गणतंत्र दिवस विशेषः क्या वास्तव में हम एक जिंदा क़ौम हैं? हमें आता ही नहीं किसी बात पर गुस्सा!

भारतीय लोग नाराज नहीं होते हैं। वे सारी परिस्थितयों, सभी सरकारों और उनको दी जाने वाली यातनाओं और कठिनाइयों के अनुसार अपने आपको ढाल लेते हैं।

फोटोः नवजीवन
फोटोः नवजीवन

वह साल 1986 की एक शाम थी, जब लाहौर में रहने वाली अपनी बड़ी बहन के पास जाने के लिए मैंने पुरानी दिल्ली स्टेशन से अटारी स्पेशल ट्रेन पकड़ी थी। उन दिनों मैं कॉलेज में था, इसलिए कॉलेज के मेरे कुछ करीबी दोस्त मुझे स्टेशन छोड़ने आए थे। सामान रखने के बाद मैं प्लेटफॉर्म पर अपने दोस्तों के साथ बातचीत कर रहा था कि तभी एक यूरोपीय नागरिक ने आकर हमसे अपनी सीट के बारे में पूछा और फिर ट्रेन के अंदर चला गया। जैसे ही ट्रेन ने चलना शुरू किया मैं भी अंदर चला गया और अपनी निचली बर्थ वाली सीट पर बैठ गया। तभी किसी ने ऊपरी बर्थ से ‘हाय’ कहा तो मैंने ऊपर की तरफ देखा। ऊपर की बर्थ पर वही यूरोपीय व्यक्ति बैठा था जो तब ट्रेन में चढ़ा था जब मैं प्लेटफॉर्म पर अपने दोस्तों से साथ खड़ा था। मेरे जवाब का इंतजार किए बिना उसने मेरी तरफ एक सेब उछाल दिया, जिसे मैं बड़ी मुश्किल से पकड़ पाया, क्योंकि मैं उसके लिए तैयार नहीं था। तब हमने हल्की-फुल्की बातचीत की और एक दूसरे के बारे में पूछा और फिर कुछ देर बाद मैं सो गया। शुरुआती बातचीत में मुझे पता चला कि वह एक जर्मन नागरिक है, जिसने एक भारतीय लड़की से शादी की है और अपने कुछ दोस्तों से मिलने के लिए पाकिस्तान जा रहा है। सुबह करीब 6 बजे ट्रेन अटारी पहुंची और वहां सभी यात्रियों को ट्रेन बदलने के लिए उतरना पड़ा।

इस ट्रेन को पाकिस्तान से भारत आने वाले यात्रियों को लेकर वापस दिल्ली जाना था। लाहौर से आने वाले यात्रियों को भी अटारी में ट्रेन को छोड़ना होता है और भारत से आने वाले मुसाफिर उसी ट्रेन से लाहौर जाते हैं। लेकिन जब हम अटारी में उतरे तो हमें पता चला कि लाहौर से आने वाली ट्रेन, जिसे सुबह में आना था, वह शाम में पहुंचेगी। इस खबर से सभी निराश हो गए। अब सभी को पूरा दिन ट्रेन के इंतजार में स्टेशन पर ही गुजारना था। आगे की पूछताछ में पता चला कि उस ट्रेन का वक्त हर महीने बदलता रहता है। एक महीने वह ट्रेन सुबह में अटारी पहुंचती है और अगले महीने उसका वक्त शाम में हो जाता है। वह उस महीने का पहला दिन था जिसमें ट्रेन का वक्त शाम में हो गया था।

मैं और धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने वाले मेरे जर्मन दोस्त ने इस बीच चाय पीने का फैसला किया। चाय पीते हुए उसने मुझसे पूछा कि क्या और कोई रास्ता भी है। मैंने जवाब दिया कि मुझे इसकी कोई जानकारी नहीं है। मेरी भावभंगिमा ऐसी थी कि जैसे मेरे दिमाग में कुछ न हो और मैं मानसिक रूप से शाम तक ट्रेन का इंतजार करने के लिए तैयार था। आधे घंटे बाद वह जर्मन आया और मुझसे वाघा सीमा तक चलने के लिए पूछा, जहां से हम सड़क मार्ग से आगे जा सकते थे। मैं यह जोखिम नहीं लेना चाहता था, क्योंकि मेरे पास पैसे कम थे और मुझे नहीं पता था कि सड़क मार्ग से जाने पर मुझे कितना खर्च करना पड़ सकता था। उस जर्मन ने सड़क मार्ग से ही जाने का फैसला किया और निकल गया। उसके जाने के बाद मैंने अपनी आर्थिक स्थिति का हिसाब लगाया और अंत में सड़क मार्ग से जाने के लिए निकल गया।

मैं स्टेशन से बाहर निकला और वाघा बॉर्डर के लिए एक टैक्सी ले लिया। मैं अभी बीच रास्ते में ही था कि मुझे वह जर्मन नागरिक पैदल लौटता हुआ दिखा। मैंने टैक्सी चालक, जो एक सरदार जी थे, उन्हें रुकने के लिए कहा। मैंने टैक्सी से उतरकर उस जर्मन से पूछा कि क्या हुआ और वह वापस क्यों आ रहा है। उसने बताया कि विदेशी लोगों को पंजाब में दाखिल होने की अनुमति नहीं है, इसलिए उसे वापस छोड़ने के लिए कोई टैक्सी वाला तैयार नहीं हुआ (उस वक्त पंजाब में सिख आतंकवाद अपने चरम पर था, जिस वजह से विदेशी नागरिकों को वहां घुमने की इजाजत नहीं थी)। उससे बात करने के बाद, मैं टैक्सी में बैठ गया और वाघा सीमा के लिए रवाना हो गया, जहां मुझे भयावह अनुभव का सामना करना पड़ा। वहां के कर्मचारियों का व्यवहार बहुत रूखा और असहयोगात्मक था, जिसकी वजह से मुझे वापस अटारी स्टेशन लौटने के लिए मजबूर होना पड़ा।

जब मैं अटारी स्टेशन पहुंचा तो मैं अपने एक दिन पुराने जर्मन दोस्त से मिला। उस दिन हमने स्टेशन पर साथ में नहाया और शाम 4 बजे के करीब स्टेशन के दो प्लेटफॉर्मों को जोड़ने वाले पैदल पुल के बीचों-बीच खड़े होकर हम बातचीत कर रहे थे। एक छात्र होने के नाते मैं जर्मनी और यूरोप के बारे में जानने के लिए बहुत उत्सुक था। मैंने उससे पूछा कि अगर जर्मनी में ऐसा ही हुआ होता तो वहां क्या प्रतिक्रिया होती। उसने मेरी आंखों में देखा और बोला कि अगर ऐसा कुछ जर्मनी में हुआ होता तो वहां आग लग जाती। मैं उसके जवाब से बुरी तरह हिल गया था। मुझे लग रहा था जैसे उसने पूरे भारतीय नस्ल की आलोचना की थी।

बल्कि मैं कहूंगा कि मैं उसके जवाब से परेशान हो गया था। उस घटना के बाद से जब भी मैं वर्तमान और पिछली घटनाओं को देखता हूं, तो मुझे लगता है कि मेरा जर्मन दोस्त सही था। वास्तव में, जब मुगल आए, शीर्ष स्तर से हल्के प्रतिरोध को छोड़कर भारतीय लोगों ने उनके साथ सामंजस्य बैठा लिया। हमने उनसे कई चीजें लीं और कुछ वर्षों में हम उनके साथ इतने सहज हो गए कि शादी से लेकर व्यापार तक में हम एक हो गए। हमें गुस्सा नहीं आया, क्योंकि प्रतिरोध सिर्फ शासकों की तरफ से था। लेकिन, जहां तक जनता का सवाल था, हम समायोजित करने और सामंजस्य बिठाने को लेकर बहुत खुश थे।

फिर अंग्रेज आए और उन्हें भी मुगल और अन्य शासकों की ओर से कुछ प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, लेकिन वे अपने 'फुट डालो औऱ राज करो' की नीति के साथ उस प्रतिरोध को कुचलने में सक्षम थे। एक बार फिर, भारतीय जनता नाराज नहीं हुई। बहुत जल्द ही पूरे भारत पर अंग्रेजों का कब्जा था और भारतीय लोग उनकी और उनके हर कदम की प्रशंसा कर रहे थे। करीब दो सौ साल तक उन्होंने राज किया। इसलिए, दो विदेशी जातियों ने भारत आकर सदियों तक यहां शासन किया और हमने उनके साथ बहुत अच्छी तरह से सामंजस्य बैठाया। हमने उनके साथ न केवल सामंजस्य बैठाया बल्कि हम उनकी भाषा बोलने में गर्व का अनुभव करने लगे। मुगल काल के दौरान अदालत की भाषा फारसी थी और उसके बाद अंग्रेजी अदालती भाषा बन गई। ये कुछ इतिहास की घटनाएं हैं, लेकिन अगर हम वर्तमान मुद्दों को देखें, तो हमें अपने लोगों की वास्तविक प्रकृति का एहसास होगा।

जब राजीव गांधी ने प्रधान मंत्री के रूप में पदभार संभाला, तो उन्होंने सभी सरकारी कर्मचारियों से कार्यालय के समय का पालन करने के लिए कहा था। मेरे लिए हैरानी वाली बात थी कि सभी सरकारी कर्मचारी निर्धारित समय से पहले ही कार्यालय में मौजूद रहने लगे थे। उन्होंने कार्यालय के समय का धार्मिक रूप से पालन किया और अपनी दिनचर्या को उस हिसाब से ढाल लिया। हालांकि, यह उनके लिए मुश्किल था, क्योंकि इसकी उन्हें आदत नहीं थी। अब हाल के दिनों में, हम एक ऐसी सरकार को देख रहे हैं, जिसने ऐसे फैसले लिए हैं जिनकी वजह से आम आदमी के जीवन में तूफान आ गया है। नोटबंदी एक ऐसा ही फैसला था और इस फैसले की वजह से पैदा हुई हर कठिनाई के साथ इस देश के लोगों ने सामंजस्य बैठा लिया। बैंकों के बाहर कतार में कई लोगों की जान चली गई, आर्थिक रूप से हर कोई प्रभावित हुआ, घरेलू उद्योग-धंधे बर्बाद हो गए और हर तीसरे व्यक्ति का पारिवारिक जीवन प्रभावित हुआ, लेकिन हममें गुस्सा नहीं था, हम नाराज नहीं हुए।

अच्छे इंसानों की तरह, हमने परिस्थितियों से सामंजस्य बिठा लिया और निर्देशों का पालन किया। मुझे लगता है कि समायोजन की इस प्रकृति में देश का मौसम भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हर चार महीने में एक अलग मौसम आता है और हम उनमें से हर एक के साथ सामंजस्य बैठा लेते हैं। इसी तरह, हम हर सरकार और उसके द्वारा पैदा की जाने वाली सभी कठिनाइयों से सामंजस्य बैठा लेते हैं। लोग भले शांतिप्रिय बताकर भारतीय नस्ल की तारीफ करें, लेकिन मेरा ऐसी नस्ल में विश्वास नहीं है जो हर स्थिति और हर किसी के साथ सामंजस्य बैठा लेती है। हम भारतीय नस्ल की यही प्रकृति है, जिसकी वजह से न सिर्फ सदियों तक हम पर विदेशियों का शासन रहा, बल्कि आज भी हम मॉब लिंचिंग, सांप्रदायिक हिंसा और हर तरह के भ्रष्टाचार जैसे अमानवीय कृत्यों को समायोजित कर लेते हैं। अगर मुझे अपने जर्मन मित्र से मिलने का एक बार फिर मौका मिलता है, तो मैं उसे बताऊंगा कि हम भारतीय हैं, जो हर परिस्थिति और सभी के साथ सामंजस्य बैठाने की कला जानते हैं। ध्यान रहे, हम गुस्सा नहीं करते हैं।

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