आकार पटेल का लेख: गर्त में जीडीपी, राजधानी में अन्नदाता अनशन पर, अंतरधार्मिक विवाह पर पाबंदी, लेकिन 'सरकार' चुप

देश की राजधानी किसानों को विरोध आंदोलन की गवाह बन रही है। सरकारी एजेंट इन्हें एंटी-नेशनल और अलगाववादी बता रहे हैं। असल में यह शब्द हर उस शख्स के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है जो सरकार के किसी गलत कदम की तरफ उंगली उठाता है।

फोटो : विपिन / सोशल मीडिया
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आकार पटेल

सरकार ने हमें इसी सप्ताह बताया कि भारत की अर्थव्यवस्था में लगातारी दूसरी तिमाही में गिरावट हुई है। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि हम पिछले साल इन तीन महीनों में जितना उत्पादन करते थे या सेवाएं देते, उससे हम नीचे गिर गए हैं। इसका यह भी अर्थ है कि लाखों भारतीय परिवार या करोड़ों परिवार गरीबी में चले गए हैं। प्रधानमंत्री ने जब से लॉकडाउन लगाया तब से बीते 6 महीने में देश की अर्थव्यवस्था गर्त में ही जा रही है। दुनिया के सबसे सख्त लॉकडाउन ने देश को मंदी में झोंक दिया है, क्योंकि लगातार दो तिमाहियों में अगर अर्थव्यवस्था माइनस में जाती है तो इसका यही अर्थ होता है कि मंदी अधिकारिक तौर पर आ चुकी है।

हम मंदी में पहुंच गए हैं, यह हमें मीडिया ने बताया, प्रधानमंत्री ने इस बारे में कोई ट्वीट नहीं किया कि उनकी सरकार ने अर्थव्यवस्था के क्या आंकड़े जारी किए हैं। वित्त मंत्री भी इस पर चुप रहीं। नीति आयोग के प्रमुख ने कहा कि यह एक “खुश करने वाला आश्चर्य है” कि आंकड़े उतने खराब नहीं आए जितनी आशंका थी। मुख्य आर्थिक सलाहकार ने “सावधानीपूर्वक” आंकड़ों को देखने को कहा। यह बात अलग है कि उन्होंने पहली तिमाही में विकास दर प्लस में जाने का अनुमान जताया था, जबकि हुआ यह कि जीडीपी माइनस 23.9 फीसदी रसातल में चली गई। उन्होंने कहा था कि उकी रुचि गहरे शोध और सोच पर है। आर्थिक सर्वे में उन्होंने विकीपीडिया को एक सोर्स की तरह इस्तेमाल किया था। तीसरी तिमाही को लेकर भी कोई खुशखबरी नहीं है। बैंक क्रेडिट इस तिमाही में पिछले साल के मुकाबले खराब है। स्टील, सीमेंट, बिजली, कोयला, तेल रिफाइनिंग और फर्टीलाइज़र जैसे कोर सेक्टर की हालत भी अक्टूबर में सिकुड़ी है। अगर आपको ये सब नहीं पता, तो इसका एक ही कारण हो सकता है क्योंकि प्रधानमंत्री या वित्त मंत्री ने इस बारे में कोई ट्वीट नहीं किया। अगर वे किसी चीज को अनदेखा कर रहे हैं, तो मानो उसका अस्तित्व ही नहीं है।

सारे आंकड़े कार्पोरेट सेक्टर से हैं। लेकिन असंगठित क्षेत्र और लघु क्षेत्र में क्या हो रहा है, हमें कुछ खबर नहीं है, जबकि ज्यादातर भारतीय इन्हीं सेक्टर में काम करते हैं। गरीब और कमजोर तबका ‘वर्क फ्रॉम होम’ नहीं कर सकता। उन्हें तो रोज कुआं खोदकर पानी पीना है। हमें पता है तो यह कि नोटबंदी और जीएसटी की ही तरह लॉकडाउन ने भी छोटे और गरीब तबके से काम छीन लिया है और उनका काम कार्पोरेट सेक्टर को दे दिया गया है। संकेत इससे मिलता है कि शेयर बाजार ऐतिहासिक ऊंचाई पर पहुंच रहा है।


दूसरी तरफ देश की राजधानी किसानों को विरोध आंदोलन की गवाह बन रही है। किसान चाहते हैं कि केंद्र सरकार उन कानूनों को वापस ले जिनके जरिए उकी उपज पर डाका पड़ सकता है और उनकी रोजीरोटी छिन सकती है। सरकारी एजेंट कह रहे हैं कि विरोध आंदोलन करने वाले एंटी-नेशनल और अलगाववादी हैं। यह वह वाक्य है जो शिक्षाविदों, अल्पसंख्यकों, किसानों, असहमति जताने वाले उद्योगपतियों और हर उस शख्स के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है जो सरकार के किसी गलत कदम की तरफ उंगली उठाता है। हमारे राष्ट्रीय विमर्श का स्तर यहां पहुंच चुका है।

उधर लद्दाख में, चीन ने उन जगहों को खाली करने से इनकार कर दिया है जो उसने हमारी सीमा पर कब्जा कर ली हैं और भारतीय सेना को इस बार की सर्दियां वहां गुजारना होंगी जहां के लिए वह तैयार तक नहीं हैं। हमारे जवानों को ऐसे स्लीपिंग बैग्स दिए गए हैं जिन्हें पहले ग्लेशियर और ऊंचाई वाले इलाकों में इस्तेमाल के काबिल नहीं माना गया है। लेकिन उन्हें इसी से काम चलाना पड़ेगा क्योंकि हमारी सरकार ने समस्या से न निपटने का फैसला सा कर लिया है। प्रधानमंत्री ने ट्वीट किया कि जलवायु परिवर्तन पर उनकी ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के साथ शानदार बातचीत हुई। लेकिन उन्हें अपने मित्र शी जिनपिंग के साथ लद्दाख की समस्या पर बात करने का वक्त नहीं मिला। बात वही है, अगर आप किसी बात की चर्चा नहीं कर रहे हैं तो कोई समस्या है ही नहीं।


उनके दाएं हाथ देश के गृहमंत्री कहते हैं कि नागरिकता संशोधन कानून – सीएए उनका पसंदीदा प्रोजेक्ट है. लेकिन फिलहाल इसे स्थगित कर दिया गया है। लेकिन कोरोना महामारी खत्म होने के बाद इसपर अमल जरूर किया जाएगा। लेकिन इसका कोई जवाब नहीं है कि दिसंबर 2014 से पहले गैरकानूनी तौर पर भारत में आ गैर मुस्लमों को भारत नागरिकता दे रहा है उसे कोरोना ने कैसे प्रभावित किया है। इस महामारी के कारण किसी और कानून तो स्थगित नहीं किया गया है। लेकिन इसका विरोध करने वालों को दीमक कहकर आक्रामकता के साथ इसका प्रचार करने वाले अमित शाह फिलहाल धार्मिक भेदभाव का रास्ता अख्तियार करने में हिचकिचा रहे हैं। इसे समझने में आसानी हो सकती है अगर हम अमेरिका में हमारे राजदूत के बयान को गौर से देखें।

बीते दो सप्ताह के दौरान हमारे राजदूत उन अमेरिकी नेताओं के साथ मान-मनौव्वल वाली करने में व्यस्त रहे हैं जो भारत के सीएए और एनपीआर और कश्मीर के मुद्दे की आलोचना करते रहे हैं। वे इ ननेताओं के साथ अपनी मुलाकातों का जिक्र अपने ट्वीट्स में कर रहैं हैं जो मोदी सरकार के कदमों को पसंद नहीं करते हैं। कारण साफ है कि मोदी के मित्र डोनल्ड ट्रंप को अमेरिका ने खारिज कर दिया है और एक डेमोक्रेट अगले दो महीने में अमेरिका की बागडोर संभालेगा। डेमोक्रेटिक पार्टी मोदी के नेतृत्व में अपनाई जा रही भारत की नीतियों पर मुखर होकर अपनी चिंताएं जताती रही है। वह साफ कहती रही है कि मोदी का शासन बहुसंख्यावाद वाला है और अपने ही देश के अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित कर रहा है। ऐसे में भारत की डेमोक्रेट के साथ क्या जुगलबंदी बनेगी यह देखने वाली बात होगी।

इस सबके दौरान सत्तारूढ़ पार्टी के आचरण में कोई बदलाव नहीं आया है। उत्तर प्रदेश से लेकर मध्य प्रदेश तक और अन्य राज्यों में भी ऐसे मुस्लमों को 10 साल की सजा देने के कानून बनाए जा रहे हैं जो हिंदू महिलाओं से विवाह करेंगे।

हैदराबाद में बीजेपी ने स्थानीय चुनावों के प्रचार के दौरान कहा कि मुस्लिमों को दिया जाने वाला हर वोट भारत के खिलाफ वोट होगा। आज से 10 साल पहले ऐसा कोई कहता तो बवाल हो जाता, लेकिन आज इसे न सिर्फ सामान्य माना जाता है बल्कि इसे स्वीकार भी कर लिया गया है क्योंकि अब यहीं सामान्यीकरण है।

हमारे देश में इन दिनों यही सब चल रहा है। बिना आशंका के इन सबको देखना मुश्किल है और आने वाले वक्त की कल्पना बिनी किसी भय के संभव ही नहीं रह गई है।

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