है सामाजिक सुधार

दलित उत्पीड़न की प्रकृति पर डॉ बी आर आम्बेडकर का धारदार विश्लेषण। आज (14 अप्रैल को) उनकी जयंती है। इस मौके पर पढ़िए डॉ आम्बेडकर की प्रसिद्ध रचना ‘जाति का उन्मूलन’ के कुछ विशेष अंश।

मानवाधिकारों के लिए निरंतर संघर्ष करने वाले लोगों को कलाकार सिद्धेश गौतम ने जिस तरह याद किया है, वह इतिहास के रिफ्रेशर कोर्स की तरह है।
मानवाधिकारों के लिए निरंतर संघर्ष करने वाले लोगों को कलाकार सिद्धेश गौतम ने जिस तरह याद किया है, वह इतिहास के रिफ्रेशर कोर्स की तरह है।
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डॉ बी आर आम्बेडकर

भारत में समाज सुधार का मार्ग स्वर्ग के मार्ग के समान है और इस कार्य में अनेक कठिनाइयां हैं। भारत में समाज सुधार कार्य में सहायक मित्र कम और आलोचक अधिक हैं। आलोचकों के दो स्पष्ट वर्ग हैं। एक वर्ग में राजनीतिक सुधारक हैं और दूसरे में समाजवादी। 

एक समय था जब यह माना जाता था कि सामाजिक कुशलता के बिना अन्य कार्य क्षेत्रों में प्रगति असंभव है। कुप्रथाओं से फैली बुराइयों के कारण हिन्दू समाज की कार्यकुशलता समाप्त हो चुकी थी। अब इन बुराइयों को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए अथक प्रयास करने होंगे। इस तथ्य को समझ कर ही राष्ट्रीय कांग्रेस के जन्म के साथ ही सामाजिक सम्मेलन की भी स्थापना हुई थी। जहां तक कांग्रेस का संबंध देश के राजनीतिक संगठन में कमजोर तथ्यों को परिभाषित करना था, वहां सामाजिक सम्मेलन हिन्दू समाज के सामाजिक संगठन में कमजोर बातों को दूर करने में लगा हुआ था। कुछ समय तक कांग्रेस और सम्मेलन ने एक सामान्य क्रियाकलाप के दो अंगों के रूप में कार्य किया और उनके वार्षिक अधिवेशन भी एक ही पंडाल में होते थे। किंतु शीघ्र ही ये दो अंग दो दलों में बदल गए- एक राजनीतिक सुधार दल और दूसरा सामाजिक सुधार दल। इनके बीच उग्र विवाद उठ खड़े हुए। राजनीतिक सुधार दल राष्ट्रीय कांग्रेस का समर्थन करता था और सामाजिक सुधार दल सामाजिक सम्मेलन का। इस प्रकार दो संस्थाएं दो विरोधी कैंप बन गए। मुद्दा यह था कि क्या सामाजिक सुधार राजनीतिक सुधारों से पहले होने चाहिए। एक दशक तक दोनों शक्तियों का संतुलन समान रूप से बना रहा और उनमें किसी भी पक्ष की विजय के बिना लड़ाई चलती रही। किंतु यह स्पष्ट था कि सामाजिक सम्मेलन का भाग्य तेजी से अस्त हो रहा था।  

जिन सज्जनों ने सामाजिक सम्मेलन के अधिवेशनों की अध्यक्षता की थी, वे इस बात से दुखी थे कि बहुसंख्यक शिक्षित हिन्दू राजनीतिक उत्थान के पक्षधर हैं और सामाजिक सुधारों के प्रति उदासीन हैं। कांग्रेस में उपस्थित होने वाले लोगों की संख्या बहुत बड़ी थी। जो लोग उसमें उपस्थित नहीं हुए, उनकी सहानुभूति इसके साथ थी तथा उनकी संख्या और भी बड़ी थी। जो लोग सामाजिक सम्मेलन में उपस्थित हुए, उनकी संख्या बहुत कम थी। इस उदासीनता और कार्यकर्ताओं में हुई कमी के शीघ्र बाद राजनीतिज्ञों की ओर से इसका सक्रिय विरोध आरंभ हो गया। कांग्रेस ने शिष्टता के नाते सामाजिक सम्मेलन को अपने पंडाल का प्रयोग करने की जो अनुमति दे रखी थी, स्वर्गीय श्री तिलक के नेतृत्व में उसे वापस ले लिया गया और शत्रुता की भावना इतनी गहरी हो गई कि जब सामाजिक सम्मेलन ने अपना पंडाल खड़ा करने की इच्छा की तो इसके विरोधियों ने पंडाल को जला डालने की धमकी दी। इस प्रकार समय के साथ-साथ राजनीतिक सुधार के पक्ष वाले दल की जीत हुई और सामाजिक सम्मेलन गायब हो गया और लोग उसे भूल गए। इलाहाबाद में हुए कांग्रेस के आठवें अधिवेशन के अध्यक्ष के रूप में श्री डब्ल्यू.सी. बैनर्जी ने जो भाषण दिया था, वह सामाजिक सम्मेलन की मृत्यु पर पढ़े गए शोक संदेश जैसा लगता है। वह कांग्रेस की प्रवृत्ति का इतना द्योतक है कि मैं उससे यहां एक उद्धरण दे रहा हूं। श्री बैनर्जी ने कहा थाः  


मैं ऐसे लोगों की बात सुनने को बिल्कुल तैयार नहीं हूं जो यह कहते हैं कि हम अपनी सामाजिक प्रणाली में सुधार नहीं करेंगे, जब तक हम राजनीतिक सुधारों के योग्य नहीं हो सकेंगे। मुझे दोनों के बीच कोई संबंध नहीं दिखाई देता। ... क्या हम (राजनीतिक सुधार के लिए) इसलिए उपयुक्त नहीं हैं क्योंकि हमारी विधवाएं अविवाहित रह जाती हैं और हमारी लड़कियां अन्य देशों की तुलना में बहुत पहले ही विवाह सूत्र में बांध दी जाती हैं। क्योंकि पत्नी और पुत्रियां हमारे मित्रों से मिलने जाने के लिए हमारे साथ कारों में नहीं चलतीं? क्योंकि हम अपनी पुत्रियों को ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज नहीं भेजते? 

मैंने जैसा कि बैनर्जी ने प्रस्तुत किया था, राजनीतिक सुधार का मामला आपके सामने रखा है। अनेक लोग ऐसे थे जो यह जानकर प्रसन्न थे कि कांग्रेस की जीत हुई। किंतु जो लोग समाज सुधार के महत्व में विश्वास रखते हैं, वे पूछ सकते हैं कि क्या श्री बैनर्जी की दलील अंतिम है? क्या इससे यह सिद्ध होता है कि जीत उन्हीं की हुई जो न्यायसंगत थे? क्या निष्कर्ष रूप में इससे यह सिद्ध होता है कि समाज सुधार का राजनीतिक सुधार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता? यदि मैं मामले के दूसरे पहलू पर विचार करूं, तो इससे मामले को समझने में सहायता मिलेगी। मैं अपने तथ्यों के लिए अछूतों के साथ व्यवहार का उल्लेख करूंगा।  

मराठा राज्य में पेशवाओं के शासन में यदि कोई हिन्दू सड़क पर आ रहा होता था, तो किसी अछूत को इसलिए उस सड़क पर चलने की अनुमति नहीं थी कि उसकी परछाई से वह हिन्दू अपवित्र हो जाएगा। अछूत के लिए यह आवश्यक था कि वह अपनी कलाई या गर्दन में निशानी के तौर पर एक काला धागा बांधे जिससे कि हिन्दू गलती से उससे छूकर अपवित्र हो जाने से बच जाए। पेशवाओं की राजधानी पूना में किसी भी अछूत के लिए अपनी कमर में झाड़ू बांधकर चलना आवश्यक था जिससे कि उसके चलने से पीछे की धूल साफ होती रहे और ऐसा न हो कि कहीं उस रास्ते से चलने वाला कोई हिन्दू उससे अपवित्र हो जाए। पूना में अछूतों के लिए यह आवश्यक था कि जहां कहीं भी वे जाएं, अपने थूकने के लिए मिट्टी का एक बर्तन अपनी गर्दन में लटका कर चलें क्योंकि ऐसा न हो कि कहीं जमीन पर पड़ने वाले उसके थूक से अनजाने में वहां से गुजरने वाला कोई हिन्दू अपवित्र हो जाए।  


मैं हाल ही के कुछ और तथ्यों का भी यहां उल्लेख करना चाहता हूं। मध्य भारत की बलाई नाम की एक अछूत जाति पर हिन्दुओं द्वारा किए जाने वाले अत्याचारों का जिक्र करना काफी होगा। 4 जनवरी, 1928 के टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट आप देखें। टाइम्स ऑफ इंडिया के संवाददाता ने समाचार दिया है कि कनरिया, बिचोली-हाफसी, बिचोली-मर्दाना गांवों तथा इंदौर जिले (इंदौर रियासत) के 15 अन्य गांवों की ऊंची जाति के हिन्दुओं ने, अर्थात कालोटो, राजपूतों और ब्राह्मणों जिनमें पटेल और पटवारी भी शामिल हैं, अपने-अपने गांवों के बलाइयों को सूचित किया है कि यदि वे उनमें रहना चाहते हैं तो उन्हें नियमों का अवश्य पालन करना होगाः  

(क) बलाई, सुनहरी गोटेदार किनारी की पगड़ियां नहीं बांधेंगे। 

(ख) वे रंगीन या फैन्सी किनारी की धोतियां नहीं पहनेंगे। 

(ग) वे किसी हिन्दू की मृत्यु पर मृतक के संबंधियों को चाहे वे कितनी भी दूर क्यों न रहते हों, मरने की सूचना देंगे। 

(घ) सभी हिन्दुओं के विवाहों में बलाई लोग बारात के आगे और विवाह के दौरान बाजा बजाएंगे। 

(च) बलाई स्त्रियां सोने या चांदी के आभूषण नहीं पहनेंगी। वे फैंसी गाउन या जाकेट भी नहीं पहनेंगी। 

(छ) बलाई स्त्रियों को हिन्दू स्त्रियों के प्रसव के सभी मामलों में देखभाल करनी होगी। 

(ज) बलाई लोगों को बिना कोई पारिश्रमिक मांगे सेवा करनी होगी और हिन्दू उन्हें जो कुछ खुश होकर देंगे, लेना होगा। 

(झ) अगर बलाई लोग इन शर्तों का पालन करना स्वीकार नहीं करते हैं, तो उन्हें गांव को छोड़ना होगा। 

बलाई लोगों ने उन्हें मानने से इनकार कर दिया और हिन्दुओं ने उनके विरुद्ध कार्रवाई की। बलाइयों को गांवों के कुओं से पानी नहीं भरने दिया गया। उन्हें अपने पशुओं को चराने के लिए नहीं ले जाने दिया गया। बलाई लोगों को हिन्दुओं की भूमि से गुजरने की मनाही कर दी गई ताकि यदि किसी बलाई का खेत हिन्दुओं के खेतों से घिरा हो तो बलाई अपने ही खेत तक न पहुंच सकें। हिन्दुओं ने अपने पशुओं को भी बलाइयों के खेतों में चरने के लिए छोड़ दिया। बलाइयों ने इन अत्याचारों के विरुद्ध दरबार में याचिकाएं दायर कीं किंतु चूंकि उन्हें समय पर कोई राहत नहीं और अत्याचार जारी रहा तो सैकड़ों बलाई लोग अपने बाल-बच्चों सहित अपने घरों को जहां वे पीढ़ियों से रहते आ रहे थे, छोड़कर समीपवर्ती रियासतों, अर्थात धार, देवास, बागली, भोपाल, ग्वालियर तथा अन्य रियासतों के गांवों में जाकर बसने के लिए मजबूर हो गए।                    **** 


एक बहुत ही नई घटना की सूचना जयपुर रियासत में चकवारा से मिली है। समाचारपत्रों में छपी सूचना से पता चलता है कि चकवारा के एक अछूत ने जो तीर्थ यात्रा के बाद घर लौटा था, अपने धार्मिक अनुष्ठान को पूरा करने के लिए गांव के अपने अछूत भाइयों को भोज देने की व्यवस्था की थी। मेजबान की इच्छा थी कि मेहमानों को बहुमूल्य भोजन खिलाया जाए और उसमें घी से युक्त व्यंजन भी परोसे जाएं। किंतु जिस समय अछूत लोग भोजन कर रहे थे तो सैकड़ों की संख्या में हिन्दू लाठियां लेकर वहां दौड़े और भोजन को खराब कर दिया तथा अछूतों को बुरी तरह पीटा। परोसे गए भोजन को छोड़ मेहमान अपनी जान बचाने के लिए भाग गए। निःसहाय अछूतों पर ऐसा प्राणघातक आक्रमण क्यों किया गया? इसका जो कारण बताया गया है, वह यह था कि अछूत मेजबान इतना धृष्ट था कि उसने घी का प्रयोग किया और उसके अछूत मेहमान इतने मूर्ख थे कि वे  उसे खा रहे थे। घी निःसंदेह अमीरों के लिए एक विलास की वस्तु है। किंतु कोई भी यह नहीं सोचेगा कि घी ऊंचे सामाजिक स्तर का प्रतीक है। चकवारा के हिन्दुओं ने इसका दूसरा अर्थ लिया और उन अछूतों द्वारा उनके साथ की गई गलती के लिए हिन्दुओं के धार्मिक क्रोध में उनसे बदला लिया जिन्होंने अपने भोजन में घी परोसकर उनका अपमान किया था। उन्हें यह जानना चाहिए था कि वे हिन्दुओं के सम्मान की बराबरी नहीं कर सकते। इसका यह अर्थ है कि किसी अछूत को घी का प्रयोग नहीं करना चाहिए। ऐसा करना हिन्दुओं के प्रति उद्दंडता है। यह घटना पहली अप्रैल, 1936 या उसके आसपास की है।  

इन तथ्यों को बताने के बाद अब मैं सामाजिक सुधार के बारे में बात करूंगा। ऐसा करने में मैं जहां तक हो सकता है, श्री बैनर्जी का अनुसरण करूंगा। मैं राजनीतिक प्रवृत्ति के हिन्दुओं से पूछता हूं, “जब आप अपने ही देश के अछूतों जैसे एक बहुत बड़े वर्ग को सार्वजनिक स्कूल का प्रयोग नहीं करने देते तो क्या आप राजनीतिक सत्ता के योग्य हैं? जब आप उन्हें सार्वजनिक कुओं का प्रयोग नहीं करने देते तो क्या आप राजनीतिक सत्ता के योग्य हैं? जब आप उन्हें आम सड़कों का प्रयोग नहीं करने देते तो क्या आप राजनीतिक सत्ता के योग्य हैं? जब आप उन्हें अपनी पसंद के आभूषण और वेशभूषा धारण नहीं करने देते तो क्या आप राजनीतिक सत्ता के योग्य हैं?” मैं इस प्रकार के अनेक प्रश्न पूछ सकता हूं किंतु ये ही प्रश्न काफी होंगे। मैं व्यग्र हूं यह जानने के लिए कि श्री बैनर्जी क्या उत्तर देते। मुझे यकीन है कि कोई भी समझदार व्यक्ति इसका ‘हां’  में उत्तर देने का साहस नहीं करेगा। प्रत्येक कांग्रेसी को जो श्री मिल के इस सिद्धांत को मानता है कि एक देश दूसरे देश पर शासन करने योग्य नहीं है, यह बात स्वीकार करनी चाहिए कि एक वर्ग दूसरे वर्ग पर भी शासन करने के योग्य नहीं है।  


तब यह कैसे हुआ कि सामाजिक सुधार दल लड़ाई हार गया। इसे सही-सही रूप में समझने के लिए इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि समाज सुधारक किस प्रकार के समाज सुधार के लिए आंदोलन कर रहे हैं। इस संबंध में यह आवश्यक है कि हिन्दू परिवार के सुधार के अर्थ में समाज सुधार और हिन्दू समाज के पुनर्गठन तथा पुनर्निर्माण के अर्थ में समाज सुधार, इन दोनों में अंतर किया जाए। पहले प्रकार के समाज सुधार का संबंध विधवा विवाह, बाल विवाह आदि से है जबकि दूसरे प्रकार के समाज सुधार का संबंध जाति प्रथा के उन्मूलन से है।  

सामाजिक सम्मेलन एक ऐसी संस्था थी जिसका संबंध मुख्य रूप से ऊंची जाति के प्रबुद्ध हिन्दुओं से था जो जाति प्रथा के उन्मूलन के लिए आंदोलन करना आवश्यक नहीं समझते थे, दूर करने की भारी आवश्यकता को महसूस किया। वे हिन्दू समाज में सुधार करने के लिए खड़े नहीं हुए थे। वह जो लड़ाई लड़ रहे थे, वह परिवार के सुधार के प्रश्न पर ही केन्द्रित थी। इसका संबंध जाति प्रथा को तोड़ने के अर्थ में समाज सुधार से नहीं था। समाज सुधारकों ने इस मुद्दे को कभी नहीं उठाया। यही कारण है कि सामाजिक सुधार दल समाप्त हो गया।  

(यह अंश डॉ बी आर आम्बेडकर की प्रसिद्ध रचना ‘जाति का उन्मूलन’ से साभार)  

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