दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति का असली स्वरूप

चुनाव प्रचार में अब बैनर, झंडे और भीड़ के साथ महंगी गाड़ियां, महंगे रेस्तरां, पब और शराब की बोतलें शामिल हो चुकी हैं। ऐसे में विचारधारा और मुद्दों को जरूरी न मानने वाले छात्र इस प्रचार तंत्र को अपनाने वाले प्रत्याशियों को जीताने में अहम भूमिका निभाते हैं।

फोटोः अखिलेश त्रिपाठी
फोटोः अखिलेश त्रिपाठी
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अखिलेश त्रिपाठी

हर बार की तरह इस बार भी दिल्ली विश्वविद्यालय में चुनावी जंग और उसकी सरगर्मी जोरों पर है। सफेद शर्ट और कुर्ते के साथ नीले रंग का जींस पहने छात्र कैंपस में जगह-जगह दिखाई दे रहे हैं। एक-दूसरे से हाथ मिलाने का कार्यक्रम और खुले स्थान पर समूह चर्चा का दृश्य इन दिनों आम है। इन दिनों कैंपस में ‘भैया’ एक प्रचलित शब्द बन गया है। इसी साल दाखिला लेने वाले नये छात्र-छात्राएं भी इस राजनीतिक कबड्डी की गिरफ्त से बाहर नहीं हैं। उन्हें भी तमाम तरह की बधाइयों और शुभकामनाओं के बोझ से लाद दिया गया है और इस बोझ का सारा भार कैंपस की दीवारों और रास्तों पर लगी बड़ी-बड़ी होर्डिंग्स के कन्धों पर है।

दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति का असली स्वरूप

लेकिन आज का बड़ा सवाल यह है कि आज की छात्र राजनीति में, खास तौर से दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति में कौन से ऐसे बड़े कारण हैं जो किसी छात्र या संगठन को चुनाव लड़ने या जीतने में व्यापक स्तर पर मदद करते हैं?

जब हम राजनीति की बात करते हैं तो कुछ प्रमुख तत्व हमारे जेहन में आते हैं, जिसमें स्थानीय मुद्दे और समस्याएं, विचारधारा, जाति, धर्म, क्षेत्र, लिंग और अर्थ प्रमुख हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ की राजनीति भी इसी के इर्द-गिर्द घूमती है। देश की राजनीति को जिस तरह लेफ्ट, राइट और सेंटर के वैचारिक खांचे बांट कर देखा जाता है, ठीक उसी तरह डीयू में भी यही विचारधाराएं आइसा, एबीवीपी, एनएसयूआई और अन्य दूसरे छात्र संगठनों के रूप में नजर आती हैं। लेकिन छात्रों का दुर्भाग्य है कि छात्र हित के मुद्दे सिर्फ चुनावी घोषणा-पत्र का हिस्सा बनकर रह जाते हैं। जिसकी मुख्य वजह यह है कि छात्रहित के मुद्दों और समस्याओं पर आज भी धर्म, क्षेत्र और धनबल की राजनीति भारी पड़ती है।

विचारधाराएं एक संगठन को दूसरे संगठन से सिर्फ अलग करने का काम कर रही हैं। इन विचारधाराओं के आधार पर छात्रों को हिन्दू बनाम मुस्लिम या दूसरे भावनात्मक खांचे में बांटने और बरगलाने का काम किया जाता है। साथ ही राष्ट्रवादी और गैर राष्ट्रवादी होने का ठप्पा भी लगा दिया जाता है। अगर आप हिंदुत्व को मानते हैं और भारत माता की कल्पना से सहमत हैं तो आप राष्ट्रवादी घोषित हो सकते हैं। आपको बीजेपी की छात्र इकाई विद्यार्थी परिषद तत्काल गोद लेने को तैयार है। उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा और दूसरे वैसे सभी राज्य जहां आरएसएस के स्कूल मौजूद हैं, वहां से पढ़ कर डीयू में आने वाले छात्र विद्यार्थी परिषद से ज्यादा प्रभावित नजर आते हैं।

दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति का असली स्वरूप

एनएसयूआई और एबीवीपी में अगर फर्क किया जाए तो सिर्फ हिंदुत्व, भारत माता और मातृ संगठन का अंतर मात्र दिखाई देता है। शेष चुनाव के सारे मुद्दे और चुनाव लड़ने की प्रकृति एक जैसी ही दिखाई देती है। आइसा के रूप में वामपंथी विचारधारा का भी अपना एक स्थान है, लेकिन उसे कैंपस के छात्रों की बड़ी संख्या ‘एक पढ़ी-लिखी, गरीब, बौद्धिक और अप्रायोगिक विचारधारा’ से अधिक कुछ नहीं समझती। उसके द्वारा बनाए गए वोट बैंक का आधार उसके द्वारा जमीन पर किये गये काम और उस वैचारिक पृष्ठभूमि को मानने वाले लोग हैं। धनबल और साधन-सुविधाओं के मामले में वह दूसरे संगठनों से काफी कमजोर है।

अक्सर कहा जाता है कि दिल्ली विश्वविद्यालय की राजनीति एक विशेष क्षेत्र और जाति से जकड़ी हुयी है। लेकिन वास्तविकता यह है कि इसका किसी भी जातीय समीकरण से कोई लेना-देना नहीं होता। यह सिर्फ भौगोलिक और आर्थिक परिस्थितियों के कारण है। पिछले कई सालों से दिल्ली छात्र संघ की राजनीती में जाट और गुर्जर जातियों के प्रत्याशियों का प्रभाव देखा जा रहा है। एबीवीपी खुद 2013 से 2017 तक लगातार अध्यक्ष पद पर गुर्जर प्रत्याशी लड़ाती रही है और अक्सर विजयी रही है। जबकि दिल्ली विश्वविद्यालय में जाट और गुर्जर जातियों के विद्यार्थियों की संख्या महज 4 से 5 फीसदी ही है। उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान के साथ-साथ उत्तर-पूर्व और दक्षिण भारत के कई राज्यों से आने वाले दूसरी जातियों के विद्यार्थियों की संख्या इनसे कई गुना ज्यादा है। फिर ऐसे में बड़ा सवाल ये खड़ा होता है कि जाट और गुर्जर छात्रों को ही प्रत्याशी क्यों बनाया जाता है और वे कैसे जीत जाते हैं ?

इसका सीधा जवाब है, धनबल और बाहुबल। आज दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनाव में लिंग्दोह कमिटी के बनाए सारे नियम-कानून ताक पर रख दिए गए हैं। चुनाव प्रचार का खर्च, निर्धारित सीमा 5000 रुपये को कई गुना पार कर गया है और यह लाख और करोड़ तक जा पहुंचा है। यह एक ट्रेंड बन चुका है जिस पर अब तक कोई लगाम लगा पाना संभव नहीं हो सका है। दिल्ली-एनसीआर से जुड़े राज्यों के जाट और गुर्जर जातियों से आने वाले छात्र अपनी मंहगी जमीनों, व्यावसायिक स्थितियों और राजनीतिक पकड़ से अधिक मजबूत और सशक्त होते हैं। यही वजह है कि वो टिकट लेने से लेकर चुनाव लड़ने और जीतने तक भारी मात्रा में धनबल और बाहुबल का प्रयोग करते हैं। ऐसे में उत्तर-प्रदेश, बिहार, राजस्थान और अन्य राज्यों से आए ऐसे विद्यार्थियों के लिए इतना पैसा खर्च कर चुनाव लड़ना असंभव है, जिनके लिए अपनी पढाई का भी खर्च उठाना मुश्किल होता है। क्योंकि चुनाव प्रचार में अब बैनर, झंडे, नारों और भीड़ के साथ महंगी गाड़ियां, महंगे रेस्तरां, पब, बार, शराब की बोतलें और ना जाने क्या-क्या शामिल हो चुका है। ऐसे में विचार और विचारधारा और खुद से जुड़े मुद्दों को जरूरी न मानने वाले विद्यार्थी इस प्रचार तंत्र को अपनाने वाले छात्र नेताओं को वोट कर आते हैं और जीत दिलाने में भूमिका निभाते हैं।

इसके बावजूद जब कभी भी प्रमुख छात्र संगठनों की ओर से जाट-गुर्जर के अलावा दूसरी जातियों से आने वाले छात्रों को टिकट मिला है तो उन्होंने मजबूती के साथ दावेदारी पेश की है और कई मौकों पर जीते भी हैं।

लेकिन आज विश्वविद्यालय को ऐसे छात्र प्रतिनिधियों और संगठनों की जरूरत है जो छात्रों से जुडी समस्याओं पर संघर्ष करें और विद्यार्थियों को जाति, धर्म, लिंग, क्षेत्र और आर्थिक असमानताओं से युक्त भेदभाव और विभाजनकरी राजनीति से बाहर निकालने की ओर प्रतिबद्ध और कटिबद्ध हों। राजनीतिक पार्टियों के लिए भी यह जरूरी है कि वह अपनी-अपनी छात्र इकाइयों को जाति, क्षेत्र और धनबल के प्रभाव से मुक्त रखें ताकि सभी प्रकार की पृष्ठभूमियों से आने वाले छात्रों को राजनीति और राष्ट्र-निर्माण में समान अवसर मिलता रहे और उनकी सम्भावनाएं बनी रहें। यह उस राजनीतिक पार्टी के राष्ट्रीय विस्तार और भविष्य की राजनीतिक संभावनाओं के लिए भी बेहतर और मददगार साबित होगा, जिससे ये छात्र संघ जुड़े हैं।

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