राम पुनियानी का लेख: स्वाधीनता संघर्ष के इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने पर तुला है धार्मिक राष्ट्रवाद का बढ़ता कारवां

अब तक सांप्रदायिक ताकतें अब आधुनिक इतिहास, खासकर स्वाधीनता संघर्ष के इतिहास को तोड़-मरोड़ रहीं हैं ताकि एक ओर स्वाधीनता संग्राम की विरासत को कमज़ोर किया जा सके तो दूसरी ओर उन लोगों का महिमामंडन हो सके जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई से सुरक्षित दूरी बनाए रखी।

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राम पुनियानी

जैसे-जैसे संकीर्ण राष्ट्रवाद और मुखर, और आक्रामक होता जा रहा है वैसे-वैसे हमारे स्वाधीनता संग्राम के इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। धार्मिक राष्ट्रवाद का बढ़ता कारवां हमें नए सिरे से समझा रहा है कि हमें आज़ादी कैसे मिली। अब तक सांप्रदायिक ताकतें अपने आख्यान को बल देने के लिए देश के मध्यकालीन इतिहास का उपयोग करती थीं। अब वे आधुनिक इतिहास, और विशेषकर स्वाधीनता संघर्ष के इतिहास, को तोड़-मरोड़ रहीं हैं ताकि एक ओर स्वाधीनता संग्राम की विरासत को कमज़ोर किया जा सके तो दूसरी ओर उन लोगों का महिमामंडन हो सके जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई से सुरक्षित दूरी बनाए रखी और एक राष्ट्र के रूप में भारत के निर्माण की प्रक्रिया में हिस्सेदारी नहीं की।

कंगना रानौत ने दक्षिणपंथी सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के प्रति अपने झुकाव को छुपाने की चेष्टा कभी नहीं की। नफरत फैलाने के कारण उनके ट्विटर अकाउंट को स्थाई रूप से बंद कर दिया गया है। कंगना ने एक टेलीविज़न इंटरव्यू में कहा, "...भारत को आज़ादी 2014 में मिली जब प्रधानमंत्री मोदी सत्ता में आए..." उन्होंने 1947 में देश को मिली आज़ादी को 'भीख' बताया। उनके इस दावे से इतिहास की उनकी अज्ञानता जाहिर होती है। उन्हें पता ही नहीं है कि भारत ने कई दशकों तक अंग्रेजी शासन के चंगुल से स्वयं को मुक्त करने के लिए कठिन संघर्ष किया और तब कहीं जाकर हमें स्वतंत्रता हासिल हो सकी। उन्हें इस बात का भी कोई इल्म नहीं है कि भारत एक राष्ट्र कैसे बना। परन्तु बात सिर्फ कंगना की अज्ञानता तक सीमित नहीं है। उनका वक्तव्य उस नए आख्यान का भाग है, जिसे पिछले कई दशकों से सुनियोजित ढंग से निर्मित किया जा रहा था और जो पिछले कुछ सालों से हमारे सामने परोसा जा रहा है।

वैसे कंगना केवल नरेन्द्र मोदी के कथन को आगे बढ़ा रहीं हैं। सन 2014 में सत्ता में आने के बाद मोदी ने कहा था कि 1200 सालों की गुलामी का अंत होने जा रहा है। उनका आशय यह था कि औपनिवेशिक काल के अतिरिक्त वह दौर भी भारत की गुलामी का काल था जब देश के कुछ हिस्सों में भारतीय मुस्लिम राजाओं का शासन था। और अब चूँकि हिन्दू राष्ट्रवाद का शासन आ गया है इसलिए भारत की गुलामी का काल समाप्त हो गया है।

धार्मिक राष्ट्रवादी, स्वाधीनता संग्राम का हिस्सा नहीं थे। इसलिए वे अनेकानेक तरीकों से स्वयं को राष्ट्रवादी सिद्ध करने में लगे हुए हैं। इसी संदर्भ में यह दावा किया जा रहा है कि आरएसएस की भागीदारी ने भारत छोड़ो आन्दोलन को जबरदस्त ताकत दी। संघ के थिंकटैंक राकेश सिन्हा लिखते हैं, "उस साल अगस्त में चिमूर और अश्ती में कांग्रेस के जुलूसों में अधिकांशतः आरएसएस के कार्यकर्ता शामिल थे। उन्होंने पुलिस थानों पर हमले किये और इन तालुकों की पुलिस ने लोगों का बर्बर दमन किया। जिन लोगों को फांसी और उम्रकैद की सजा दी गई उनमें से अधिकांश संघ के कार्यकर्ता थे।" अपनी फंतासी को और विस्तार देते हुए उन्होंने लिखा, "आन्दोलन के संघ से बढ़ते जुड़ाव ने खलबली मचा दी। सरकार इस आशंका से भयभीत हो गई कि कहीं देश में सशस्त्र क्रांति न हो जाए क्योंकि आरएसएस और आजाद हिन्द फौज की सोच एक सी थी।"

यह दावा तत्कालीन आरएसएस प्रमुख गोलवलकर के निर्देश से मेल नहीं खाता। "सन 1942 में भी कई लोगों के ह्रदय में प्रबल भावनाएं थीं। उस समय भी, संघ का काम चलता रहा। संघ ने प्रत्यक्ष रूप से कुछ भी न करने का संकल्प लिया।" (श्री गुरूजी समग्र दर्शन, खंड 4, पृष्ठ 40).


सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के कुछ अन्य झंडाबरदार यह दावा कर रहे हैं कि भारत की आज़ादी में गांधीजी के नेतृत्व में चले आन्दोलन की कोई ख़ास भूमिका नहीं थी। इस सिलसिले में वे ब्रिटेन के प्रधानमंत्री एटली के भाषण को उदृत करते हैं, जिसे 1982 में इंस्टिट्यूट ऑफ़ हिस्टोरिकल रिव्यु में रंजन बोरा के एक आलेख में प्रकाशित किया गया था। इस भाषण को एक निर्विवाद सत्य के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। तथ्य यह है कि गांधीजी के नेतृत्व में चले भारत छोड़े आन्दोलन ने ब्रिटिश सरकार की चूलें हिला दीं थीं।

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि अंग्रेजों के भारत छोड़ने के निर्णय के पीछे कई कारक रहे होंगें। बहादुरशाह ज़फर के नेतृत्व में 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से लेकर अनुशीलन समिति, हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन और सुभाषचन्द्र बोस की आजाद हिन्द फ़ौज के क्रन्तिकारी आन्दोलन और रॉयल इंडियन नेवी द्वारा 1946 में विद्रोह तक, अनेकानेक कारणों ने अंग्रेजों को भारत को स्वतंत्र करने के लिए विवश किया होगा। परन्तु यह निर्विवाद है कि गाँधीजी के नेतृत्व में चला स्वाधीनता आन्दोलन इन सबसे अधिक व्यापक था। उसने लोगों को ब्रिटिश शासन के खिलाफ उठ खड़े होने के लिए प्रेरित किया, भारतीयों को निडर बनना सिखाया और उन सिद्धांतों के पक्ष में खड़ा किया जो आगे चल कर भारतीय संविधान का आधार बने। गांधीजी के नेतृत्व में चला स्वाधीनता आन्दोलन दुनिया का सबसे बड़ा जनांदोलन था।

दक्षिणपंथी साम्प्रदायिक राष्ट्रवादियों के आख्यान में स्वाधीनता आंदोलन के एक विशिष्ट और अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू को जानबूझकर नजरअंदाज किया जाता है और वह यह कि स्वाधीनता संग्राम केवल ब्रिटिश शासन के खिलाफ नहीं था बल्कि वह भारत के एक राष्ट्र के रूप में उद्भव की प्रक्रिया का अंग भी था। जैसा कि सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा था कि "भारत एक निर्मित होता हुआ राष्ट्र है।" आधुनिक भारत के निर्माण में गांधी, नेहरू, पटेल, मौलाना आजाद और उनके साथियों के योगदान का इससे सारगर्भित विवरण नहीं हो सकता। अधिकांश क्रांतिकारी (सूर्यसेन, भगतसिंह आदि) भी समावेशी राष्ट्रवाद में आस्था रखते थे। अपने शुरूआती जीवन में सावरकर भी ब्रिटिश-विरोधी क्रांतिकारी थे परंतु बाद में वे साम्प्रदायिकता के जाल में फंस गए और भारतीय राष्ट्र की उनकी परिकल्पना का अल्पसंख्यक हिस्सा न रहे।

कंगना रनौत, जो लक्ष्मीबाई के अपने पात्र से बहुत प्रभावित दिखती हैं, ने कहा "...मुझे मालूम है, पर 1947 में कौन सा युद्ध हुआ था इसके बारे में मुझे कुछ पता नहीं है। अगर कोई इस बारे में में मुझे जानकारी दे सके तो मैं अपना पद्मश्री लौटा दूंगी और माफी भी मांगूगी। कृप्या इस मामले में मेरी मदद करें।" शायद उन्हें ऐसा लगता है कि भारत ने किसी युद्ध से अपनी आजादी हासिल की है और 1947 में कोई युद्ध हुआ था। हम उनसे यह अपेक्षा भी नहीं करते कि वे यह जानेंगी कि भारतीय राष्ट्र अंग्रेजों के खिलाफ एक लंबे और कठिन संघर्ष के बाद अस्तित्व में आया था और इस संघर्ष का एक बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा यह था कि लोगों ने असहयोग आंदोलन (1920), सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930) और भारत छोड़ो आंदोलन (1942) में गांधीजी का साथ दिया। गांधीजी के नेतृत्व में लड़े गए स्वाधीनता संग्राम ने भारतीयों को समानता और स्वतंत्रता के मूल्यों के आधार पर एक किया और उनमें बंधुत्व का भाव जागृत किया।


वर्तमान शासन के अंतर्गत क्या हो रहा है उस पर क्षोभ व्यक्त करते हुए सत्ताधारी दल के सांसद वरूण गांधी ने कहा "कभी महात्मा गांधी के समर्पण और त्याग का अपमान किया जाता है, कभी उनके हत्यारे को सम्मानीय बताया जाता है और अब शहीद मंगल पाण्डे से लेकर रानी लक्ष्मीबाई, भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद और नेताजी सुभाषचन्द्र बोस तक लाखों स्वाधीनता संग्राम सेनानियों को अपमानित किया जा रहा है। मैं इसे देशद्रोह कहूं या पागलपन..." इस प्रश्न का उत्तर कौन देगा?

वरूण गांधी ने जो कुछ कहा वह रनौत के वक्तव्य का उपयुक्त उत्तर है परंतु जो महत्वपूर्ण लोग हैं, जो बीजेपी और आरएसएस के नेतृत्व का हिस्सा हैं, वे इस मामले में चुप रहेंगे। वे एक साथ कई भाषाओं में बोलने में सिद्धहस्त हैं। गांधीजी की हत्या के बाद भी वे एक ओर शोक मना रहे थे तो दूसरी ओर मिठाईयां बांट रहे थे।

(लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2017 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)

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